Saturday 8 November, 2008

क्या हो गया

आते जाते आवारा बादल चलने को आवाज़ लगाते
उठें मगर जायें कहाँ शहर अँधेरा घर खाली है
कितना खाली कितना सूना हर मन का घर आँगन
कैसे कोई फ़ूल खिले रूखी सूखी हर डाली है

यह मेरा है वह मेरा है इसी भरम मे व्यर्थ जिये
अब सब जब भेद खुला तो बची कोई भी साँस नहीं है
खोलें मुट्ठी या बन्द करें खाली हाथ सदा खाली हैं
तृप्ति मिलेगी इस जीवन मे ऐसी कोई आस नही है

जाने कितने अरमानो से चलने की तैयारी की
जाने को उस पार खड़े कागज़ की भी नाव नहीं है
एक झरोखा सूरज लाये गिरी दिवारें तूफ़ानो को
कहाँ ठौर है तन को अब मन को भी तो ठांव नहीं है

मूरत में वो उतरा तो है होश किसे और समय कहाँ
देवालय में लोग सो रहे क्या हो गया मकानो को
प्रेम नही है दया नही है तेरे मेरे में सब उलझे हैं
घर घर में व्यापार हो रहा क्या हो गया दुकानो को

अरे अरे मे बीते जाते अहा अहा के सारे पल छिन
कितने सपने रोज़ बिखरते अब होश में आना होगा
कैसे पाए कोइ उसको उसका कोई गाँव नहीं है
बाहर बाहर भटक लिये अब अपने भीतर आना होगा

4 comments:

  1. Truth of today's fast n ruthless life.......

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  2. you are a very good writer. i like ur poem dear.

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  3. Great bhai. You have a wonderful gift - to put your thoughts, as it is, on paper.

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  4. tumhari lekhani to din par din mukhar hoti ja rahi hai.

    Arvind awasthi

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