Monday 17 August, 2009

धूप छाँव

अभी तुम थे अभी नही हो
तुम जो कहते थे
सुबह हर रात की होती है
हर वीराने को घर होना है
तुम जिससे की
जिन्दा थी हसरतें
रोशनी का पता मिलता था
बैरंग से किसी एक ख़त को
जैसे एक मकाँ मिलता था
हवायें फ़ुसलाकर न जाने कहाँ कहाँ
तैयार रहती थीं भटकाने को
हर एक खयालात ने ठानी थी
छोड़ जाने को आशियाने को
तुम जो कि
किस्से सुनाते थे सूरजों के
कि गहराई हुई रात कटे
उम्मीदें जमा होने लगी थीं
आहट सी सुनी थी सुबह की
जीने के लिये फ़िर एक बार
दिल ने कहा था कि आओ चलें
उठके दो कदम और फ़िर देखा फ़िर के
सोचा था कि तुम मिलोगे मेरे पीछे
मुस्कराते हुये और कहोगे कि चलो दौड़ें
तुम जो कहते थे कि मरती नहीं है ज़िन्दगी
कहाँ हो तुम !
अभी तुम थे अभी नही हो
दिल है कि मानता ही नहीं
ऒर ये लगता है
अभी भी तुम हो
और यहीं कहीं हो!

5 comments:

  1. किसी के याद में मेरे मन में कुछ ऐसे ही ख्याल आते है
    जिन्हें आपने शब्दों में उतार दिया है
    अति सुंदर,दिल को छु लिया |

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  2. tumse jis se, zinda thi hasratein...roshni ka pata milta tha....


    kitna kuch simat jata hai ek inssan ke wajood mein... wo ho ya na ho !

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  3. kitni door ki soch hai aapki mishraji

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