Thursday 26 August, 2010

माया

सामने वाली को देखती है सर उठाये दम्भ से
ऊँची उठी एक लहर
सागर तल पर
विरोध और वैमनस्य का संसार है यह
अभी जल्दी ही नीचे गिर
दोनो को होगा आभास
कि दो नहीं हैं वे
और ये भी कि वे हैं ही नहीं
सागर है
तब भी जब अलग दिखती थीं वे
वे थी नहीं दरअसल
और दो तो कतई नहीं
होता यदि आभास उस वक्त ये उन्हे
तो होता संसार यह
समता और प्रेम का

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