| पहाड़ के सर चढ़कर बैठा है बन के बर्फ |
| बैठा रह सकता है सदियों वहीं जम के |
| लेकिन अगर और ऊपर जाना हो तो |
| पिघलना होना जिद छोड़ |
| बहना होगा नीचे |
| उबड़ खाबड़ पत्थरों पर |
| उनसे लड़ते हुये उनको बदलते हुये |
| राह बनानी होगी आडी तिरछी ही सही |
| ढोनी होगी गन्दगी |
| जूझना होगा मौसमों से |
| विलीन कर देना होगा स्वयं को सागर में |
| और फ़िर जब सूर्य रश्मियाँ पुकारें |
| निमंत्रण उनका सहर्ष स्वीकार कर |
| मिट कर हवा हो जाना होगा |
| तब वे ले जायेंगी वहाँ ऊपर |
| शिखरों से भी ऊपर |
| जहाँ है स्वच्छंद विचरण |
Tuesday, 30 August 2011
ऊपर
Wednesday, 24 August 2011
मीडिया
| ये वो शख्स है बेहया |
| जब पड़ती है इसके पिछवाड़े |
| तो सोहरा लेता है कोने में जा के |
| और फ़िर खीसें निपोर के |
| डुगडुगी बजाये लग जाता है वहीं |
| देखो देखो दिल्ली का कुतुबमीनार देखो .... |
| बरेली का मीनाबाज़ार देखो..... |
| बम्बई शहर की बहार देखो..... |
| पार्लियामेंट की जूतमपैजार देखो..... |
| तमाशा देखो..... |
| पैसा फेंको.... |
Monday, 22 August 2011
दुनिया मेरे आगे
| गीली गीली सी महकती रात |
| लुकते छिपते दोना भर सितारे |
| मटरगस्ती करते आवारा बादल |
| रुनझुन बूँदों की स्वर लहरी |
| पत्तों को छेड़ती सावनी बयार |
| देर तक मासूम पूनम का चाँद |
| कल रात जब वहाँ खेल रहा था |
| यहाँ इस तरफ इसी दुनिया में |
| भूख से हारतीं उम्मीदों और |
| सपनों को रौंदते यथार्थ में |
| जालसाजियों से पलंग सजाकर |
| तरक्की की सीता के साथ |
| सुहागरात के सपने देखता था |
| तंत्र और व्यवस्था का रावण |
| कोई पूछता था हमसे कि |
| तुम्हारी आँख में आंसू और |
| होठों पर मुस्कराहट एक साथ |
| तभी सामने सड़क पर नारे |
| और भीड़ की उत्तेजना पर |
| जोर से आ गई हंसी और |
| एक सवाल उठा जेहन में |
| ऐसा ही तो होता रहा होगा |
| पहले भी ग़ालिब के समय |
| जब भीतर से निकलता था |
| होता है शबोरोज़ तमाशा ......... |
Saturday, 20 August 2011
आज की ताज़ा खबर
| बहुत दिनों से नहीं मिला था मौका इनको चुराने को |
| और सामने गली के उस तरफ वाले |
| खूब हो रहे थे मोटे खा खा के चोरी का माल |
| इनमे कुछ थे नए नए लौंडे |
| खाते जाते थे तर माल दिखा दिखा के |
| और मुंह भी चिढावें साथ साथ |
| खूब करें हंसी ठट्ठा |
| आखिर लौंडे जो ठहरे |
| बानर बालक एक समाना.... |
| समझाया भी होगा बड़े बुजुर्गों ने |
| भईया छुपा के खाओ |
| न माने तो न माने |
| बहुत चिढ गए इस तरफ वाले |
| तो मचा दिए हल्ला एक दिन |
| इकठ्ठा हो गए सब जनता कालोनी वाले |
| लगे चीखने जोश में |
| अरे ये देखो हमारे फ्रिज की आइसक्रीम..... |
| इसको देखो ससुरा हमारे चौके से ले आया है आलू..... |
| हमारी ठिलिया के केले लगते हैं ये तो...... |
| देख इस बंदरिया को |
| पहने है पेटीकोट चुरा के हमारे आँगन से........ |
| साइकिल की घंटी चुरा के खेल रहे हैं लौंडे...... |
| वैसे तो दुमदार ठहरे कालोनी वाले |
| लेकिन अबकी आ गया दम साथ में सबके |
| उठाके डंडे जो दौड़े |
| तो चुरवे सब लगे गुहार मचाने उस तरफ वाले |
| कहें इधर वालों से कि भईया |
| आओ हम सब चुरकट मोहल्ले के लोग मिल जाएँ |
| और बजा दे बैंड जनता कालोनी का |
| लेकिन मुकर गए सब इस तरफ वाले चुरवे |
| भरे बैठे थे खूब |
| और फ़िर जो घमासान मचा |
| सो देख ही रहें हैं आप लोग सब |
Friday, 19 August 2011
रिटर्न ऑफ द रावण
| अभी अभी पता चला है |
| राम ने वध किया था जिस रावण का |
| वो दरअसल क्लोन था उसका |
| असली वाला तो हो गया था अंडरग्राउंड |
| खूब फला फूला |
| इतना कि समा नहीं सका लंका में |
| और फ़िर एक दिन कूद के आ पहुंचा इस पार |
| बढते बढते फ़ैल गया सब तरफ |
| इस पुण्यभूमि भारत में |
| अब वो लगा है अपनी दुष्टता में |
| खा डालता है खेत के खेत |
| नोंच खसोट डालता है बस्तियाँ |
| आग लगाता घूमता है हर ओर |
| हमारे चूल्हों में डाल जाता है पानी |
| अट्टहास करता सुना जाता है राजधानियों में |
| मुंह चिढाता है टीवी पर अक्सर |
| सड़कों पर खेलता है कबड्डी |
| मजाक उड़ाता रहता है व्यवस्था का |
| धज्जियां उड़ा डाली हैं नियम क़ानून की |
| पड़ोस के गुंडों को देता है शह |
| जो यहाँ आके मचाते हैं उत्पात |
| जीना कर रक्खा है हराम |
| अब तो आये कोई राम |
| और हाँ |
| बापू से नहीं होगा काबू |
| धनुष वाले राम चाहिए अब तो |
Thursday, 18 August 2011
दास मलूका कह गए सबके दाता राम
| पंछी करे न चाकरी अजगर करे न काम |
| सत्य वचन है भाई |
| अब देखो हमारे देश में आजकल |
| कुछ हैं जो अजगर की तरह |
| छीन झपट जोर जबरदस्ती से |
| भर लेते हैं पेट |
| और बाकी |
| जिनकी औकात नहीं है ऐसा करने की |
| टूंगते रहते हैं चिड़िया जैसे जो मिल जाये |
| अगर मिल जाये |
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