Monday 27 August, 2012

......प्रविशन्ति सुप्तस्य सिंघस्य मुखे मृगा: ......

कतई आश्चर्य नहीं होता मुझे जब

जूतम पैजार होती है असेम्बलियों और संसद में

कोई मन्त्री सभापति को निर्देश देता है

और पद की गरिमा की दुहाई भी

चोरी डकैती अपहरण ह्त्या बलात्कारों में लिप्त

अपने पवित्र होने का दावा करते रहते हैं

अपराध के सबसे बड़े अड्डे हैं जो भवन

उनकी आलोचना ज़रा बर्दास्त नहीं उन्हें

संविधान में से सिर्फ और सिर्फ अपने फायदे ढूँढ लेते हैं

न मिले तो बदल देते हैं सब मिल के

उनकी किताब है उनकी कलम

लाल बत्तियों में सवार बड़े बड़े गुंडे

जो तांडव करते घूमते हैं

शर्मा जायें उसे देखकर नरकाधीश यमराज भी

अनगिनत रुपयों की मचाते रहते हैं लूट

बंदूकें जो हैं उनके पास

इंसान की जानों पर सौदे बाजी

वोट बैंक की खातिर बेहूदे कानून

सत्ता का खुले आम दुरूपयोग

कुछ भी करते हैं मन मानी

कुछ भी कह देते हैं जवाब में मन मानी

तुम उखाड़ क्या लोगे उनका

लेकिन अचरज तब होता है जब

भूखों मरने को मजबूर

आत्महत्या करने को प्रेरित

बच्चे बेच डालने की नौबत में जीते हुए

दंगे में रोज खोते प्रियजन की याद में रोते

नौकरियों के अभाव में कुंठित नौजवान

इज्जतें लुटवाती औरतें कन्याएं

नरक से बदतर जिंदगी जीने को मजबूर

ये असंख्य जीव

जो इंसान कहलाते हैं

हाथ जोड़कर रिरियाते घिघियाते हुए

नेता नाम के दरिंदों के बुलावे पर

चल पड़ते हैं उनकी बकवास सुनने

और भी अचरज तब होता है मुझे जब

ये जान समझ कर कि

कुछ भी नहीं हुआ सुधार उनकी दशा में

कितनी तो बार कर चुके मतदान

कितनो को तो बिठा चुके अपनी खोपड़ियों पर

कितनो के तो हाथ में थमा चुके तलवारें

जो काट सकें तुम्हारी और तुम्हारों की ही गरदने

फिर फिर चल पड़ते हैं ठप्पा लगाने

अपने कसाइयों को चुनने

जैसे बट रहीं हों रेवडियाँ

बड़ा आश्चर्य होता है सचमुच

भेड़ों बकरियों हिरणों को

हाथ जोड़ प्रसन्न मुख जय जय कार करते

स्वेच्छा से सिंहो के मुखों में प्रवेश करते देखकर

बहुत आश्चर्य होता है

No comments:

Post a Comment