| मैंने कागज़ पर लिखा |
| आग |
| वह जला नहीं |
| पानी पानी का जाप किया |
| बुझी नहीं प्यास |
| पाक शास्त्र पढ डाले |
| नहीं मिटी भूख |
| कुछ तो गडबड है मुझमे |
| कुछ को आती है कीमिया |
| चुनाव होने को हैं |
| फिर बजेंगे भोंपू |
| फिर मिटेगी गरीबी |
| फिर दूर होंगी समस्याएं |
| फिर बनेगा देश खुशहाल |
| फिर मिलेंगीं सबको रोटियां |
| फिर सबके बगलों में चाँद होगा |
Thursday, 31 January 2013
इक बगल में चाँद
Wednesday, 16 January 2013
बस्तियाँ
| जीने में थी लाख अड़चने और सदा मरने का डर था |
| मिटटी की कमजोर दीवारें और टूटा फूटा सा छप्पर था |
| प्यार मोहब्बत रिश्ते नाते सब बिकते थे बाज़ारों में |
| हर ओर दुकाने लगी हुईं थी कहीं नहीं कोई घर था |
| बड़े बड़े विद्वानों का धंधा सही राह बतलाने का था |
| नहीं कहीं मंजिल थी कोई दुर्गम सा बस एक सफर था |
| बड़ा अचम्भा होता मुझको लोग जिसे बस्ती कहते थे |
| लाशों के अम्बार लगे थे खून से लथपथ पड़ा शहर था |
| मौत चीखती चिल्लाती नाचे फिरती थी गली गली |
| हंसने गाने की बात ही क्या सांस भी लेना दूभर था |
| जीने में थी लाख अड़चने और सदा मरने का डर था |
Thursday, 3 January 2013
विध्वंस
| तितलियों के पंख नोच डालने की चाहत |
| खिलते गुलाब की पंखुड़ियां तोड़ |
| बिखेर डालने की चाहत |
| किसी हिरन के उछलते दौड़ते नन्हे शावक को |
| मार गिरा देने की चाहत |
| देर शाम पहाड़ों के पीछे छिपते सूरज की खूबसूरत तस्वीर को |
| काले रंग से पोत डालने की चाहत |
| जिन किन्ही दिलों में कभी जन्म लेती है |
| वे लाख माने मर्द खुद को |
| समझें अपने को वीर |
| लेकिन ऐसा है नहीं |
| ताकत है अगर कुछ कर सकने की |
| तो कभी एक तस्वीर में रंग भर के दिखाओ |
| किसी दौड़ते को पंख देकर दिखाओ |
| किसी फूल में खुशबू डालकर दिखाओ |
| कोई बाग़ सजाओ तितलियों के लिए |
| वरना लानत है तुम्हारी ज़िन्दगी पर |
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