| शुरू जहाँ से किया था |
| काफी ऊपर आ गया उससे |
| मेरी तो नहीं लेकिन |
| औरों की अपेक्षा से बहुत ऊपर |
| छोडो बस अब बैठ रहो |
| अकसर आता है ये ख़याल |
| फिर मुझे याद आ जाते हैं अपने पिता |
| एक अजीब डर से फिर चलने लगता हूँ |
| वे होते तो ज़रा भी संतुष्टि नहीं दिखाते |
| वो जो आगे उस छोर पर एकदम आख़िरी मानव कदम है |
| जिसके आगे कोई कभी नहीं गया |
| वहां पहुँचने पर भी शायद नहीं |
| मुझ जैसे निखट्टू को |
| उनके जैसा ही धकियाने वाला चाहिए था |
| बचपन के समय तो बुरा लगता था बहुत |
| अब मैं लेकिन बहुत आभारी हूँ उनका |
| अफ़सोस ये कि वे ठहरे नहीं |
| मेरे आभार प्रकट करने तक |
Tuesday, 8 April 2014
पिता जी को श्रद्धा सुमन
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