Saturday, 19 March 2011

पिचकारी

होली की मस्ती छाई है
हर नार लगे भौजाई है
चंहु दिस ढोल मृदंग बजे
बयार फागुनी बौराई है
तरंगित सुर बांसुरी पनघट चौपाल
अठ्खेलियाँ कपोल प्रीत का गुलाल
ढोलकी की थाप पर अकुलाये मन
दहकत रूप बावरी मस्ती गदराये तन
आंगन अंबार टेसू नयन में खुमार है
जोर जबरदस्ती है चिरौरी है मनुहार है
ढलके सीने से स्नेह रंग
तक अंगिया भिगाई है
हर नार लगे भौजाई है
होली की मस्ती छाई है

Thursday, 10 March 2011

हो रहा भारत निर्माण

रोटी के जिन टुकड़ों को
तुम्हारे बदन का खून बनना था
किसी शोख के होठों पर लाली बन
कर रहे हैं
शामे सुहानी उनकी
वो बोतलें दवाओं की
जिनसे बचनी थी जान
नन्हे बच्चे की तुम्हारे
दो एक्स्ट्रा पैग बनकर
सर का दर्द होकर बैठीं हैं
उन साहब का
कपड़े का वो टुकड़ा
जो ढांकने को था इज़्ज़त
तुम्हारी जवान होती बेटी की
टंगा है बन के पर्दा छुपाने को
शायद कुछ घिनौना
सफ़ेद अम्बेसडर में उनकी
जिन लकडियों के टुकडों को
बनके छप्पर रोकना थी बारिश
कि जल सके ठीक से चूल्हा
चटक के जल रही हैं फ़ार्म हाउस के
बोन फायर में उनके
तुमको आज तक तुम्हारे राजा महान
दे सके नहीं रोटी कपड़ा दवा मकान
और कहते हैं कि हो रहा भारत निर्माण

Thursday, 2 December 2010

कंगूरे

ऊपर शिखर पर चमकते कंगूरे
जो दिखाई देते हैं भवन की शोभा
बुनियाद के जिन पत्थरों पर खड़े हैं
न उन पर बोझ हैं
पर अब तो उनको कुचलने में ही लग गये हैं
जी मे आता है कि चढ़कर ऊपर
ध्वस्त कर दिये जायें वे कंगूरे
लेकिन सोचता हूँ क्यों नाहक
किया जाये इतना भी श्रम
वे इतने तो नासमझ हैं
नहीं जानते कि जब
कुचल कर भरभरा जायेगी बुनियाद
तो वे भी नहीं बचेंगे

Saturday, 28 August 2010

सॉरी न्यूटन

अपनी पूर्णता मे खिला हुआ एक बड़ा सा फ़ूल
खड़ा है मुँह उठाये
आकाश की ओर
अभी जब मुर्झायेगा ये हल्का होगा
और झुक रहेगा धरती की ओर
चेतनाओं पर नहीं लागू होता
गुरुत्वाकर्षण का नियम

Thursday, 26 August 2010

माया

सामने वाली को देखती है सर उठाये दम्भ से
ऊँची उठी एक लहर
सागर तल पर
विरोध और वैमनस्य का संसार है यह
अभी जल्दी ही नीचे गिर
दोनो को होगा आभास
कि दो नहीं हैं वे
और ये भी कि वे हैं ही नहीं
सागर है
तब भी जब अलग दिखती थीं वे
वे थी नहीं दरअसल
और दो तो कतई नहीं
होता यदि आभास उस वक्त ये उन्हे
तो होता संसार यह
समता और प्रेम का

Tuesday, 24 August 2010

गीता सार: सच्चिदानन्द

वाद के बिना
नहीं देखा हमने विवाद कभी
रात के बिना
नहीं देखा हमने प्रभात कभी
ये तो संगी साथी हैं वस्तुत:
विरोधी हम समझते हैं
सब भ्रम है दृष्टि का हमारी
साथ चलते हैं राग और द्वेष
साथ रहते हैं घृणा और प्रेम
अलग है नहीं प्रकाश से अंधेरा
भूख से तृप्ति
एक हैं स्वर्ग नर्क
सुख दुख एक हैं
संयुक्त है मृत्यु जीवन से
मन करता है चुनाव
और होने नहीं देता प्रतिष्ठित
सत् चित् आनन्द में

Monday, 16 August 2010

१५ अगस्त २०१०

हो चुके बरसों आज़ादी मिले हुये
और अब तक आज़ाद हैं हम
आज़ाद हैं हम
भूखे रहने को
बाढ़ मे तबाह होने को
बीमारियों मे तड़पने को
अनाज सड़ता देखने को
सूखे की बरबादी झेलने को
मार डालने को खुद को आज़ाद हैं हम
आज़ाद हैं हम
चोरी करने को
लूटने खसोटने को
बलात्कार करने को
मार डालने को निरीहों को
दंगे फ़साद करने करवाने को
सरेआम अपराध करने को आज़ाद हैं हम
हवाओं मे घोलने को जहर आज़ाद हैं हम
सांस लेने को उसी हवा मे आज़ाद हैं हम
नाज़ायज शराब बेचने को आज़ाद हैं हम
उसको पी के मर जाने को आज़ाद हैं हम
वोट देके अपना नेता बनाने को आज़ाद हैं हम
नोट देके उनसे सब करवाने को आज़ाद हैं हम
अमीरों के गुलाम बने रहने को आज़ाद हैं हम
उन्ही के रहमो करम पे जीने को आज़ाद हैं हम
घुट घुट के जीने को
रोज़ रोज़ मरने को
खून के आंसू पीने को
जंजीर मे जकड़े रहने को
नालियों मे सड़ते रहने को
हर जोर ज़ुल्म को सहने को
थे आज़ाद पहले भी
और अब तक आज़ाद हैं हम
हो चुके बरसों आज़ादी मिले हुये

Tuesday, 3 August 2010

सूचना का अधिकार

खतरनाक रहा हमेशा
सच का धन्धा
जीसस को सूली
सुकरात को जहर
मंसूर को फ़ाँसी
गैलीलियो को नज़र कैद
ये सब
ईनाम ठहरे सच बोलने के
न जाने क्या क्या दिखाया सच ने और भी
जैसे
बुद्ध को पत्थर और गालियाँ
महावीर के कानों में कीलें
ये तो पुरानी बातें ठहरीं
अभी हाल ही में भी
मार दिये गये इसी चक्कर में
दुबे सरीखे भाई लोग
और अब आजकल तो
उतार दिये जाते हैं मौत के घाट
सच सुनने वाले भी
सूचना का अधिकार तो है आपको
मगर कीमत उसकी लीजिये जान

Monday, 2 August 2010

कॉमनवेल्थ गेम्स २०१०

खेल होने को हैं
खेल हो रहा है तैयारियों के नाम पर
खेल बन गई है निरीह जनता
खेल हो रहा है हमारी
खून पसीने की कमाई पर
खेल ही खेल मे और भर लेंगे कुछ लोग
पहले से ही भरी तिजोरियाँ
मीडिया ने भी खूब मचा रखा है खेल
बारिश तुली हुई है
खेल खराब करने को
और कुछ गाँधीवादियों की प्रार्थनायें भी
क्या गजब का चल रहा है खेल
एक भी टीम में दिखता नहीं मेल
कुछ हैं जो बिना खेले
और पहले से ही लगें हैं बटोरने में ईनाम
जो नहीं पा रहें हैं कुछ
लगें हैं बिगाड़ने में खेल
इतनी भी क्या आफ़त है भाई
खेल ही तो हैं आखिर

Wednesday, 28 July 2010

त्रिमूर्ति

तीन मैं हैं
एक तुम्हारे पास
एक मेरे पास
तीसरा अब है नहीं

Tuesday, 27 July 2010

मकान

ईंटे जोड़ता था जब मैने पूछा क्या कर रहे हो
मकान बना रहा हूँ उसने कहा था
क्या करोगे इसका फ़िर मेरा सवाल
रहूँगा इसमे वो बोला
दरवाजे लगाता था कभी
कभी झरोखे बिठाता था
और हर बार जवाब उसका वही
मकान बना रहा हूँ
जब बन गया मकान तो देखा मैने
न तो वो दीवालों मे रह रहा था
न दरवाजो या खिड़कियों मे ही
रहता था वो आकाश मे ही
हमेशा की तरह
हरेक की तरह

Monday, 26 July 2010

मेरी तलाश

मूर्तिकार
शिला खण्ड को
काटता छाँटता तराशता
सावधानी और कुशलता से
प्रकट करता एक सुन्दर मूर्ति
जो छिपी ही हुई थी अब तक पत्थर मे
वो तो सिर्फ़ उघाड़ भर देता है बस
निकाल अलग कर देता है कुछ
अतिरिक्त अनावश्यक
जानता है वो
निकाल फ़ेंक देना
कहाँ से और कितना
तलाश है
मुझ पाषाण को भी
एक दक्ष शिल्पी की

Friday, 23 July 2010

पोथियाँ

पुनर्जन्म मे था विश्वास
एकैत्मवाद पर करथे थे चर्चा
कर्म सन्यास या निष्काम कर्म
जीवात्मा की गति का प्रकरण
परमेश्वर की सर्वरूपता और निर्लेपता का दृष्टान्त
भारी भरकम विषय
जर्जर होती देह
निस्सन्देह वे बूढ़े थे
या हो रहे थे तेजी से
जानते बहुत थे वे
फ़िर भी जीते थे भय मे
कुछ लोग और भी थे
जो प्रेम मे थे
उन्हे कुछ पता नहीं था

Tuesday, 20 July 2010

क्षितिज

देखो दूर वहाँ
जहाँ मिल जाते हैं धरती आकाश
मन करता रहा पहुँच जाऊँ वहाँ
पाँव धरती पर
और सर को छूता आसमान
बहुत कोशिशें की
सब नाकाम
हम इन्सानो के बस का नहीं है ये
पाँव धरती पर रहें
तो दूर ही रहेगा आसमान
या फ़िर सर होगा जब आसमान पर
नहीं होंगे धरती पर पाँव

Monday, 19 July 2010

पिघलती आइसक्रीम

कोन मे आइसक्रीम ले
उसने जल्दी जल्दी खाना चाहा
पर वह थी ज्यादा जमी ठण्डी और सख्त
बाद मे जब पिघल के गिरने लगी
जल्दी जल्दी खाना पड़ा उसे
हालांकि अब वो चाहता था धीरे धीरे खाना
दांत और मुँह ठण्डे हो गये थे ज्यादा अब तक
ज़िन्दगी की कहानी ऐसी सी ही लगी मुझे
जल्दी जल्दी गुजारना चाहता था बचपन में
और उम्र थी कि सरकती मालूम होती थी
अब जीवन के उत्तरार्ध में
ढलान पर दौड़ती सी मालूम होती है उम्र
और दिल है कि चाहता है
ठहर जाये

Friday, 16 July 2010

चिराग

चाक पर व्यस्त रहे
दिये बनाने मे
कभी कोल्हू मे
पेरने को तेल
और कभी लगे रहे
बाती बनाने में
हाथ मेरे
अच्छा किया जो चिरागों ने हवाओं से दोस्ती कर ली
उन्हे बचाने को
हम कहाँ से लाते खाली हाथ

Thursday, 15 July 2010

ये शहर

गर्मी मे पानी की किल्लत
बिजली की लगातार कटौती
बहुत ज्यादा परेशान कर चुकी होगी
ऊपर से जरूरी चीजों के आसमान छूते दाम
सड़कों पर रोज बढ़ती छीना झपटी और मार पीट
भयानक जुर्म और फ़साद
इन सब से बहुत बुरा हाल हो जायेगा
फ़िर जब बारिश होगी
तो और भी बुरा
खस्ताहाल टूटी सड़कें
बजबजाती नालियां और सीवर
सड़ते कूड़े के ढेर
ट्रैफ़िक जाम दुर्घटनायें
मच्छर कीड़े और बीमारियां
नरक हो गया होगा जीना लोगों का
मजबूरन उठेगा एक दिन
ये शहर
गुहार लगायेगा नगर पालकों के दरवाजों पर
ऊँची बाड़ों के पीछे बन्द आरामदायक कमरों मे
उन लोगों के जूँ तक नहीं रेंगेगी कानो पर
निराश हारा थका मजबूर निरीह कुंठित
चुपचाप चल देगा वहाँ से दूर बाहर की ओर
और एक ऊँची पहाड़ी पर से कूद
आत्महत्या कर लेगा
ये शहर
चैन से राज करना तुम लोग
फ़िर इस खाली सुनसान बियाबान भयावह
शहर पर

Wednesday, 14 July 2010

बूँदें

तुम्हारी देह जैसी संदल स्निग्ध
वर्षा दिवस की गोधूलि वेला
ठिठकी फ़िर
तमस मे उतर गई
निस्पन्द

Tuesday, 13 July 2010

संस्कार

लोग नहीं बदलते
बदल जाती हैं इच्छायें
हाथ से खींचकर चलाई जाने वाली
एक छोटी गाड़ी
बदल जाती है
एक बड़ी गाड़ी मे
परिमाणात्मक परिवर्तन भले हो
गुणधर्म नहीं बदलते
कागज की चिन्दियों पर
लड़ते लड़ते
नाखूनो से नोचते
छुरे और तलवार जैसे विस्तारों मे
कब बदल जाते हैं
पता नहीं चलता
और अब विषय होती हैं
दूसरी तरह की कागज की चिन्दियां
कपड़े के गुड्डे
या चमड़े के
बहरहाल मुद्दा वही
माटी के पुतले
कुल मिलाकर महज़ मात्राओं का फ़र्क ही नहीं हैं क्या
हमारा परिपक्व होना
बहुत अलग बात है शायद
मनुष्य का संस्कारित होना

Monday, 12 July 2010

चदरिया

ज्यों की त्यों धर दी थी कबीर ने
और भी होते हैं कई
जो धर देते हैं ज्यों की त्यों
फ़र्क सिर्फ़ इतना है
कि वे ओढ़ते ही नहीं
बहुतों ने ओढ़ी भी
जाहिर था कि बहुत मैली थी उनकी
पाँव फ़ैलाने होते हैं कभी ज्यादा
तो चीथड़े हो जाती है कइयों की
खींचतान मे अक्सर
बड़े जतन की बात है
कबीर का जतन

Saturday, 10 July 2010

स्कूल असेम्बली

रोज शाम सूरज
पहाड़ी के पीछे
जिस जगह छुप जाता है
कौन सा रास्ता है
वहाँ पहुंचने का
क्या होता है उन सपनो का
जो पूरे नहीं होते
हरे रंग मे जो भी हरा है
वो हरा क्यों है
दो देशों के बीच की दूरी
बढ़ती क्यों चली जाती है
चलो माना कि जटिल हैं ये सवाल
लेकिन कोई ये तो बताये कि
छोटे बच्चों को रोज सवेरे
स्कूल की असेम्बली मे
खड़ा करके
घण्टो लेक्चर क्यों पिलाते हैं प्रधानाचार्य

Wednesday, 7 July 2010

भविष्य का गणित

इतिहास में
दो और दो चार
नहीं भी होते थे कभी
आज भी नहीं होते हैं कभी
न चाहें वे अगर जिन्हे आती है गिनती
जिन्हे नहीं आती है गिनती
आगे भी नहीं होंगे उन्हे
दो और दो चार
भविष्य में

Monday, 5 July 2010

अद्वैत

आइने के इस तरफ़ का शख्स
आइने के उस तरफ़ के शख्स से
पूछता है हैरान होकर
तुम बदल जाते हो रोज़
तुम कभी एक से नहीं दिखते मुझे
और एक मै हूँ कि वही का वही
आखिर ये माजरा क्या है
अगर वो बोल सकता तो कहता
मै नहीं हूँ
जो बोल सकता है
वो कहता है कि
मैं ही हूँ
जो मौन हो गया
वो जानता है कि
तू ही है

Saturday, 3 July 2010

सहचर

पहचान मांगी नहीं जा सकती
उसकी याचना नहीं
निर्माण होता है मेरी सखी
छलावा जानना अगर तुम्हे
ये समझाया गया कि असमर्थ हो तुम
कोमलता कमजोरी नहीं होती
करुणा का कतई ये मतलब नहीं
कि संकल्प दृढ़ नहीं तुम्हारा
जगह जगह समय समय पर
अपनी योग्यता का प्रमाण
मत मांगो औरों से
तुम्हारी अपनी जगह है समाज में
ये सब कुछ तुम्हारा भी है
बराबर से
और कुछ करना नहीं है विशेष
तुम्हे इसके लिये
सिर्फ़ जानना भर है
ठीक से देख लेना भर है खुद को
और निश्चित ही पाओगी तुम कि
अपनी महानता का दम्भ भरते हैं वे जो
भिन्न जरूर हो उनसे तुम
कम ज़रा भी नहीं

Thursday, 1 July 2010

मर्द बच्चे

आदमी हैं आखिर
हम नहीं करेंगे बलात्कार
तो कौन करेगा भला
न हो अगर
भीड़ भाड़ मे लड़कियों से छेड़ छाड़
तो हम पुरुषों को शोभा देगा क्या
पीट सकते हैं हम
तो पीटेंगे ही अपनी स्त्रियों को
मर्द बच्चे जो ठहरे
और फ़िर मर्यादा भी तो सिखानी है
उल्टे सीधे कपड़े पहने
देर रात यहाँ वहाँ घूमना
कोई ऊँच नीच हो जाये भला तो
बदनामी तो आखिर हमारी होगी ना
समाज के ठेकेदार जो ठहरे
मर्दों से ताल मे ताल मिलाकर
हंसी ठट्ठा करते शरम भी नहीं आती इनको
तो भला सख्ती तो करनी ही पड़ेगी
अब ये समझ लो भइया
हम आदमियों के इन्ही प्रयासों से
और इतनी मेहनत मशक्कत करने पर ही
बची है नाक समाज की वरना
बेड़ा गर्क ही कर दिया होता
इन जाहिल बेशरम कुलटाओं ने