आते जाते आवारा बादल चलने को आवाज़ लगाते
उठें मगर जायें कहाँ शहर अँधेरा घर खाली है
कितना खाली कितना सूना हर मन का घर आँगन
कैसे कोई फ़ूल खिले रूखी सूखी हर डाली है
यह मेरा है वह मेरा है इसी भरम मे व्यर्थ जिये
अब सब जब भेद खुला तो बची कोई भी साँस नहीं है
खोलें मुट्ठी या बन्द करें खाली हाथ सदा खाली हैं
तृप्ति मिलेगी इस जीवन मे ऐसी कोई आस नही है
जाने कितने अरमानो से चलने की तैयारी की
जाने को उस पार खड़े कागज़ की भी नाव नहीं है
एक झरोखा सूरज लाये गिरी दिवारें तूफ़ानो को
कहाँ ठौर है तन को अब मन को भी तो ठांव नहीं है
मूरत में वो उतरा तो है होश किसे और समय कहाँ
देवालय में लोग सो रहे क्या हो गया मकानो को
प्रेम नही है दया नही है तेरे मेरे में सब उलझे हैं
घर घर में व्यापार हो रहा क्या हो गया दुकानो को
अरे अरे मे बीते जाते अहा अहा के सारे पल छिन
कितने सपने रोज़ बिखरते अब होश में आना होगा
कैसे पाए कोइ उसको उसका कोई गाँव नहीं है
बाहर बाहर भटक लिये अब अपने भीतर आना होगा
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Truth of today's fast n ruthless life.......
ReplyDeleteyou are a very good writer. i like ur poem dear.
ReplyDeleteGreat bhai. You have a wonderful gift - to put your thoughts, as it is, on paper.
ReplyDeletetumhari lekhani to din par din mukhar hoti ja rahi hai.
ReplyDeleteArvind awasthi