| घटनाओं के झुरमुट से निकलकर |
| कुटिलताओं के झमेले में |
| कभी आशाओं के मेले में |
| कल्पनाओं की रजाई में घुसकर |
| आदमी और आदमी का मन चंचल |
| गठरी उहापोहों की लादे |
| गिरता लंगड़ाता कभी दौड़ता सरपट |
| मंझा डालता सातों आसमान |
| सर घुटनों पे रख कोने कांतर में जाता डूब |
| पहाड़ और सागर कभी एक कर देता |
| किसी एक से जाता हार बार बार |
| होशियारी और मूर्खता दोनों उसकी अपरम्पार |
| सबसे बड़ा अजूबा सबसे बड़ा कमाल |
| अजब दशा और गज़ब चाल |
| कहीं धमक और कहीं मद्धिम मद्धिम पदचाप |
| मंथर गति से चलता काल |
| बिना आवाज सबको काटता रहता चुपचाप |
Saturday, 31 December 2011
गया और ये गया
Thursday, 22 December 2011
अकथ कहानी बाबू की
| उनसे तो ज़रा पूछिये जिनने समझाया है |
| पढ़ लिख के आखिर उनने क्या पाया है |
| कटिया डाल बिना मीटर बिजली चलाई |
| कुलियों की जेब गरम कर बर्थ हथियाई |
| नंबर बढ़वा के बेटे को डाक्टरी पढ़वाई |
| घर बैठे बेटी को एमे की डिग्री दिलवाई |
| दलित कोटे का पंप अपने घर में लगाके |
| अन्ना की रैली में जाकर शोर मचाया है |
| उनसे तो ज़रा पूछिये जिनने समझाया है |
| टूर पे सेकण्ड से जाके फर्स्ट का बिल और |
| बुआ के घर पे रह के टीए डीये बनाया है |
| अस्पतालों से गरीबों की दवा बेच खाई है |
| गरीबों के हिस्से का दाल चावल चुराया है |
| रसीदों बिना नगद रुपयों से सौदे कियें हैं |
| बिस्तरों और लाकरों में सोना छुपाया है |
| उनसे तो ज़रा पूछिये जिनने समझाया है |
| दो कौड़ी के नेता से चार जूते खाए हैं |
| चपरासी और ड्राइवर पे रोब जमाया है |
| भांजे को उम्र कैद की सजा से बचाया है |
| और एक्सपोर्ट का लाइसेंस दिलवाया है |
| बच्चों का दलिया भैंसों का चारा खा गए |
| खेती की जमीन पर बंगला बनवाया है |
| उनसे तो ज़रा पूछिये जिनने समझाया है |
Wednesday, 21 December 2011
सभा में बैठने की अयोग्यता
| देखो अभी वो जो दफनाया गया है |
| या फ़िर वो जिसे जलाया गया है |
| और वे भी जो विसर्जित हुये हैं बहते पानी में |
| उन सबका सामाजिक अंतिम संस्कार भले ही किया गया हो अभी |
| भले ही चलते फिरते उठते बैठते सांस लेते रहें हों अब तक वे सभी |
| मौत लेकिन उन सभी की |
| घटित हो गई होगी बहुत पहले |
| या शायद पैदा ही वे हुये होंगे मुर्दा |
| क्योंकि किया तो उनने कुछ भी नहीं कभी |
| जब चुन के चुन के गर्भों को बनाया गया |
| अजन्मी कन्यायों का कब्रिस्तान |
| अटके नहीं कभी निवाले उनके हलक में |
| घूरों पे जब बच्चे इंसानों के खंगालते ढूँढते रहे खाना |
| सूअरों और कुत्तों के साथ |
| कभी देखा तो गया नहीं उनका खून गर्माते |
| ठन्डे हो रहे मासूम बच्चे नकली इन्जेक्सनो से जब |
| रौंद दी गई आबरू जब किशोरियों की किसी बड़ी कुर्सी तले |
| एक ज़रा सी आह तक तो सुनी गई नहीं उनके मुँह से |
| हमेशा के लिए चुप करा दिया गया सुकरातों को जब कभी |
| या जड़ गिए गए ताले कलमों पर |
| राते गए गहरे सन्नाटे में कभी जीभर रोये तक न वे |
| कुछ न कर पाने की लाचारी पर |
| न |
| जीना तो इस तरह होता नहीं इंसानों का |
| अगर ऐसा ही परिभाषित है जीवन किताबों में |
| तो लगा दो आग उनमे और अनपढ़ बने रहो |
| अगर ये विकास की कीमत है और मजबूरी सभ्यता की |
| तो रहने दो विकास और असभ्य बने रहो |
Friday, 9 December 2011
भूत प्रेत और चुड़ैलें
| भयानक घुप्प अँधेरा सांय सांय हवा |
| बिजली जैसी चमकती हर रंग की तेज रोशनियाँ |
| अजीब अजीब आवाजें |
| पी के शराब बोटियाँ नोंचते हड्डियाँ चबाते |
| नाचते हैं रातों को भूत प्रेत और चुड़ैलें |
| ऐसे डराते थे कुछ दुष्ट लफंगे औरों को |
| बस्ती के ज़रा बाहर पेड़ों के एक छोटे से झुरमुट के बारे में |
| जहाँ रात पीपल तले चिलम पीते हुये कर सकें वे सब हंसी ठट्ठा |
| और लूट भी लें गाहे बगाहे मिल जाये कोई भूला भटका |
| फूल गया शहर साफ़ हो गया पेड़ों का झुरमुट |
| ईंट गारा धूल मिट्टी सरिया लकड़ी चौखट पत्थर |
| इधर उधर ऊपर नीचे करते |
| सुपरवाइजरों के इशारों पर नाचते |
| गाली धमकी घुड़कियाँ खाते कामगार |
| आरे वेल्डिंग मिक्सर कटिंग दिन रात |
| अजीब अजीब तेज तेज आवाजें |
| तेज तेज रोशनियाँ धूल के गुबार |
| नाली के किनारे सुलगते चूल्हे रात गए |
| हड्डी हड्डी हुई जाती थकी हारी औरतों का मांस अगर बचा हो |
| तो नोंचते पव्वा भर पीकर |
| डेढ़ पसली लिए प्रेतों जैसे दिखते मरद उनके |
| बन जायेगी जब ये बिल्डिंग खूब बड़ी और ऊँची |
| सुना है खुलेगा इसमें एक शानदार डिस्क |
| नृत्य बोटियाँ शराब पार्टी ड्रग्स |
| अजीब अजीब आवाजें |
| रंग रंग की तेज रोशनियाँ |
| देर रात गए अंधेरों में |
Thursday, 8 December 2011
व्यवस्था लोग और व्यवस्थापक
| लोग कहते थे |
| ठीक नहीं है व्यवस्था |
| नालायक हैं व्यवस्थापक |
| व्यवस्थापक कहते थे |
| ठीक नहीं है व्यवस्था |
| लोग ही ऐसे हैं |
| लोग करते थे चर्चा |
| उद्विग्न होते थे |
| और कुछ नहीं करते थे |
| व्यवस्थापक करते थे चर्चा |
| उद्विग्न होते थे |
| और कुछ नहीं करते थे |
| नहीं ठीक थी व्यवस्था |
| नहीं ठीक है व्यवस्था |
| नहीं ठीक होगी व्यवस्था ? |
Tuesday, 29 November 2011
हमें वोट दो
| मैं ऐलान करता हूँ कि |
| अब से रातों को नहीं डूबा करेगा सूरज |
| कौवे साइकिलों से नदी पर तैरा करेंगें |
| औरों के फटे में टांग नहीं घुसाया करेगा अमेरिका |
| मर्द बच्चे आगे से औरतों को सताया नहीं करेंगे |
| आग पीकर अमर हो रहेंगे हिजड़े |
| कुत्ते पूँछ से तबला बजाया करेंगे |
| मैं ये भी ऐलान करता हूँ कि |
| घास की नोकों पर उगेंगे कटहल |
| कुछ भी खा पी सकेंगे कम्प्यूटर |
| छप्परों पर ऊँट खेलेंगे कबड्डी |
| बिल्लियाँ खांसती रहेंगी निरंतर |
| और ये भी कि |
| सूअरों को हंसना माना होगा |
| सर्वोत्तम आभूषण चना होगा |
| क्यों? |
| क्या कहते हैं आप? |
| कि मेरा दिमाग फ़िर गया है ? |
| लेकिन जब कुछ ऐसा ही अनर्गल |
| किसी चुनावी सभा में मंच का भोंपू |
| टांय टांय करता हुआ हर किस्म के रंगों में |
| कितना कुछ वमन करता रहता है |
| तब? |
Monday, 14 November 2011
बच्चों से
| माना वो आग उगलता है |
| लेकिन वही रौशनी देता है |
| सूरज से जलना मत सीखो |
| सीखो सबको रोशन करना |
| अच्छाई तो देखो शूलों की |
| वे करते हैं सुरक्षा फूलों की |
| काँटों से चुभना मत सीखो |
| सीखो सबकी रक्षा करना |
| हाँ बढ़कर उत्पात मचाता है |
| हरियाली भी वही तो लाता है |
| पानी से डुबाना मत सीखो |
| सीखो सबकी प्यास बुझाना |
| माना वो तूफ़ान उठाता है |
| उसका साँसों से भी नाता है |
| विध्वंस हवा से मत सीखो |
| सीखो सबको जीवन देना |
| जीवन हर पल अवसर देगा |
| सभी राह आगे कर देगा |
| बुराई किसी से मत लेना |
| सबसे अच्छाई चुन
लेना (बाल दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएँ) |
Tuesday, 8 November 2011
कब तक हो
| आह वो बचपन |
| गर्मी की छुट्टियों की |
| घमासान मस्ती भरे |
| नानी के घर के दो महीने |
| दिनभर शरारतें धमाचौकड़ी |
| रात खुले आकाश तले छत पर |
| भूतों की कहानियाँ |
| आस पड़ोस के लोगों का मिलने आना |
| अक्सर पूछते वे |
| कब तक हो |
| तीस जून की वापसी का रेल टिकट |
| उतर आता आँखों में |
| और मन में निराशा का एक पल |
| बरसों बाद अब |
| जब आता है जन्म दिन |
| याद आ जाता है तीस जून का टिकट |
| और जब कहते हैं लोग मुझसे |
| जन्म दिन मुबारक हो |
| मुझे लगता है कोई पूछ्ता हो जैसे |
| कब तक हो |
Monday, 31 October 2011
पेट से
| बहुत बढ़ चला है पेट |
| बैठी है नाले के पीछे की तरफ |
| चाय के खोखे के सामने |
| मिट्टी का एक टुकड़ा कुल्लढ़ का कुतरते |
| लगा कि जैसे |
| अभ्यास करा रही हो उसे |
| जिसे जनेगी अभी |
| माटी खाने का |
| माटी में जीने का |
| और यूँही माटी हो जाने का |
Friday, 28 October 2011
दिवाली
| गहरा गई थी साँझ |
| आधा चुल्लू कड़वा तेल लिए |
| उसने सोचा जरूर होगा |
| नून के साथ रोटी में लगा के |
| बच्चे खा लेंगे ठीक से |
| लेकिन फ़िर त्यौहार की रात |
| अन्धेरा भी नहीं ठीक |
| कोई गमी तो है नहीं घर में |
| उहापोह तो रहा मन में |
| हाथ मगर बेलते रहे बाती |
| और आखिर बार ही दिये |
| उसने भी दिये अपने चौबारे |
| कौन रोज रोज आती है दिवाली |
Wednesday, 5 October 2011
मेरे बगैर
| सुना है जबसे मेरे बगैर वो रह नहीं सकते |
| तबसे शहर के लोग हमसे खुश नहीं रहते |
| जो मेरी एक झलक पाने को भी तरसते थे |
| आंहें भरते थे कसम खाते थे और तडपते थे |
| दीवाना समझते हैं हँसते है और चले जाते हैं |
| अब वे लोग मेरे पास दो घड़ी भी नहीं रहते |
| सुना है जबसे मेरे बगैर वो रह नहीं सकते |
| पहले पहल तो मेरा दिल जार जार रोता था |
| सबकी बेदिली से दामन तार तार होता था |
| जी में हो तो रो लेते हैं कभी चुप बैठ रहते हैं |
| अपने इस हाल पर अब हम कुछ नहीं कहते |
| सुना है जबसे मेरे बगैर वो रह नहीं सकते |
| ज़रा ठेस पे दिल कांच का टूट जाये तो क्या |
| न अगर रोये तो कोई आखिर करे भी क्या |
| लोगों को ये गुमान है कि वे सख्त दिल हैं |
| आँसुओं को अफ़सोस है कि बह नहीं सकते |
| सुना है जबसे मेरे बगैर वो रह नहीं सकते |
| किसी को कोई भला किस तरह भुलाता है |
| अपने ही दिल से आखिर कैसे दूर जाता है |
| ये तो जिस पे गुज़रती है वही समझ पाता है |
| हम अगर चाहें भी तो खुद कह नहीं सकते |
| सुना है जबसे मेरे बगैर वो रह नहीं सकते |
Sunday, 2 October 2011
सारा
| देखो तो सब कुछ हमी हैं यहाँ |
| नहीं तो कुछ भी नहीं हैं यहाँ |
| चाँद तारों से सीधी मुलाकात है |
| उजालों की सूरज से सौगात है |
| मै राजी नहीं हूँ छोटी बात पर |
| दावा है सारी कायनात पर |
| ले सको तो दुनिया तैयार है |
| ज़िंदगी इससे कम पे बेकार है |
| उर्दू के दड़बे में रहना नहीं |
| एक मंदिर में सिमटना नहीं |
| टुकड़ों में हमको बटना नहीं |
| अपना तो ये पूरा संसार है |
| ले सको तो दुनिया तैयार है |
| क्यों हम भारत चीन के हों |
| क्यों नए या प्राचीन के हों |
| सब समयों और जगहों से |
| जीवन धर्म करम से पार है |
| ले सको तो दुनिया तैयार है |
| रहन सहन और खान पान |
| कितना विविध कैसा महान |
| ये सब कुछ जो भी है मेरा है |
| अपना ही सारा परिवार है |
| ले सको तो दुनिया तैयार है |
Friday, 30 September 2011
एक गीत
| मत देखो कितना शिक्षा का भण्डार भरा है |
| मत देखो कितना दौलत का अम्बार लगा है |
| इन चीजों से कभी भला कौन बड़ा होता है |
| मगर देखना दुनिया को कोई क्या देता है |
| मत देखो कितने व्रत उपवास कोई करता है |
| मत देखो नमाज में कोई कितना झुकता है |
| मत देखो पत्थर पर कितना माथा घिसता है |
| मगर देखना कोई कितने हृदयों में बसता है |
| मानवता का इतिहास हमारा ये बतलाता है |
| अपने कृत्यों से ही कोई महान कहलाता है |
| मत देखो पीछे कितनी वो भीड़ जुटा लेता है |
| नायक तो खुद को सब के लिए लुटा देता है |
| दो कृष्ण नहीं होते जग में दो राम नहीं होते हैं |
| ईसा और गौतम कईयों के नाम नहीं होते हैं |
| मत देखो वो किस महापुरुष जैसा दिखता है |
| देखो तो निजता में कोई कितना खिलता है |
Thursday, 29 September 2011
नवरात्रि व्रत कथा
| मर्द बच्चे भी आखिर क्या चीज हैं |
| ज़रा सोचो |
| हाथों में दफ्तर का बैग |
| या बाज़ार से सामन लाने का थैला लिये हुये |
| निकलती हैं जब देवियाँ सड़क पर |
| अपनी शालीनता के वाहन पर सवार |
| कोई भी कोर कसर नहीं छोड़ते मर्द बच्चे |
| छेड़खानी करने से |
| चीखती चिल्लाती सर पटकती रहती हैं घरों में |
| शराब कबाब ज़रा कम कीजिये |
| ज़रा पुण्य धरम कर लीजिए |
| नहीं सुनाई पड़ता |
| जब तक कि वो |
| एक हाथ में तलवार |
| और दूसरी में लहू से भरा खप्पर लिए |
| सवार ही न हो जाये शेर पर |
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