सवेरों ने अब अंधेरों से सांठगाँठ कर ली है |
रात के बाद दिन नहीं अब केवल रात ही आती है फिर से |
दूसरी तरह की रात बदलकर नाम और पहनावा |
अंधेरों में चलते काम करते जीते हुए लोग |
बेबस लाचार टकराते रहतें हैं एक दूसरे से |
सर फोड़ते रहतें दीवारों से |
बहाते खून |
खीझते स्वयं और अन्यों से |
कोसते जीवन और देवों को |
रोते दुर्भाग्य पर मानकर नियति अपनी |
और हमारी दुर्दशा पर हंसते |
अट्टहास करते मजे से जीते |
सुख से रहते |
इन्हीं गहन अंधेरों में देख सकने में सक्षम |
उल्लू और उनके चेले चमगादड़ |
संसदों में विराजमान ये जीव तो दूर करने से रहे अन्धेरा |
ताकत हो तो हम ही उगायें कोई सूरज |
हिम्मत हो तो हम ही जलें दीयों में |
Monday, 31 March 2014
चमगादड़ और दीये
Wednesday, 26 March 2014
जननी
अब उसके अपने पंख नहीं रहे |
अब नींद भी उसकी अपनी कहाँ रही |
जागी आँख से स्वप्न देखने की सहूलियत नहीं है उसे |
भविष्य को सोचने के लिए समय चाहिए |
जो कभी रहा ही नहीं उसके पास |
जो बीत गया सो बीत गया |
और ऐसा भी कुछ नहीं उसमें |
जो सोचने योग्य हो |
अभी जो है वही है |
और कैसा है वह |
सोचने से भी डर लगता है उसे |
प्रकृति एवं नियति की उससे अपेक्षा है |
नई मनुष्यता के जन्म की |
जिसके पास हों |
स्वप्न जो वो देख नहीं पाती |
उड़ान जो वो भर नहीं पाती |
इतिहास जहां वो जाना नहीं चाहती |
भविष्य जिसकी वो योजना नहीं कर सकती |
Monday, 24 March 2014
डंडा झंडा बैनर बिल्ले; शोर मचावें खूब निठल्ले
आजकल हम फिर से |
खून जलाते हैं अपना |
रोज सुबह और शाम |
देर शाम टीवी पर नेतागण |
अपने मुखार विंदुओं से |
जो अनर्गल प्रलाप का प्रवाह करते हैं |
उसकी शोभा अनुपम है |
और फिर सुबह अखबारों में |
उसी सब का विस्तृत वमन |
अहा क्या छवि होती है |
कलेजे तक उतर जाती हैं |
कुर्सी पर विराजते ही राम राज्य के स्वप्नों से मंडित |
उनके लोक लुभावन वादे |
मैं और मेरा सब सही बाकी सब है खट्टा दही |
उनकी उठा पटक |
समाज कल्याण गरीबी उन्मूलन स्त्री सुरक्षा की भावनाओं से ओतप्रोत |
उनकी इधर से उधर छलांगे |
असल समस्या लेकिन कुछ और ही है मेरी |
वो ये कि इस नामुराद को न भूलने की बीमारी है |
तो फिर जब ये अलौकिक लोकतांत्रिक महोत्सव का समापन होगा अभी कुछ समय बाद |
तो मेरा दिमाग ले आया करेगा खोद खोद के गर्त में से यही सब |
और चिढ़ाया करेगा फिर रोज सुबह और शाम दिल को |
और जलाया करेगा खून |
मैं सोचता हूँ कि |
आदमी की अगर औकात न हो भगत सिंह बन पाने की |
तो कम से कम याददास्त जरूर खराब होनी चाहिए |
बेहतर हो कि दिमाग ही कमज़ोर हो अगर हो तो |
Saturday, 22 March 2014
परवश
डाल से टूटा हुआ |
एक सूखा पता |
हवाओं में लहराता हुआ |
इधर उधर डोलता रहा |
हमने देखा ! |
विवश असहाय |
नियति के पाश से बाध्य |
हमने सोचा ! |
वो पत्ता भी क्या |
ऐसा ही सोचता है |
स्वयं एवं अन्य के विषय के ? |
या अहम् केवल |
सनक हम मनुष्यों के मस्तिष्क की ही है! |
Friday, 14 March 2014
भीड़भाड़ और भेड़िये
लो फिर आ गया मौसम |
टोपियाँ पहनकर टोपियाँ पहनाने का |
टोपियाँ उछालने का मौसम |
उन्हें जिताने का मौसम |
जो सब जीते हुए हैं ही |
उनके द्वारा जो सब हारे हुए हैं |
बड़ी गंभीरता से मजाक करने का मौसम |
गंभीर मसलों को मजाक में उड़ा देने का मौसम |
खीसें निपोरने का मौसम |
रुपये बोने का मौसम |
पत्ते काटने का मौसम |
तलुवे चाटने का मौसम |
वादे बरसाने का |
बहलाने फुसलाने का |
हरे हरे नोटों का |
जनता के वोटों का |
फिर आ गया मौसम |
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