आजकल हम फिर से |
खून जलाते हैं अपना |
रोज सुबह और शाम |
देर शाम टीवी पर नेतागण |
अपने मुखार विंदुओं से |
जो अनर्गल प्रलाप का प्रवाह करते हैं |
उसकी शोभा अनुपम है |
और फिर सुबह अखबारों में |
उसी सब का विस्तृत वमन |
अहा क्या छवि होती है |
कलेजे तक उतर जाती हैं |
कुर्सी पर विराजते ही राम राज्य के स्वप्नों से मंडित |
उनके लोक लुभावन वादे |
मैं और मेरा सब सही बाकी सब है खट्टा दही |
उनकी उठा पटक |
समाज कल्याण गरीबी उन्मूलन स्त्री सुरक्षा की भावनाओं से ओतप्रोत |
उनकी इधर से उधर छलांगे |
असल समस्या लेकिन कुछ और ही है मेरी |
वो ये कि इस नामुराद को न भूलने की बीमारी है |
तो फिर जब ये अलौकिक लोकतांत्रिक महोत्सव का समापन होगा अभी कुछ समय बाद |
तो मेरा दिमाग ले आया करेगा खोद खोद के गर्त में से यही सब |
और चिढ़ाया करेगा फिर रोज सुबह और शाम दिल को |
और जलाया करेगा खून |
मैं सोचता हूँ कि |
आदमी की अगर औकात न हो भगत सिंह बन पाने की |
तो कम से कम याददास्त जरूर खराब होनी चाहिए |
बेहतर हो कि दिमाग ही कमज़ोर हो अगर हो तो |
Monday, 24 March 2014
डंडा झंडा बैनर बिल्ले; शोर मचावें खूब निठल्ले
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