Monday 24 March, 2014

डंडा झंडा बैनर बिल्ले; शोर मचावें खूब निठल्ले

आजकल हम फिर से 
खून जलाते हैं अपना 
रोज सुबह और शाम 
देर शाम टीवी पर नेतागण 
अपने मुखार विंदुओं से 
जो अनर्गल प्रलाप का प्रवाह करते हैं 
उसकी शोभा अनुपम है 
और फिर सुबह अखबारों में 
उसी सब का विस्तृत वमन 
अहा क्या छवि होती है 
कलेजे तक उतर जाती हैं 
कुर्सी पर विराजते ही राम राज्य के स्वप्नों से मंडित 
उनके लोक लुभावन वादे 
मैं और मेरा सब सही बाकी सब है खट्टा दही 
उनकी उठा पटक 
समाज कल्याण गरीबी उन्मूलन स्त्री सुरक्षा की भावनाओं से ओतप्रोत 
उनकी इधर से उधर छलांगे 
असल समस्या लेकिन कुछ और ही है मेरी 
वो ये कि इस नामुराद को न भूलने की बीमारी है 
तो फिर जब ये अलौकिक लोकतांत्रिक महोत्सव का समापन होगा अभी कुछ समय बाद 
तो मेरा दिमाग ले आया करेगा खोद खोद के गर्त में से यही सब 
और चिढ़ाया करेगा फिर रोज सुबह और शाम दिल को 
और जलाया करेगा खून 
मैं सोचता हूँ कि 
आदमी की अगर औकात न हो भगत सिंह बन पाने की 
तो कम से कम याददास्त जरूर खराब होनी चाहिए 
बेहतर हो कि दिमाग ही कमज़ोर हो अगर हो तो 

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