एक दिन मै
किसी पतझड़ में
उठाके वो सारी गिरी हुई पत्तियाँ
पीली सूखी आवाज करती पत्तियाँ
टाँग दूँ पेड़ों पर फ़िर से
सुबह की सुन्दर मन्द बयारों को
बुला के छुपा बैठूँ वहीं कहीं आसपास
सूर्यास्त के समय का वो सुनहरा सागर
तान दूँ ऊपर बनाके छत
टाँक दूँ उसपे सजा सजा के
दूज से पूनम तक के चौदहों चाँद
तारे छुपा दूँ ढेर से पेड़ो के पीछे
बना के शामियाना झरनों के परदों से
तुम्हे बुलाऊँ वहाँ एक शाम
और आते ही तुम्हारे
डोलने लगें हवायें
सूखे पत्तों और झरनो का संगीत
टिमटिमाते हजारों तारे बिखर के
नाचने लगें यहाँ वहाँ
मै लेकर
तुम्हारी पसन्द का वो लाल गुलाब
बैठ घुटने के बल
तुम्हे भेंट कर
प्रणय निवेदन करूँ !
तब भी नहीं ?
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