| मत देखो कितना शिक्षा का भण्डार भरा है |
| मत देखो कितना दौलत का अम्बार लगा है |
| इन चीजों से कभी भला कौन बड़ा होता है |
| मगर देखना दुनिया को कोई क्या देता है |
| मत देखो कितने व्रत उपवास कोई करता है |
| मत देखो नमाज में कोई कितना झुकता है |
| मत देखो पत्थर पर कितना माथा घिसता है |
| मगर देखना कोई कितने हृदयों में बसता है |
| मानवता का इतिहास हमारा ये बतलाता है |
| अपने कृत्यों से ही कोई महान कहलाता है |
| मत देखो पीछे कितनी वो भीड़ जुटा लेता है |
| नायक तो खुद को सब के लिए लुटा देता है |
| दो कृष्ण नहीं होते जग में दो राम नहीं होते हैं |
| ईसा और गौतम कईयों के नाम नहीं होते हैं |
| मत देखो वो किस महापुरुष जैसा दिखता है |
| देखो तो निजता में कोई कितना खिलता है |
Friday, 30 September 2011
एक गीत
Thursday, 29 September 2011
नवरात्रि व्रत कथा
| मर्द बच्चे भी आखिर क्या चीज हैं |
| ज़रा सोचो |
| हाथों में दफ्तर का बैग |
| या बाज़ार से सामन लाने का थैला लिये हुये |
| निकलती हैं जब देवियाँ सड़क पर |
| अपनी शालीनता के वाहन पर सवार |
| कोई भी कोर कसर नहीं छोड़ते मर्द बच्चे |
| छेड़खानी करने से |
| चीखती चिल्लाती सर पटकती रहती हैं घरों में |
| शराब कबाब ज़रा कम कीजिये |
| ज़रा पुण्य धरम कर लीजिए |
| नहीं सुनाई पड़ता |
| जब तक कि वो |
| एक हाथ में तलवार |
| और दूसरी में लहू से भरा खप्पर लिए |
| सवार ही न हो जाये शेर पर |
Wednesday, 28 September 2011
महा न भारत
| सत्ता है शिखंडियों के हाथ |
| मामा शकुनि को सौंपी है विदेश नीति |
| सेनापति दुर्योधन के पास है गृह मंत्रालय |
| विधवा आश्रम नवोदय कन्या विद्यालयों आदि की |
| देखरेख के महत कार्य का बीड़ा उठाया है दुष्शासन ने |
| सर्वोच्च न्यायालय आधीन है प्रज्ञाचक्षुधारी राजा धृतराष्ट्र के |
| आँखों पर पट्टी बांधे साम्राज्ञी गांधारी |
| राज निवास में कोड़े फटकारते घूमते |
| अपने बाकी अट्ठानवे सुपुत्रों को बाँट रहीं हैं रेवड़ियाँ |
| जंगलों में घूम घूम कर एकलव्यों के |
| अँगूठे बटोरते गुरुवर द्रोणाचार्य |
| बन बैठे हैं अंगुलिमाल |
| राष्ट्र से बढ़कर अपनी प्रतिज्ञा के प्रति निष्ठावान |
| पितामह पड़े हैं मृत्यु शैया पर |
| महात्मा विदुर सेवा निवृत्ति के बाद की |
| अपनी राष्ट्राध्यक्ष की नियुक्ति के जोड़ तोड़ में हैं व्यस्त |
| वनवास के बाद आजीवन अज्ञातवास पर |
| पता नहीं कहाँ गायब हैं पांडव अपनी पत्नियों के साथ |
| उन्मादक बसंत ऋतु में |
| केतकी पुष्पों की सुगंध से परिपूर्ण वायु |
| और कामदेव के तूणीरों की भांति |
| मंडराते भ्रमरों के बीच |
| जमुना किनारे मनोरम लता कुंजों में |
| मुकुट कुंडल वनमालादि से अलंकृत |
| तन्वंगी कमनीय अक्षत यौवनाओं के साथ |
| विलास क्रीड़ा में लिप्त हैं बेसुध कामोत्सवमग्न |
| बंसी बजाते मनभावन विघ्नविनाशक रसिया |
| श्री कृष्ण ! |
Monday, 26 September 2011
बेटियाँ
| बंद करो इसे सीता कहना |
| ये नए समय की नारी है |
| अबला नहीं ये सबला है |
| और सब मर्दों पर भारी है |
| बन्दूक उठाकर हाथों में |
| सरहद पर जान गंवाती है |
| सब पर मालिक की तरह |
| दफ्तर में हुक्म चलाती है |
| खेल कूद के मैदानों में |
| इसने भी बाजी मारी है |
| ये नए समय की नारी है |
| हर जगह बराबर खड़ी हुई |
| दावा करती सिंहासन का |
| आन पड़े तो कर गुजरेगी |
| ये चीरहरण दुशासन का |
| बहुत दिनों से सहती आई |
| अब बन गई शिकारी है |
| ये नए समय की नारी है |
| कभी छेड़ ना देना इसको |
| ये कुछ भी कर सकती है |
| अगर जरूरत पड़ जाये तो |
| रावण को हर सकती है |
| दुष्टों इससे डर के रहना |
| अब ये रही नहीं बेचारी है |
| ये नए समय की नारी है |
| कुछ भी सहते जाने को |
| औरत अब लाचार नहीं है |
| ज़रा भी पीछे रहने को |
| ये बिलकुल तैयार नहीं है |
| अपना मालिक बनने की |
| अब इसकी पूरी तैयारी है |
| ये नए समय की नारी है |
Friday, 16 September 2011
एस धम्मो सनंतनो
| खुद अपने पैरों से चल कर ही मंजिल मिलती है |
| मत बैठ किसी सहारे रहना कदम बढाते रहना |
| सबको लेकर चलना ही मानवता कहलाती है |
| रह जाये न सोया ही कोई आवाज लगाते रहना |
| रोज सवेरे घर घर जाकर सबको दस्तक देता है |
| चिड़ियों के गले में रोज वही मीठे स्वर भर देता है |
| माना खुद अपने दम पे दुनिया रोशन कर देता है |
| एक ज़रा सा बादल लेकिन सूरज को ढक लेता है |
| मत बैठ सहारे उसके रहना दिये जलाते रहना |
| माना वे नावों को अक्सर मंजिल तक पहुँचाती हैं |
| तूफ़ान उठाकर मगर कभी रस्ते से भटकाती हैं |
| मर्जी से चलती हैं अपनी मर्जी से रुक जाती हैं |
| इसीलिए तो बावरी हवाएं आवारा कहलाती हैं |
| मत बैठ भरोसे जाना उनके पतवार चलाते रहना |
| पहन के टोपी घूम रहे हैं तिलक लगाये बैठे हैं |
| बाँट के भेड़ बकरियों जैसे भीड़ जुटाए बैठे हैं |
| मुर्दा राख का खेल रचाते देते आग का नाम |
| धर्म के नाम पे धंधा करते ईश्वर को बदनाम |
| अंगार बनाए रखना हो तो राख गिराते रहना |
Thursday, 15 September 2011
ईंटें कंगूरों की
| जब कभी काव्य जगत में | |
| चर्चा होती है किसी भवन की | |
| महिमामंडित किया जाता है नींव की ईंट को | |
| महान बलिदानी ईंट | |
| मजबूत गुमनाम चुपचाप | |
| पूरे भवन का बोझ उठाये | |
| ठीक है | |
| लेकिन नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता | |
| उन इंटो को भी | |
| जो बनाती हैं | |
| भवन की शोभा कंगूरों को | |
| क्योंकि उन सुसज्जित कंगूरों के बगैर | |
| याद करने का कोई भी ज़रिया नहीं बनता | |
नींव की ईंटों को
|
Friday, 9 September 2011
बहुरि करैगो कब
| काल करे सो आज कर.... |
| सेठ जी ने ये वचन तख्ती पर लिखवाया |
| और फ़िर इसको अपने दफ्तर में टंगवाया |
| उनने सोचा था कुछ फर्क पड़ेगा |
| इंसान थोड़ा जल्दी काम करेगा |
| अगले ही दिन सुबह धमाल हो गया |
| सारे दफ्तर का बुरा हाल हो गया |
| सभी के मन में कुछ न कुछ चल रहा था |
| भीतर ही भीतर बहुत कुछ पल रहा था |
| पढते ही सबको ये महा वचन भा गया |
| जो मन में था वो करने का समय आ गया |
| सोया हुआ दरबान जाग गया |
| और तिजोरी उठाकर भाग गया |
| चपरासी को बदले का मौका मिल गया |
| वो जूता लेके अफसरों पे पिल गया |
| क्लर्क ले भागा टाइपिस्ट को लेकर |
| पिटने से पहले खिसक लिया मैनेजर |
| जनता ने सेठ की खूब करी पिटाई |
| डाइरेक्टर ने उड़ाली उनकी लुगाई |
| मुफ्त तमाशा देख रहे नौकर |
| काल करे सो आज कर.... |
Thursday, 8 September 2011
लोक का अलौकिक तंत्र
| सूखे में बरबाद होना है या कि बाढ़ में |
| भूख से मरना पसंद है आपको |
| या कि इलाज के अभाव में |
| रेल दुर्घटना में भी मरने की सोच सकते हैं आप |
| किसी मंदिर की रेलमपेल में भी हो जाएगा ये काम |
| घायल होकर अपाहिज होना हो तो इतने तरीके उपलब्ध हैं |
| कि गिनाए ही न जा सकें |
| जो चाहो चुन लो अपने परेशान होने की वजह |
| सारे विकल्प खुलें हैं |
| आपकी बेटी का रेप हो सकता है |
| या आपके बेटे का इनकाऊंटर |
| या फ़िर आत्महत्या भी कर सकती है आपकी बीवी |
| गरीबी की लाचारी में |
| चुनाव आपका है |
| स्वतन्त्र हैं आप चुनने को |
| कच्ची देशी जहरीली शराब |
| बच्चों के स्कूलों में जहरीला दलिया |
| विषाक्त दूध फल सब्जियां |
| नकली दवाएं म्लेच्छ पानी |
| आपको बेकार में अपना दिन बरबाद करना है |
| बहुत सुविधाएँ है |
| किसी कचहरी में अर्जी को चले जाइए |
| राशन के दफ्तर या फ़िर |
| जन्म मृत्यु कार्यालय में |
| अपने मरे बाप का सर्टिफिकेट लेने पहुँच जाइए |
| आपको अपना खून जलाने का शौक है |
| इनकम टैक्स का दफ्तर है |
| नगर निगम का अद्भुत कार्यालय है |
| बैठे ठाले आ बैल मुझे मार का मन हो आये तो |
| पुलिस तो खैर है ही |
| सेवा में तत्पर सदैव |
| अनगिनत सेवायें हैं |
| अनगिनत विकल्प हैं |
| सतपुड़ा निवासी नेता आपकी गर्दन पर सवार होकर |
| आपकी जेब से खींचे आपकी गाढ़ी कमाई का रुपया |
| या फ़िर गंगा किनारे वाला सफेदपोश शातिर गुंडा नेता |
| तमाचा मार के आपके मुंह से निकाल ले निवाला |
| खूब विकल्प हैं |
| खूब चुनने को है |
| मस्त हैं राजा |
| परजा की ऐसी तैसी है |
| अजब तमाशा है |
| गजब डेमोक्रेसी है |
Wednesday, 7 September 2011
घर वापसी
| क्या पूछेगा घर वापसी पर |
| मेरा पिता मुझसे |
| कितना धन कमाया |
| ये पूछेगा क्या |
| या यश पद प्रतिष्ठा की कमाई का मांगेगा हिसाब |
| जाँच करेगा क्या |
| दान पुण्य धरम ईमान की |
| शायद नहीं |
| ये सब नहीं पूछेगा वो |
| जहाँ तक मै समझता हूँ उसे |
| वो जानना चाहेगा कि |
| किसी दिल मे राह की |
| या नहीं |
Tuesday, 6 September 2011
विशेषाधिकार
| चलो माना कि बुरी लगती हैं गालियाँ |
| लेकिन गोलियों से फ़िर भी बेहतर हैं |
| यहाँ करोड़ों लोगों को गालियाँ खाके रोटी तक नहीं मिलती |
| रोटियों कि खातिर खाते हैं न जाने कितने यहाँ पर गोलियाँ |
| जहाँ लोगों का ये अधिकार है मौलिक |
| कि इतना मिले उन्हें कि वो जी तो सकें कम से कम |
| उनमे से ज्यादातर को रोज भरपेट रोटी सूखी तक नहीं है |
| अपने बीमार बच्चों औरतों और बूढों को ले जाएँ |
| उन अस्पतालों में जहाँ अधिकार है उनका |
| उनकी हिम्मत तक नहीं होती उस ओर झाँकने की |
| सडक पर प्रसव को मजबूर गरीब औरतें |
| बजबजाती नालियों से बीन कर पेट भरने की कोशिश में |
| हमारे देश का नन्हा मासूम भविष्य |
| ख़ुदकुशी को मजबूर हमारे अन्नदाता |
| दुत्कार दिए जाते हमारे शहीदों के परिजन |
| कहाँ हैं उनके जीने के अधिकार |
| क्या उनका हिस्सा नहीं है उस जमीन के टुकड़े पर |
| जिसको खोदकर निर्दयता से चंद लोग |
| सब तरह के ऐश और आराम जुटाते हैं |
| या जगमगाती ऊँची इमारतें बनाकर |
| रात रात भर महफ़िलें सजाते हैं |
| वहीं बाहर ठण्ड में न जाने कितने दम तोड़ देते हैं |
| दाने दाने को मोहताज करोड़ों लोग |
| जब इस व्यवस्था में रह जाते हैं अनपढ़ |
| और बने रहते हैं लाचार पशुओं से भी बदतर |
| तुम इनकी बेबसी पर करते हो सियासत |
| लूटते खसोटते रहते हो इनकी हड्डियाँ और चूसते हो खून |
| खाते उड़ाते रहते हो इनके हिस्से का सरे आम लूट कर |
| और इस बेबसी लाचारी असहायता से क्षुब्ध होकर |
| निकल जाये किसी के गले से तुम्हारे लिए अपशब्द |
| तो तुम्हारे विशेषाधिकार का हनन हो गया |
| तुम्हे ये विशेष अधिकार दिया किसने |
| क्यों है ये विशेष अधिकार तुम्हारे पास |
| जिन नियम कानूनों के तहत |
| तुम अपने इस विशेषाधिकार का रोना रोते हो |
| उन्ही के तहत ये जिम्मेदारी तुम्हारी है कि |
| लोगों के साधारण अधिकारों की तो रक्षा हो कम से कम |
| जब तक नहीं होता ऐसा |
| तुम किस मुंह से करते हो अपने विशेष अधिकार की बातें |
| कुछ तो शर्म खाओ |
| इन छुद्र बातों पर व्यर्थ समय गंवाकर |
| और गुमराह तो न करो जनता को |
| यदि तुम सचमुच अपने विशेष अधिकार पर गर्व करते हो |
| तो उसे कमाओ अपने आचरण से कृत्यों से |
| ना कि छीनने कि कोशिश करो डंडे के जोर पे |
| अब बाज आओ छीनने झपटने चुराने और जोर जबरदस्ती से |
| वक्त आ गया है कि ठन्डे दिमाग से सोचो |
| ज़रा आराम करो |
| और तुम्हे जिस काम के लिए हमने नियुक्त किया है |
| सिर्फ वही काम करो |
Friday, 2 September 2011
दिल्ली की नज़र से
| गाँव को देखो कभी दिल्ली की नजर से |
| बेहतर इनको पाओगे किसी भी शहर से |
| भूखा वहाँ अब एक भी इंसान नहीं है |
| गरीबी से आज कोई परेशान नहीं है |
| बीड़ी दारु की एक भी दूकान नहीं है |
| जान खुद की लेता किसान नहीं है |
| ऐसा हमने जाना है टीवी की खबर से |
| गाँव को देखो कभी दिल्ली की नजर से |
| मिलता है सबको पीने को साफ़ पानी |
| मजबूरी अब नहीं है रोटी सूखी खानी |
| स्कूल पढ़ने जाती है गुड़िया सयानी |
| तंदुरुस्त हैं बच्चे बूढ़े स्वस्थ हैं नानी |
| कोई नहीं मरता है यहाँ शीत लहर से |
| गाँव को देखो कभी दिल्ली की नजर से |
| लहलहाती फसलें हैं गोदाम भरे हैं |
| लदे पेड़ फल फूलों से मैदान हरे हैं |
| बिजली सडक स्कूल अस्पताल है |
| गाँव गाँव इस देश का खुशहाल है |
| औरतें महफूज़ हैं अब जोर जबर से |
| गाँव को देखो कभी दिल्ली की नजर से |
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