चलो माना कि बुरी लगती हैं गालियाँ |
लेकिन गोलियों से फ़िर भी बेहतर हैं |
यहाँ करोड़ों लोगों को गालियाँ खाके रोटी तक नहीं मिलती |
रोटियों कि खातिर खाते हैं न जाने कितने यहाँ पर गोलियाँ |
जहाँ लोगों का ये अधिकार है मौलिक |
कि इतना मिले उन्हें कि वो जी तो सकें कम से कम |
उनमे से ज्यादातर को रोज भरपेट रोटी सूखी तक नहीं है |
अपने बीमार बच्चों औरतों और बूढों को ले जाएँ |
उन अस्पतालों में जहाँ अधिकार है उनका |
उनकी हिम्मत तक नहीं होती उस ओर झाँकने की |
सडक पर प्रसव को मजबूर गरीब औरतें |
बजबजाती नालियों से बीन कर पेट भरने की कोशिश में |
हमारे देश का नन्हा मासूम भविष्य |
ख़ुदकुशी को मजबूर हमारे अन्नदाता |
दुत्कार दिए जाते हमारे शहीदों के परिजन |
कहाँ हैं उनके जीने के अधिकार |
क्या उनका हिस्सा नहीं है उस जमीन के टुकड़े पर |
जिसको खोदकर निर्दयता से चंद लोग |
सब तरह के ऐश और आराम जुटाते हैं |
या जगमगाती ऊँची इमारतें बनाकर |
रात रात भर महफ़िलें सजाते हैं |
वहीं बाहर ठण्ड में न जाने कितने दम तोड़ देते हैं |
दाने दाने को मोहताज करोड़ों लोग |
जब इस व्यवस्था में रह जाते हैं अनपढ़ |
और बने रहते हैं लाचार पशुओं से भी बदतर |
तुम इनकी बेबसी पर करते हो सियासत |
लूटते खसोटते रहते हो इनकी हड्डियाँ और चूसते हो खून |
खाते उड़ाते रहते हो इनके हिस्से का सरे आम लूट कर |
और इस बेबसी लाचारी असहायता से क्षुब्ध होकर |
निकल जाये किसी के गले से तुम्हारे लिए अपशब्द |
तो तुम्हारे विशेषाधिकार का हनन हो गया |
तुम्हे ये विशेष अधिकार दिया किसने |
क्यों है ये विशेष अधिकार तुम्हारे पास |
जिन नियम कानूनों के तहत |
तुम अपने इस विशेषाधिकार का रोना रोते हो |
उन्ही के तहत ये जिम्मेदारी तुम्हारी है कि |
लोगों के साधारण अधिकारों की तो रक्षा हो कम से कम |
जब तक नहीं होता ऐसा |
तुम किस मुंह से करते हो अपने विशेष अधिकार की बातें |
कुछ तो शर्म खाओ |
इन छुद्र बातों पर व्यर्थ समय गंवाकर |
और गुमराह तो न करो जनता को |
यदि तुम सचमुच अपने विशेष अधिकार पर गर्व करते हो |
तो उसे कमाओ अपने आचरण से कृत्यों से |
ना कि छीनने कि कोशिश करो डंडे के जोर पे |
अब बाज आओ छीनने झपटने चुराने और जोर जबरदस्ती से |
वक्त आ गया है कि ठन्डे दिमाग से सोचो |
ज़रा आराम करो |
और तुम्हे जिस काम के लिए हमने नियुक्त किया है |
सिर्फ वही काम करो |
Tuesday, 6 September 2011
विशेषाधिकार
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