| परिवर्तन है धर्म |
| जड़ मान्यताओं से |
| विनाशक परम्पराओं से |
| तथ्यहीन आदर्शों से |
| चिंतन विहीन विश्वासों से |
| तनाव कटुता वैमनस्य संहार में डूबी |
| सामूहिक आत्मघात की ओर अग्रसर |
| मानवता की दिशा में |
| परिवर्तन है धर्म |
| न कि |
| धर्म परिवर्तन |
Tuesday, 23 December 2014
अधर्म परिवर्तन
Friday, 11 July 2014
ऐ लड़कियों
| तुम पर तुम्हारी कोई मर्जी नहीं चलेगी |
| बताय जाएगा तुम्हे किसी और के द्वारा |
| क्या पहनो क्या न पहनो |
| क्या खाओ क्या न खाओ |
| कहाँ जाओ कहाँ न जाओ |
| किससे बोलो किससे बतियाओ |
| हंसी मजाक तुम्हारा काम ही नहीं |
| तुम तो बस हुकुम बजाते रहो |
| मन तो है ही नहीं तुम्हारा आत्मा भी नहीं है |
| न मानो तो सज़ा के लिए शरीर है तुम्हारा |
| कदम कदम पर वही करो जो तुम्हे करने को कहा जाए |
| मन का हो न हो |
| पल पल वैसे ही जियो जैसे कि तुम्हे जीने दिया जाए |
| मन का हो न हो |
| ऐ लड़कियों |
| तुम कुछ भी करने के लिए नहीं हो आजाद |
| क्योंकि वे चाहते हैं ऐसा |
| वही वे जिन्हें करती हो तुम पैदा और पालना |
| और वो भी तुम्हारी मर्जी से नहीं |
| किसे और कब पैदा करो या न करो |
| वे ही तय करेंगे |
| एक दिन कहीं इन सब से होकर बहुत परेशान |
| तुम सब एक साथ कहीं मौत पर अगर चला बैठीं अपनी मर्जी |
| तो? |
Thursday, 3 July 2014
संस्कृति के रखवाले
| इधर मत खड़े हो |
| वो मत देखो |
| देखो वो मत खा लेना |
| ना ना उसको तो पीना ही मत |
| तुम्हे नहीं करने देंगे ऐसा |
| हम हैं ठेकेदार धरम के |
| और संस्कृति के रखवाले हैं हम |
| कैसे गिरने दे सकते हैं तुमको |
| नैतिकता का सारा भार है कन्धों पर हमारे |
| और हम ही हैं जगत गुरु |
| साक्षात ऋषि मुनियों की सन्तान |
| न धमकाएं हम तो नरक बन जाए ये समाज |
| हमारे बिना रसातल में समा जाए ये धरती |
| अरे सुनो |
| ओ आधुनिक कहलाने वालों भ्रस्टों |
| ओ पश्चिमी असभ्यता ओढ़े दुराचारी लोगों सुनो |
| ये चीखपुकार सुनकर एक आधुनिक भ्रष्ट राहगीर ने |
| उस सुनसान रास्ते किनारे एक गड्ढे में झाँका |
| जहां से ये आवाजें आ रहीं थीं |
| एक मरियल जर्जर बूढा शरीर नीचे पड़ा रिरियाया |
| बाबू जी कुछ पैसे दे दो |
| कुछ खाया नहीं कई दिनों से |
Monday, 12 May 2014
रंग बिरंगी
| चलो लग जाओ सब फिर से अपने अपने काम में |
| रात देर से घर लौटने वाली गरीब घर की कामकाजी लड़कियों |
| वापस लौट आओ सपनों से |
| और फिर तैयार रहो किसी दुपाये जानवर के आघात से |
| अब भी कुछ बदला नहीं है |
| रोज ईंटा ढोकर गुड़ रोटी खाने वालों |
| सोच समझ के बीमार पड़ना |
| या देख समझ के आना किसी ट्रक के नीचे |
| अब भी किसी ढंग के अस्पताल में कोई जगह नहीं है तुम्हारे लिए |
| लगा दो छोटे लड़के को फिर किसी पंचर बनाने की दूकान पे |
| और छोड़ दो ये ख़याल कि अफसर बनेगा वो |
| ढंग के स्कूल अभी भी नहीं हैं उसके लिए |
| मनरेगा में फावड़े चलाओ कुछ दिन तो पेट भरेगा |
| न हो ठीक से फसल सूखे में तो खा लेना जहर |
| कौन बड़ा मंहगा मिलता है |
| बिटिया को रौंद दे कोई दरिंदा तो दुआ करना कि वो मर ही जाए |
| या तो शर्म से या फिर सरकारी अस्पतालों की मेहरबानी से |
| कुछ नहीं बदला है अभी भी तुम्हारे लिए |
| मेला लगा था चार दिन का |
| परजा तंतर का रंगीन मेला |
| सजी थीं बड़ी बड़ी दुकाने |
| खड़े थे हरकारे जगह जगह |
| हाथ जोड़े सजाये रहे दुकाने |
| सब हो चुका व्यापार |
| हो चुकी कमाई जो जो करने निकले थे |
| ख़तम हो गया सब तमाशा अब लौट आओ |
| रंग बिरंगे सपने देख लिए बहुत तुमने |
| अब तो मर ही रहो जो स्बर्ग देखना हो तो |
| और कोई चारा न है और न था कभी |
| मन तो नहीं करता है इसके आगे सोचने का |
| लेकिन दिल है कि मानता नहीं ये कहने से |
| कि और न कभी होगा |
Tuesday, 8 April 2014
पिता जी को श्रद्धा सुमन
| शुरू जहाँ से किया था |
| काफी ऊपर आ गया उससे |
| मेरी तो नहीं लेकिन |
| औरों की अपेक्षा से बहुत ऊपर |
| छोडो बस अब बैठ रहो |
| अकसर आता है ये ख़याल |
| फिर मुझे याद आ जाते हैं अपने पिता |
| एक अजीब डर से फिर चलने लगता हूँ |
| वे होते तो ज़रा भी संतुष्टि नहीं दिखाते |
| वो जो आगे उस छोर पर एकदम आख़िरी मानव कदम है |
| जिसके आगे कोई कभी नहीं गया |
| वहां पहुँचने पर भी शायद नहीं |
| मुझ जैसे निखट्टू को |
| उनके जैसा ही धकियाने वाला चाहिए था |
| बचपन के समय तो बुरा लगता था बहुत |
| अब मैं लेकिन बहुत आभारी हूँ उनका |
| अफ़सोस ये कि वे ठहरे नहीं |
| मेरे आभार प्रकट करने तक |
Monday, 31 March 2014
चमगादड़ और दीये
| सवेरों ने अब अंधेरों से सांठगाँठ कर ली है |
| रात के बाद दिन नहीं अब केवल रात ही आती है फिर से |
| दूसरी तरह की रात बदलकर नाम और पहनावा |
| अंधेरों में चलते काम करते जीते हुए लोग |
| बेबस लाचार टकराते रहतें हैं एक दूसरे से |
| सर फोड़ते रहतें दीवारों से |
| बहाते खून |
| खीझते स्वयं और अन्यों से |
| कोसते जीवन और देवों को |
| रोते दुर्भाग्य पर मानकर नियति अपनी |
| और हमारी दुर्दशा पर हंसते |
| अट्टहास करते मजे से जीते |
| सुख से रहते |
| इन्हीं गहन अंधेरों में देख सकने में सक्षम |
| उल्लू और उनके चेले चमगादड़ |
| संसदों में विराजमान ये जीव तो दूर करने से रहे अन्धेरा |
| ताकत हो तो हम ही उगायें कोई सूरज |
| हिम्मत हो तो हम ही जलें दीयों में |
Wednesday, 26 March 2014
जननी
| अब उसके अपने पंख नहीं रहे |
| अब नींद भी उसकी अपनी कहाँ रही |
| जागी आँख से स्वप्न देखने की सहूलियत नहीं है उसे |
| भविष्य को सोचने के लिए समय चाहिए |
| जो कभी रहा ही नहीं उसके पास |
| जो बीत गया सो बीत गया |
| और ऐसा भी कुछ नहीं उसमें |
| जो सोचने योग्य हो |
| अभी जो है वही है |
| और कैसा है वह |
| सोचने से भी डर लगता है उसे |
| प्रकृति एवं नियति की उससे अपेक्षा है |
| नई मनुष्यता के जन्म की |
| जिसके पास हों |
| स्वप्न जो वो देख नहीं पाती |
| उड़ान जो वो भर नहीं पाती |
| इतिहास जहां वो जाना नहीं चाहती |
| भविष्य जिसकी वो योजना नहीं कर सकती |
Monday, 24 March 2014
डंडा झंडा बैनर बिल्ले; शोर मचावें खूब निठल्ले
| आजकल हम फिर से |
| खून जलाते हैं अपना |
| रोज सुबह और शाम |
| देर शाम टीवी पर नेतागण |
| अपने मुखार विंदुओं से |
| जो अनर्गल प्रलाप का प्रवाह करते हैं |
| उसकी शोभा अनुपम है |
| और फिर सुबह अखबारों में |
| उसी सब का विस्तृत वमन |
| अहा क्या छवि होती है |
| कलेजे तक उतर जाती हैं |
| कुर्सी पर विराजते ही राम राज्य के स्वप्नों से मंडित |
| उनके लोक लुभावन वादे |
| मैं और मेरा सब सही बाकी सब है खट्टा दही |
| उनकी उठा पटक |
| समाज कल्याण गरीबी उन्मूलन स्त्री सुरक्षा की भावनाओं से ओतप्रोत |
| उनकी इधर से उधर छलांगे |
| असल समस्या लेकिन कुछ और ही है मेरी |
| वो ये कि इस नामुराद को न भूलने की बीमारी है |
| तो फिर जब ये अलौकिक लोकतांत्रिक महोत्सव का समापन होगा अभी कुछ समय बाद |
| तो मेरा दिमाग ले आया करेगा खोद खोद के गर्त में से यही सब |
| और चिढ़ाया करेगा फिर रोज सुबह और शाम दिल को |
| और जलाया करेगा खून |
| मैं सोचता हूँ कि |
| आदमी की अगर औकात न हो भगत सिंह बन पाने की |
| तो कम से कम याददास्त जरूर खराब होनी चाहिए |
| बेहतर हो कि दिमाग ही कमज़ोर हो अगर हो तो |
Saturday, 22 March 2014
परवश
| डाल से टूटा हुआ |
| एक सूखा पता |
| हवाओं में लहराता हुआ |
| इधर उधर डोलता रहा |
| हमने देखा ! |
| विवश असहाय |
| नियति के पाश से बाध्य |
| हमने सोचा ! |
| वो पत्ता भी क्या |
| ऐसा ही सोचता है |
| स्वयं एवं अन्य के विषय के ? |
| या अहम् केवल |
| सनक हम मनुष्यों के मस्तिष्क की ही है! |
Friday, 14 March 2014
भीड़भाड़ और भेड़िये
| लो फिर आ गया मौसम |
| टोपियाँ पहनकर टोपियाँ पहनाने का |
| टोपियाँ उछालने का मौसम |
| उन्हें जिताने का मौसम |
| जो सब जीते हुए हैं ही |
| उनके द्वारा जो सब हारे हुए हैं |
| बड़ी गंभीरता से मजाक करने का मौसम |
| गंभीर मसलों को मजाक में उड़ा देने का मौसम |
| खीसें निपोरने का मौसम |
| रुपये बोने का मौसम |
| पत्ते काटने का मौसम |
| तलुवे चाटने का मौसम |
| वादे बरसाने का |
| बहलाने फुसलाने का |
| हरे हरे नोटों का |
| जनता के वोटों का |
| फिर आ गया मौसम |
Wednesday, 8 January 2014
DIVA……आज की स्त्री
| वादियों में बिखरी है सुकून की तरह |
| मोहब्बतों में उतरी है जुनून की तरह |
| पहली बारिश में सोंधी मिट्टी की महक |
| चिडिया के घोसलें में बच्चों की चहक |
| कफस के झरोखे से सुबह की आवाज़ |
| सहमे से नन्हे परों की पहली परवाज़ |
| आसमानों के हौसलों को चुनौती बनी |
| एक छोटी बेनाम आवारा बदली |
| कांपती शबनम की कोई बूँद सहमी |
| खुशबू लुटाने को बेताब अधखिली कली |
| बेआवाज़ खामोश कई कई रंगों में |
| कभी जलती कभी बुझती पिघलती शमा है वो |
| भादों की गीली रात बादलों के झुरमुट |
| तारों से छुपता छुपाता पूनम का चन्दा है वो |
| उलझी है रिश्तों में तिलिस्म की तरह |
| शायर के खयालों के जिस्म की तरह |
| पत्थरों पे खेलती पहाड़ी नदिया के जैसे |
| हज़ार फितने जगाती मौजे दरिया के जैसे |
| बीती सदियों के रंगीन किस्से |
| आगे के वक्तों की रूमानी कहानी |
| नींद है ख़्वाब है हौसला है वो |
| वही है ज़िंदगी वही है दीवा...नी |
Tuesday, 7 January 2014
जाहे बिधि राखे राम
| कुछ चुनी हुई आँधियाँ |
| कुछ चुनी हुई रातों को |
| कुछ रेगिस्तानो में |
| कहर ढाती रहीं |
| कुछ चालाक भँवरे |
| कुछ खूबसूरत बागों की |
| कुछ मीठी कलियों को |
| जबरन चूसते रहे |
| कुछ पेड़ों के नीचे |
| कुछ ऊँचे महलों मे |
| कुछ किये अनकिये |
| वादे टूटते रहे |
| कुछ बेजान झोपड़ों को |
| कभी दिन का सूरज |
| कभी रात का चाँद |
| बेदर्दी से जलाते रहे |
| चलती रही ज़िंदगी |
| मौसम आते जाते रहे |
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