कुछ बीत गया कुछ बिता दिया |
कुछ भूल गया कुछ भुला दिया |
कुछ उम्मीदों से रिश्ते थे |
कुछ रिश्तों से उम्मीदें थीं |
कोई बना रहा अनचाहा सा |
कोई चाहत के भी पार गया |
कुछ खूब निभा कुछ निभा दिया |
कुछ बीत गया कुछ बिता दिया |
कुछ जीवन था कुछ सपना था |
जो समय कटा सब अपना था |
इस दुनिया के कुरुक्षेत्र में |
इधर भी अपने थे और उधर भी |
कभी जीत गया कभी जिता दिया |
कुछ बीत गया कुछ बिता दिया |
यादें धड़कन क़िस्से क़समें |
कुछ तूफ़ानी कुछ शांत झील |
कभी पार गया कभी डूबा भी |
इस काल चक्र के दलदल में |
फ़ंसा कभी कभी फ़ंसा दिया |
कुछ बीत गया कुछ बिता दिया |
सूरज ने जलाया ज़रा ज़रा |
बारिश ने गलाया धीरे धीरे |
हवा सुखाती चुपचाप रही |
हम समझे थे जीवन जिसको |
टुकड़ों टुकड़ों में चला गया |
कुछ भूल गया कुछ भुला दिया |
Friday, 3 January 2020
बीती बिताई
Friday, 6 December 2019
कानून के हाथ
सुना होगा |
कानून की आँखें नहीं होतीं |
ऒर सुनिये |
उसके पाँव भी नहीं होते |
और न ही हाथ |
अगर चलना है कानून तो |
किसी न किसी को तो उसे चलाना होगा |
किसी न किसी को तो हाथ देने होंगे अपने |
ले लो हाथ में जिनका काम है ये |
वरना कोई न कोई तो लेगा ही |
हाथ में कानून |
Wednesday, 15 November 2017
ऐ लड़कियों
ऐ गंदी लड़कियों |
ऐ घूमने फिरने वाली लड़कियों |
सूर्यास्त के बाद भी |
तुम्हारे पैरों में चलने फिरने की ताकत रहती है आश्चर्य |
तुम्हे बनाते समय ईश्वर से कोई भूल हो गई होगी ज़रूर |
ऐ निर्लज्ज लड़कियों |
ऐ पढ़ी लिखी लड़कियों |
सिनेमा देखने के बावजूद |
तुम्हारी आँखों में देखने की शक्ति बनी रहती है आश्चर्य |
तुम्हे बनाते समय ईश्वर से कोई भूल हो गई होगी ज़रूर |
ऐ चाऊमीन खाने वाली लड़कियों |
ऐ तंग कपडे पहनने वाली लड़कियों |
ऐ हंसी मजाक करने वाली लड़कियों |
तुम्हे बनाते समय ईश्वर से कोई भूल हो गई होगी ज़रूर |
Tuesday, 14 November 2017
दिल्ली की धुंध
दिल्ली धुंध में है |
अब तो पता चल रहा है अंधों को भी |
आँख वाले कहते हैं लेकिन |
तख्तो ताज की मेहरबानी से |
बरसों से है |
धुंध में दिल्ली |
Monday, 13 November 2017
अमरत्व
वे चाहते हैं |
इतिहास के पन्नों पर दर्ज हो जाना |
जिन राहों पर चलकर |
वे जाती हैं वहां जहाँ |
न कोई होगा इतिहास लिखने वाला |
और न पढने वाला |
Monday, 29 May 2017
विकास का भोंपू
बज रहा है भोंपू दिन रात |
विकास विकास विकास विकास |
बह रहा है चारों ओर विकास |
लाउड स्पीकरों से निकलकर |
नया नया बना है |
गरम होगा शायद |
बटोर ही नहीं पा रही जनता |
लपक के नालियों में जा बहता है |
थोड़ा थोड़ा चाट लेते हैं कुत्ते |
सुअरों की मौज है |
ख़ूब भर रहे हैं पेट और घर |
कोलाहल मचा रहे हैं |
तालियाँ पीट रहे हैं |
उत्सव मना रहे हैं जगह जगह |
ख़ाली पेट आम आदमी |
जलसे में खड़ा होके खींसे निपोरने को बाध्य है |
नहीं तो कहीं ग़द्दार न क़रार कर दिया जाए मुल्क का |
Monday, 20 March 2017
बैठक
सब कुछ ख़त्म हो जाने के बाद |
बाकी बची यादें |
गाहे बगाहे |
बियाबान सन्नाटों में दीवारों से |
टकराती फिरती रहेंगी |
किसी के उलझन का सबब |
किसी के आंसुओं का राज़ |
किसी की तन्हाइयों की हमसफ़र |
किसी के परों का हौसला |
कहाँ तक लेकिन |
और कब तक |
उलझन आंसू तनहाई पर और दीवारों के |
खत्म हो जाने के बाद |
उन अनाथ यादों के लिये |
वक्त और कायनात की गिरफ्त में |
सफ़र करते रहने के दरम्यान |
आओ मिल बैठें और रोलें |
ज़रा देर हम तुम |
Saturday, 22 October 2016
छोटे बड़े भिखारी
भिखारी का कोई दीन धरम नहीं होता |
मंदिर मस्जिद गिरजा गुरुद्वारा या मदिरालय |
कहीं भी मांग लेता है |
उसकी कोई जात बिरादरी भी नहीं होती |
हिन्दू मुस्लिम इसाई या फिर अधर्मी |
किसी से भी मांग लेता है |
बाकी और लोग |
जो अपने को भिखारी नहीं समझते |
एक ही जगह जाते हैं मांगने |
हर बार जब भी कुछ चाहिए |
मिले न मिले |
मंदिर तो मंदिर मस्जिद तो मस्जिद |
और कुछ नहीं भी जाते कहीं मांगने |
जहाँ बैठे वहीं मांग की जप चलती रहती रहती है |
इस मामले में हम सब ज्यादातर लोग |
बहुत संकुचित भिखारी नहीं हैं क्या ? |
Monday, 18 July 2016
ख़ूनी किताबें
किताबें हैं आजकल |
बम बनाना सीख सकते हैं लोग |
जिन्हें पढ़कर |
लोग हैं जो समझा सकते हैं |
पढ़कर उन्हीं किताबों से |
खुद अगर न समझो तो |
कैसे और कहाँ उन बमों से |
सबसे ज़्यादा खून मासूमों का बहे |
ऐसी तरकीबें भी बताते है ये लोग |
ग़ज़ब तो ये है |
कि क्यों किया जाना चाहिए ऐसा |
यह भी बता देते हैं ये लोग |
एक किताब पढ़कर |
Friday, 5 February 2016
दशहरा
चमचमाती बिजलियां |
बेतहाशा शोर |
बड़े बड़े लोहे के रथों पर सवार |
हथियार बंद लोगों का हुजूम |
भारी तमाशबीन भीड़ को चीर |
जगह जगह घूमकर |
कागजों के पुतले जलाते |
अट्टहास करते रहे |
बहुत सारे रावण |
साल दर साल |
Tuesday, 23 December 2014
अधर्म परिवर्तन
परिवर्तन है धर्म |
जड़ मान्यताओं से |
विनाशक परम्पराओं से |
तथ्यहीन आदर्शों से |
चिंतन विहीन विश्वासों से |
तनाव कटुता वैमनस्य संहार में डूबी |
सामूहिक आत्मघात की ओर अग्रसर |
मानवता की दिशा में |
परिवर्तन है धर्म |
न कि |
धर्म परिवर्तन |
Friday, 11 July 2014
ऐ लड़कियों
तुम पर तुम्हारी कोई मर्जी नहीं चलेगी |
बताय जाएगा तुम्हे किसी और के द्वारा |
क्या पहनो क्या न पहनो |
क्या खाओ क्या न खाओ |
कहाँ जाओ कहाँ न जाओ |
किससे बोलो किससे बतियाओ |
हंसी मजाक तुम्हारा काम ही नहीं |
तुम तो बस हुकुम बजाते रहो |
मन तो है ही नहीं तुम्हारा आत्मा भी नहीं है |
न मानो तो सज़ा के लिए शरीर है तुम्हारा |
कदम कदम पर वही करो जो तुम्हे करने को कहा जाए |
मन का हो न हो |
पल पल वैसे ही जियो जैसे कि तुम्हे जीने दिया जाए |
मन का हो न हो |
ऐ लड़कियों |
तुम कुछ भी करने के लिए नहीं हो आजाद |
क्योंकि वे चाहते हैं ऐसा |
वही वे जिन्हें करती हो तुम पैदा और पालना |
और वो भी तुम्हारी मर्जी से नहीं |
किसे और कब पैदा करो या न करो |
वे ही तय करेंगे |
एक दिन कहीं इन सब से होकर बहुत परेशान |
तुम सब एक साथ कहीं मौत पर अगर चला बैठीं अपनी मर्जी |
तो? |
Thursday, 3 July 2014
संस्कृति के रखवाले
इधर मत खड़े हो |
वो मत देखो |
देखो वो मत खा लेना |
ना ना उसको तो पीना ही मत |
तुम्हे नहीं करने देंगे ऐसा |
हम हैं ठेकेदार धरम के |
और संस्कृति के रखवाले हैं हम |
कैसे गिरने दे सकते हैं तुमको |
नैतिकता का सारा भार है कन्धों पर हमारे |
और हम ही हैं जगत गुरु |
साक्षात ऋषि मुनियों की सन्तान |
न धमकाएं हम तो नरक बन जाए ये समाज |
हमारे बिना रसातल में समा जाए ये धरती |
अरे सुनो |
ओ आधुनिक कहलाने वालों भ्रस्टों |
ओ पश्चिमी असभ्यता ओढ़े दुराचारी लोगों सुनो |
ये चीखपुकार सुनकर एक आधुनिक भ्रष्ट राहगीर ने |
उस सुनसान रास्ते किनारे एक गड्ढे में झाँका |
जहां से ये आवाजें आ रहीं थीं |
एक मरियल जर्जर बूढा शरीर नीचे पड़ा रिरियाया |
बाबू जी कुछ पैसे दे दो |
कुछ खाया नहीं कई दिनों से |
Monday, 12 May 2014
रंग बिरंगी
चलो लग जाओ सब फिर से अपने अपने काम में |
रात देर से घर लौटने वाली गरीब घर की कामकाजी लड़कियों |
वापस लौट आओ सपनों से |
और फिर तैयार रहो किसी दुपाये जानवर के आघात से |
अब भी कुछ बदला नहीं है |
रोज ईंटा ढोकर गुड़ रोटी खाने वालों |
सोच समझ के बीमार पड़ना |
या देख समझ के आना किसी ट्रक के नीचे |
अब भी किसी ढंग के अस्पताल में कोई जगह नहीं है तुम्हारे लिए |
लगा दो छोटे लड़के को फिर किसी पंचर बनाने की दूकान पे |
और छोड़ दो ये ख़याल कि अफसर बनेगा वो |
ढंग के स्कूल अभी भी नहीं हैं उसके लिए |
मनरेगा में फावड़े चलाओ कुछ दिन तो पेट भरेगा |
न हो ठीक से फसल सूखे में तो खा लेना जहर |
कौन बड़ा मंहगा मिलता है |
बिटिया को रौंद दे कोई दरिंदा तो दुआ करना कि वो मर ही जाए |
या तो शर्म से या फिर सरकारी अस्पतालों की मेहरबानी से |
कुछ नहीं बदला है अभी भी तुम्हारे लिए |
मेला लगा था चार दिन का |
परजा तंतर का रंगीन मेला |
सजी थीं बड़ी बड़ी दुकाने |
खड़े थे हरकारे जगह जगह |
हाथ जोड़े सजाये रहे दुकाने |
सब हो चुका व्यापार |
हो चुकी कमाई जो जो करने निकले थे |
ख़तम हो गया सब तमाशा अब लौट आओ |
रंग बिरंगे सपने देख लिए बहुत तुमने |
अब तो मर ही रहो जो स्बर्ग देखना हो तो |
और कोई चारा न है और न था कभी |
मन तो नहीं करता है इसके आगे सोचने का |
लेकिन दिल है कि मानता नहीं ये कहने से |
कि और न कभी होगा |
Tuesday, 8 April 2014
पिता जी को श्रद्धा सुमन
शुरू जहाँ से किया था |
काफी ऊपर आ गया उससे |
मेरी तो नहीं लेकिन |
औरों की अपेक्षा से बहुत ऊपर |
छोडो बस अब बैठ रहो |
अकसर आता है ये ख़याल |
फिर मुझे याद आ जाते हैं अपने पिता |
एक अजीब डर से फिर चलने लगता हूँ |
वे होते तो ज़रा भी संतुष्टि नहीं दिखाते |
वो जो आगे उस छोर पर एकदम आख़िरी मानव कदम है |
जिसके आगे कोई कभी नहीं गया |
वहां पहुँचने पर भी शायद नहीं |
मुझ जैसे निखट्टू को |
उनके जैसा ही धकियाने वाला चाहिए था |
बचपन के समय तो बुरा लगता था बहुत |
अब मैं लेकिन बहुत आभारी हूँ उनका |
अफ़सोस ये कि वे ठहरे नहीं |
मेरे आभार प्रकट करने तक |
Monday, 31 March 2014
चमगादड़ और दीये
सवेरों ने अब अंधेरों से सांठगाँठ कर ली है |
रात के बाद दिन नहीं अब केवल रात ही आती है फिर से |
दूसरी तरह की रात बदलकर नाम और पहनावा |
अंधेरों में चलते काम करते जीते हुए लोग |
बेबस लाचार टकराते रहतें हैं एक दूसरे से |
सर फोड़ते रहतें दीवारों से |
बहाते खून |
खीझते स्वयं और अन्यों से |
कोसते जीवन और देवों को |
रोते दुर्भाग्य पर मानकर नियति अपनी |
और हमारी दुर्दशा पर हंसते |
अट्टहास करते मजे से जीते |
सुख से रहते |
इन्हीं गहन अंधेरों में देख सकने में सक्षम |
उल्लू और उनके चेले चमगादड़ |
संसदों में विराजमान ये जीव तो दूर करने से रहे अन्धेरा |
ताकत हो तो हम ही उगायें कोई सूरज |
हिम्मत हो तो हम ही जलें दीयों में |
Wednesday, 26 March 2014
जननी
अब उसके अपने पंख नहीं रहे |
अब नींद भी उसकी अपनी कहाँ रही |
जागी आँख से स्वप्न देखने की सहूलियत नहीं है उसे |
भविष्य को सोचने के लिए समय चाहिए |
जो कभी रहा ही नहीं उसके पास |
जो बीत गया सो बीत गया |
और ऐसा भी कुछ नहीं उसमें |
जो सोचने योग्य हो |
अभी जो है वही है |
और कैसा है वह |
सोचने से भी डर लगता है उसे |
प्रकृति एवं नियति की उससे अपेक्षा है |
नई मनुष्यता के जन्म की |
जिसके पास हों |
स्वप्न जो वो देख नहीं पाती |
उड़ान जो वो भर नहीं पाती |
इतिहास जहां वो जाना नहीं चाहती |
भविष्य जिसकी वो योजना नहीं कर सकती |
Monday, 24 March 2014
डंडा झंडा बैनर बिल्ले; शोर मचावें खूब निठल्ले
आजकल हम फिर से |
खून जलाते हैं अपना |
रोज सुबह और शाम |
देर शाम टीवी पर नेतागण |
अपने मुखार विंदुओं से |
जो अनर्गल प्रलाप का प्रवाह करते हैं |
उसकी शोभा अनुपम है |
और फिर सुबह अखबारों में |
उसी सब का विस्तृत वमन |
अहा क्या छवि होती है |
कलेजे तक उतर जाती हैं |
कुर्सी पर विराजते ही राम राज्य के स्वप्नों से मंडित |
उनके लोक लुभावन वादे |
मैं और मेरा सब सही बाकी सब है खट्टा दही |
उनकी उठा पटक |
समाज कल्याण गरीबी उन्मूलन स्त्री सुरक्षा की भावनाओं से ओतप्रोत |
उनकी इधर से उधर छलांगे |
असल समस्या लेकिन कुछ और ही है मेरी |
वो ये कि इस नामुराद को न भूलने की बीमारी है |
तो फिर जब ये अलौकिक लोकतांत्रिक महोत्सव का समापन होगा अभी कुछ समय बाद |
तो मेरा दिमाग ले आया करेगा खोद खोद के गर्त में से यही सब |
और चिढ़ाया करेगा फिर रोज सुबह और शाम दिल को |
और जलाया करेगा खून |
मैं सोचता हूँ कि |
आदमी की अगर औकात न हो भगत सिंह बन पाने की |
तो कम से कम याददास्त जरूर खराब होनी चाहिए |
बेहतर हो कि दिमाग ही कमज़ोर हो अगर हो तो |
Saturday, 22 March 2014
परवश
डाल से टूटा हुआ |
एक सूखा पता |
हवाओं में लहराता हुआ |
इधर उधर डोलता रहा |
हमने देखा ! |
विवश असहाय |
नियति के पाश से बाध्य |
हमने सोचा ! |
वो पत्ता भी क्या |
ऐसा ही सोचता है |
स्वयं एवं अन्य के विषय के ? |
या अहम् केवल |
सनक हम मनुष्यों के मस्तिष्क की ही है! |
Friday, 14 March 2014
भीड़भाड़ और भेड़िये
लो फिर आ गया मौसम |
टोपियाँ पहनकर टोपियाँ पहनाने का |
टोपियाँ उछालने का मौसम |
उन्हें जिताने का मौसम |
जो सब जीते हुए हैं ही |
उनके द्वारा जो सब हारे हुए हैं |
बड़ी गंभीरता से मजाक करने का मौसम |
गंभीर मसलों को मजाक में उड़ा देने का मौसम |
खीसें निपोरने का मौसम |
रुपये बोने का मौसम |
पत्ते काटने का मौसम |
तलुवे चाटने का मौसम |
वादे बरसाने का |
बहलाने फुसलाने का |
हरे हरे नोटों का |
जनता के वोटों का |
फिर आ गया मौसम |
Wednesday, 8 January 2014
DIVA……आज की स्त्री
वादियों में बिखरी है सुकून की तरह |
मोहब्बतों में उतरी है जुनून की तरह |
पहली बारिश में सोंधी मिट्टी की महक |
चिडिया के घोसलें में बच्चों की चहक |
कफस के झरोखे से सुबह की आवाज़ |
सहमे से नन्हे परों की पहली परवाज़ |
आसमानों के हौसलों को चुनौती बनी |
एक छोटी बेनाम आवारा बदली |
कांपती शबनम की कोई बूँद सहमी |
खुशबू लुटाने को बेताब अधखिली कली |
बेआवाज़ खामोश कई कई रंगों में |
कभी जलती कभी बुझती पिघलती शमा है वो |
भादों की गीली रात बादलों के झुरमुट |
तारों से छुपता छुपाता पूनम का चन्दा है वो |
उलझी है रिश्तों में तिलिस्म की तरह |
शायर के खयालों के जिस्म की तरह |
पत्थरों पे खेलती पहाड़ी नदिया के जैसे |
हज़ार फितने जगाती मौजे दरिया के जैसे |
बीती सदियों के रंगीन किस्से |
आगे के वक्तों की रूमानी कहानी |
नींद है ख़्वाब है हौसला है वो |
वही है ज़िंदगी वही है दीवा...नी |
Tuesday, 7 January 2014
जाहे बिधि राखे राम
कुछ चुनी हुई आँधियाँ |
कुछ चुनी हुई रातों को |
कुछ रेगिस्तानो में |
कहर ढाती रहीं |
कुछ चालाक भँवरे |
कुछ खूबसूरत बागों की |
कुछ मीठी कलियों को |
जबरन चूसते रहे |
कुछ पेड़ों के नीचे |
कुछ ऊँचे महलों मे |
कुछ किये अनकिये |
वादे टूटते रहे |
कुछ बेजान झोपड़ों को |
कभी दिन का सूरज |
कभी रात का चाँद |
बेदर्दी से जलाते रहे |
चलती रही ज़िंदगी |
मौसम आते जाते रहे |
Tuesday, 22 October 2013
सपना सोना और सरकार
अब आयेगा राम राज्य |
"नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना॥ |
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा॥"
|
लोग भूखे रहने को मजबूर नहीं रहेंगे |
अब जल्द ही गरीबी दूर होगी |
दवा के अभाव में असमय मृत्यु नहीं होगी किसी की |
स्वस्थ और सुन्दर शरीर होंगे सबके |
पढ़ लिख कर बनेंगे गुणवान |
सब होंगे खुशहाल और मालामाल |
देश शक्तिशाली और समृद्ध |
अब देखना रुपया कैसे चढ़ता है डालर के मुकाबले |
जब इतना अपार सोना अभी निकलेगा खुदाई में |
लोग भी न जाने क्यों यूँही दोष देते रहते हैं सरकार पर |
कि सरकार कुछ कर नहीं रही |
अरे मूर्खों |
देश की सारी समस्यायों का गद्दा बना के |
घोटालों और बेईमानियों की चादर तान के |
सो न रही होती सरकार अगर |
तो कैसे देखती सपना |
और सपने में सोना ? |
Monday, 14 October 2013
एक टुकड़ा सूरज और पूड़ी हलवा
त्योहारों के इन दिनों |
हलवा पूड़ी खाते गरीब बच्चे |
कितने खुश दिखाई देते हैं |
और खुश दिखाई देते हैं वे भी |
जिनके लिए इन बच्चों का अस्तित्त्व बेहद जरूरी है |
पुण्य कमा कर सीधे स्वर्ग जाने के लिए |
गरीबी और दीनता के ये जलसे |
शायद किसी के अपराध बोध का इलाज भी हों |
लेकिन एक हवा भी है |
हर चीज की तरह ये जलसे |
ये तो सब खैर ठीक है लेकिन |
आश्चर्य ये कि झोपड़ियों का नरक |
कभी ऊंची इमारतों के स्वर्ग से ये नहीं कहता |
थोड़ा हटो और हवा आने दो ! |
और ये ऐलान कि |
सारा पानी तुम्हारा ही नहीं है !! |
और ये सवाल कि |
कहाँ है हमारे हिस्से का सूरज !!! |
Monday, 1 July 2013
खंड खंड उत्तर
उन्होंने कहा |
यह दैवीय आपदा है |
और अपने पाप धो लिए |
इन्होने कहा |
यह विधि का विधान है |
और अपने दुर्भाग्य पर रो लिए |
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