Thursday, 2 December 2010

कंगूरे

ऊपर शिखर पर चमकते कंगूरे
जो दिखाई देते हैं भवन की शोभा
बुनियाद के जिन पत्थरों पर खड़े हैं
न उन पर बोझ हैं
पर अब तो उनको कुचलने में ही लग गये हैं
जी मे आता है कि चढ़कर ऊपर
ध्वस्त कर दिये जायें वे कंगूरे
लेकिन सोचता हूँ क्यों नाहक
किया जाये इतना भी श्रम
वे इतने तो नासमझ हैं
नहीं जानते कि जब
कुचल कर भरभरा जायेगी बुनियाद
तो वे भी नहीं बचेंगे

Saturday, 28 August 2010

सॉरी न्यूटन

अपनी पूर्णता मे खिला हुआ एक बड़ा सा फ़ूल
खड़ा है मुँह उठाये
आकाश की ओर
अभी जब मुर्झायेगा ये हल्का होगा
और झुक रहेगा धरती की ओर
चेतनाओं पर नहीं लागू होता
गुरुत्वाकर्षण का नियम

Thursday, 26 August 2010

माया

सामने वाली को देखती है सर उठाये दम्भ से
ऊँची उठी एक लहर
सागर तल पर
विरोध और वैमनस्य का संसार है यह
अभी जल्दी ही नीचे गिर
दोनो को होगा आभास
कि दो नहीं हैं वे
और ये भी कि वे हैं ही नहीं
सागर है
तब भी जब अलग दिखती थीं वे
वे थी नहीं दरअसल
और दो तो कतई नहीं
होता यदि आभास उस वक्त ये उन्हे
तो होता संसार यह
समता और प्रेम का

Tuesday, 24 August 2010

गीता सार: सच्चिदानन्द

वाद के बिना
नहीं देखा हमने विवाद कभी
रात के बिना
नहीं देखा हमने प्रभात कभी
ये तो संगी साथी हैं वस्तुत:
विरोधी हम समझते हैं
सब भ्रम है दृष्टि का हमारी
साथ चलते हैं राग और द्वेष
साथ रहते हैं घृणा और प्रेम
अलग है नहीं प्रकाश से अंधेरा
भूख से तृप्ति
एक हैं स्वर्ग नर्क
सुख दुख एक हैं
संयुक्त है मृत्यु जीवन से
मन करता है चुनाव
और होने नहीं देता प्रतिष्ठित
सत् चित् आनन्द में

Monday, 16 August 2010

१५ अगस्त २०१०

हो चुके बरसों आज़ादी मिले हुये
और अब तक आज़ाद हैं हम
आज़ाद हैं हम
भूखे रहने को
बाढ़ मे तबाह होने को
बीमारियों मे तड़पने को
अनाज सड़ता देखने को
सूखे की बरबादी झेलने को
मार डालने को खुद को आज़ाद हैं हम
आज़ाद हैं हम
चोरी करने को
लूटने खसोटने को
बलात्कार करने को
मार डालने को निरीहों को
दंगे फ़साद करने करवाने को
सरेआम अपराध करने को आज़ाद हैं हम
हवाओं मे घोलने को जहर आज़ाद हैं हम
सांस लेने को उसी हवा मे आज़ाद हैं हम
नाज़ायज शराब बेचने को आज़ाद हैं हम
उसको पी के मर जाने को आज़ाद हैं हम
वोट देके अपना नेता बनाने को आज़ाद हैं हम
नोट देके उनसे सब करवाने को आज़ाद हैं हम
अमीरों के गुलाम बने रहने को आज़ाद हैं हम
उन्ही के रहमो करम पे जीने को आज़ाद हैं हम
घुट घुट के जीने को
रोज़ रोज़ मरने को
खून के आंसू पीने को
जंजीर मे जकड़े रहने को
नालियों मे सड़ते रहने को
हर जोर ज़ुल्म को सहने को
थे आज़ाद पहले भी
और अब तक आज़ाद हैं हम
हो चुके बरसों आज़ादी मिले हुये

Tuesday, 3 August 2010

सूचना का अधिकार

खतरनाक रहा हमेशा
सच का धन्धा
जीसस को सूली
सुकरात को जहर
मंसूर को फ़ाँसी
गैलीलियो को नज़र कैद
ये सब
ईनाम ठहरे सच बोलने के
न जाने क्या क्या दिखाया सच ने और भी
जैसे
बुद्ध को पत्थर और गालियाँ
महावीर के कानों में कीलें
ये तो पुरानी बातें ठहरीं
अभी हाल ही में भी
मार दिये गये इसी चक्कर में
दुबे सरीखे भाई लोग
और अब आजकल तो
उतार दिये जाते हैं मौत के घाट
सच सुनने वाले भी
सूचना का अधिकार तो है आपको
मगर कीमत उसकी लीजिये जान

Monday, 2 August 2010

कॉमनवेल्थ गेम्स २०१०

खेल होने को हैं
खेल हो रहा है तैयारियों के नाम पर
खेल बन गई है निरीह जनता
खेल हो रहा है हमारी
खून पसीने की कमाई पर
खेल ही खेल मे और भर लेंगे कुछ लोग
पहले से ही भरी तिजोरियाँ
मीडिया ने भी खूब मचा रखा है खेल
बारिश तुली हुई है
खेल खराब करने को
और कुछ गाँधीवादियों की प्रार्थनायें भी
क्या गजब का चल रहा है खेल
एक भी टीम में दिखता नहीं मेल
कुछ हैं जो बिना खेले
और पहले से ही लगें हैं बटोरने में ईनाम
जो नहीं पा रहें हैं कुछ
लगें हैं बिगाड़ने में खेल
इतनी भी क्या आफ़त है भाई
खेल ही तो हैं आखिर

Wednesday, 28 July 2010

त्रिमूर्ति

तीन मैं हैं
एक तुम्हारे पास
एक मेरे पास
तीसरा अब है नहीं

Tuesday, 27 July 2010

मकान

ईंटे जोड़ता था जब मैने पूछा क्या कर रहे हो
मकान बना रहा हूँ उसने कहा था
क्या करोगे इसका फ़िर मेरा सवाल
रहूँगा इसमे वो बोला
दरवाजे लगाता था कभी
कभी झरोखे बिठाता था
और हर बार जवाब उसका वही
मकान बना रहा हूँ
जब बन गया मकान तो देखा मैने
न तो वो दीवालों मे रह रहा था
न दरवाजो या खिड़कियों मे ही
रहता था वो आकाश मे ही
हमेशा की तरह
हरेक की तरह

Monday, 26 July 2010

मेरी तलाश

मूर्तिकार
शिला खण्ड को
काटता छाँटता तराशता
सावधानी और कुशलता से
प्रकट करता एक सुन्दर मूर्ति
जो छिपी ही हुई थी अब तक पत्थर मे
वो तो सिर्फ़ उघाड़ भर देता है बस
निकाल अलग कर देता है कुछ
अतिरिक्त अनावश्यक
जानता है वो
निकाल फ़ेंक देना
कहाँ से और कितना
तलाश है
मुझ पाषाण को भी
एक दक्ष शिल्पी की

Friday, 23 July 2010

पोथियाँ

पुनर्जन्म मे था विश्वास
एकैत्मवाद पर करथे थे चर्चा
कर्म सन्यास या निष्काम कर्म
जीवात्मा की गति का प्रकरण
परमेश्वर की सर्वरूपता और निर्लेपता का दृष्टान्त
भारी भरकम विषय
जर्जर होती देह
निस्सन्देह वे बूढ़े थे
या हो रहे थे तेजी से
जानते बहुत थे वे
फ़िर भी जीते थे भय मे
कुछ लोग और भी थे
जो प्रेम मे थे
उन्हे कुछ पता नहीं था

Tuesday, 20 July 2010

क्षितिज

देखो दूर वहाँ
जहाँ मिल जाते हैं धरती आकाश
मन करता रहा पहुँच जाऊँ वहाँ
पाँव धरती पर
और सर को छूता आसमान
बहुत कोशिशें की
सब नाकाम
हम इन्सानो के बस का नहीं है ये
पाँव धरती पर रहें
तो दूर ही रहेगा आसमान
या फ़िर सर होगा जब आसमान पर
नहीं होंगे धरती पर पाँव

Monday, 19 July 2010

पिघलती आइसक्रीम

कोन मे आइसक्रीम ले
उसने जल्दी जल्दी खाना चाहा
पर वह थी ज्यादा जमी ठण्डी और सख्त
बाद मे जब पिघल के गिरने लगी
जल्दी जल्दी खाना पड़ा उसे
हालांकि अब वो चाहता था धीरे धीरे खाना
दांत और मुँह ठण्डे हो गये थे ज्यादा अब तक
ज़िन्दगी की कहानी ऐसी सी ही लगी मुझे
जल्दी जल्दी गुजारना चाहता था बचपन में
और उम्र थी कि सरकती मालूम होती थी
अब जीवन के उत्तरार्ध में
ढलान पर दौड़ती सी मालूम होती है उम्र
और दिल है कि चाहता है
ठहर जाये

Friday, 16 July 2010

चिराग

चाक पर व्यस्त रहे
दिये बनाने मे
कभी कोल्हू मे
पेरने को तेल
और कभी लगे रहे
बाती बनाने में
हाथ मेरे
अच्छा किया जो चिरागों ने हवाओं से दोस्ती कर ली
उन्हे बचाने को
हम कहाँ से लाते खाली हाथ

Thursday, 15 July 2010

ये शहर

गर्मी मे पानी की किल्लत
बिजली की लगातार कटौती
बहुत ज्यादा परेशान कर चुकी होगी
ऊपर से जरूरी चीजों के आसमान छूते दाम
सड़कों पर रोज बढ़ती छीना झपटी और मार पीट
भयानक जुर्म और फ़साद
इन सब से बहुत बुरा हाल हो जायेगा
फ़िर जब बारिश होगी
तो और भी बुरा
खस्ताहाल टूटी सड़कें
बजबजाती नालियां और सीवर
सड़ते कूड़े के ढेर
ट्रैफ़िक जाम दुर्घटनायें
मच्छर कीड़े और बीमारियां
नरक हो गया होगा जीना लोगों का
मजबूरन उठेगा एक दिन
ये शहर
गुहार लगायेगा नगर पालकों के दरवाजों पर
ऊँची बाड़ों के पीछे बन्द आरामदायक कमरों मे
उन लोगों के जूँ तक नहीं रेंगेगी कानो पर
निराश हारा थका मजबूर निरीह कुंठित
चुपचाप चल देगा वहाँ से दूर बाहर की ओर
और एक ऊँची पहाड़ी पर से कूद
आत्महत्या कर लेगा
ये शहर
चैन से राज करना तुम लोग
फ़िर इस खाली सुनसान बियाबान भयावह
शहर पर

Wednesday, 14 July 2010

बूँदें

तुम्हारी देह जैसी संदल स्निग्ध
वर्षा दिवस की गोधूलि वेला
ठिठकी फ़िर
तमस मे उतर गई
निस्पन्द

Tuesday, 13 July 2010

संस्कार

लोग नहीं बदलते
बदल जाती हैं इच्छायें
हाथ से खींचकर चलाई जाने वाली
एक छोटी गाड़ी
बदल जाती है
एक बड़ी गाड़ी मे
परिमाणात्मक परिवर्तन भले हो
गुणधर्म नहीं बदलते
कागज की चिन्दियों पर
लड़ते लड़ते
नाखूनो से नोचते
छुरे और तलवार जैसे विस्तारों मे
कब बदल जाते हैं
पता नहीं चलता
और अब विषय होती हैं
दूसरी तरह की कागज की चिन्दियां
कपड़े के गुड्डे
या चमड़े के
बहरहाल मुद्दा वही
माटी के पुतले
कुल मिलाकर महज़ मात्राओं का फ़र्क ही नहीं हैं क्या
हमारा परिपक्व होना
बहुत अलग बात है शायद
मनुष्य का संस्कारित होना

Monday, 12 July 2010

चदरिया

ज्यों की त्यों धर दी थी कबीर ने
और भी होते हैं कई
जो धर देते हैं ज्यों की त्यों
फ़र्क सिर्फ़ इतना है
कि वे ओढ़ते ही नहीं
बहुतों ने ओढ़ी भी
जाहिर था कि बहुत मैली थी उनकी
पाँव फ़ैलाने होते हैं कभी ज्यादा
तो चीथड़े हो जाती है कइयों की
खींचतान मे अक्सर
बड़े जतन की बात है
कबीर का जतन

Saturday, 10 July 2010

स्कूल असेम्बली

रोज शाम सूरज
पहाड़ी के पीछे
जिस जगह छुप जाता है
कौन सा रास्ता है
वहाँ पहुंचने का
क्या होता है उन सपनो का
जो पूरे नहीं होते
हरे रंग मे जो भी हरा है
वो हरा क्यों है
दो देशों के बीच की दूरी
बढ़ती क्यों चली जाती है
चलो माना कि जटिल हैं ये सवाल
लेकिन कोई ये तो बताये कि
छोटे बच्चों को रोज सवेरे
स्कूल की असेम्बली मे
खड़ा करके
घण्टो लेक्चर क्यों पिलाते हैं प्रधानाचार्य

Wednesday, 7 July 2010

भविष्य का गणित

इतिहास में
दो और दो चार
नहीं भी होते थे कभी
आज भी नहीं होते हैं कभी
न चाहें वे अगर जिन्हे आती है गिनती
जिन्हे नहीं आती है गिनती
आगे भी नहीं होंगे उन्हे
दो और दो चार
भविष्य में

Monday, 5 July 2010

अद्वैत

आइने के इस तरफ़ का शख्स
आइने के उस तरफ़ के शख्स से
पूछता है हैरान होकर
तुम बदल जाते हो रोज़
तुम कभी एक से नहीं दिखते मुझे
और एक मै हूँ कि वही का वही
आखिर ये माजरा क्या है
अगर वो बोल सकता तो कहता
मै नहीं हूँ
जो बोल सकता है
वो कहता है कि
मैं ही हूँ
जो मौन हो गया
वो जानता है कि
तू ही है

Saturday, 3 July 2010

सहचर

पहचान मांगी नहीं जा सकती
उसकी याचना नहीं
निर्माण होता है मेरी सखी
छलावा जानना अगर तुम्हे
ये समझाया गया कि असमर्थ हो तुम
कोमलता कमजोरी नहीं होती
करुणा का कतई ये मतलब नहीं
कि संकल्प दृढ़ नहीं तुम्हारा
जगह जगह समय समय पर
अपनी योग्यता का प्रमाण
मत मांगो औरों से
तुम्हारी अपनी जगह है समाज में
ये सब कुछ तुम्हारा भी है
बराबर से
और कुछ करना नहीं है विशेष
तुम्हे इसके लिये
सिर्फ़ जानना भर है
ठीक से देख लेना भर है खुद को
और निश्चित ही पाओगी तुम कि
अपनी महानता का दम्भ भरते हैं वे जो
भिन्न जरूर हो उनसे तुम
कम ज़रा भी नहीं

Thursday, 1 July 2010

मर्द बच्चे

आदमी हैं आखिर
हम नहीं करेंगे बलात्कार
तो कौन करेगा भला
न हो अगर
भीड़ भाड़ मे लड़कियों से छेड़ छाड़
तो हम पुरुषों को शोभा देगा क्या
पीट सकते हैं हम
तो पीटेंगे ही अपनी स्त्रियों को
मर्द बच्चे जो ठहरे
और फ़िर मर्यादा भी तो सिखानी है
उल्टे सीधे कपड़े पहने
देर रात यहाँ वहाँ घूमना
कोई ऊँच नीच हो जाये भला तो
बदनामी तो आखिर हमारी होगी ना
समाज के ठेकेदार जो ठहरे
मर्दों से ताल मे ताल मिलाकर
हंसी ठट्ठा करते शरम भी नहीं आती इनको
तो भला सख्ती तो करनी ही पड़ेगी
अब ये समझ लो भइया
हम आदमियों के इन्ही प्रयासों से
और इतनी मेहनत मशक्कत करने पर ही
बची है नाक समाज की वरना
बेड़ा गर्क ही कर दिया होता
इन जाहिल बेशरम कुलटाओं ने

Wednesday, 30 June 2010

सरल उपाय आरोग्य प्राप्ति के

सख्त हिदायत देते हुये बोले डाक्टर साहब
दाल चावल अब कम खाया करो
लौकी तरोई तो बिल्कुल बन्द
दलिया वगैरा का बहुत मन करे
तो कभी महीने में एक आध बार बस
मूँग की खिचड़ी तो छूना भी मत
और हाँ ये सुबह उठकर मुँह अंधेरे
क्यों जाते हो घूमने भला
बिस्तर पे ही रहा करो जादा
या फ़िर टीवी देखा करो
जिम की तरफ़ तो झाँकना भी मत
सेहत आपकी ठीक नहीं है
बहुत ध्यान रखना होगा
एक तो रोज सवेरे आलू भरे परांठे खाईये
पाव भर मक्खन लगा के
दो चार बार हफ़्ते मे सुबह सुबह
गरमा गरम पकौड़े
दिन मे छह सात बार कुछ न कुछ
सेहतमन्द लिया कीजिये जैसे कि
समोसा छोले भठूरे कचौड़ी
और आजकल तो विदेशी आईटम भी
बड़ा अच्छा उपलब्ध है जैसे कि
बर्गर पीज़ा चाकलेट
और हाँ कोक के बिना नहीं
और जो लोग धार्मिक हैं कट्टर
गोश्त खायें देशी घी मे पका के
कम से कम एक बार रोज़
साथ मे चार पांच पैग लें
तो और भी अच्छा
सोने पे सुहागा समझिये
दारू गोश्त और घी
रामबाण है जैसे सेहत के लिये
सिगरेट बीड़ी इत्यादि पीते हों तो क्या बात है
सेवन कीजिये जी भर के
मेहनत कतई बन्द कर दीजिये
भगवान भली करेंगे

Monday, 28 June 2010

कहा तो ऐसा ही गया

टिप टिप होती रही रात भर बारिश
भीगते रहे विश्वास सलीबों पर टंगे
सूख जायें तो बनाई जाये नाव
निकलेंगे दिया लेकर
अंधेरा ढूँढने
दोनो हाथ फ़ैलाये लकड़ी के बुत
ठिठुरती ठंड में जीने की दुआ माँगते रहेंगे
आशायें हारा नहीं करेंगी
प्यास और आग का एक सा हश्र
नियति के हाथों का खिलौना ही रहेगा
झुन्झुने बच्चों से बढ़के
आगे भी बना चुकेंगे अपनी पैठ
पत्थरों के कैन्वस पर आगे भी
उकेरे जायेंगे प्रेम के चित्र
द्रवित हुये इन्सान
जीवन की भाग दौड़ में
हाथों मे लिये रहेंगे पत्थर
सर पर उठाये रहेंगे पत्थर
पाँव मे बांधे रहेंगे पत्थर
सीने में दबाये रहेंगे पत्थर
आँखों को बनाये रहेंगे पत्थर
और समझा करेंगें कि
पत्थर नहीं हैं वे
पाषाण युग अब इतिहास है
कहा तो ऐसा ही गया

Monday, 14 June 2010

गुबार

चलो माना कि धुंआ छटेगा
सूरज फ़िर से निकलेगा
फ़िर दिखने लगेगा साफ़ साफ़
लेकिन ये बात तो तुम
आँखवालों से ही कहोगे न !

Friday, 11 June 2010

बेहतर

जंग लगी पुरानी घिसी हुई
लोहे की जंजीरों मे जकड़े हुये
सड़ते गलीज इन्सानों
इधर देखो
ये नई चमकदार
सोने की हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ

Saturday, 5 June 2010

गीता सार

यहीं था यहीं हूँ अब यहाँ से किधर जाऊँगा

घुल जायेगा मचलती हवाओं मे कुछ मेरा
थोड़ा माटी मे मिलेगा अन्न उपजाने को
हो रहूँगा सुर्ख लाल रंग किसी ओढ़नी मे
बेला की मदमस्त खुशबू मे बिखर जाऊँगा

रसीले आम में मीठा एक हिस्सा मेरा बनेगा
कुछ लहरायेगा गेंहू की सुनहरी बालियों मे
सूर्य की पहली किरन बन इठलाऊँगा लहरों पर
पूस मे दोपहर की धूप बन पसर जाऊँगा

किन्ही मासूम आँखों से झाँकेगा हिस्सा मेरा
एक दिये की झिलमिलाती लौ में काँपा करूँगा
उस बंजर पहाड़ी के नुकीले पत्थर में छूना मुझे
किसी होठ पर ढलकती बूँद बन सिहर जाऊँगा

किसी मन्दिर की आरती हो गूँजा करूँगा
नन्हे बच्चे की करधनी का एक धागा बनूँगा
राग होकर गले से किसी के करूँगा मुग्ध
गहरी उदासी बन कभी आँसू मे उतर जाऊँगा

यहीं था यहीं हूँ अब यहाँ से किधर जाऊँगा

Wednesday, 12 May 2010

आत्म कथा

कोई गुजरना भी नहीं चाहता
कचरा पेटी के पास से
गुजारा भी नहीं किसी का
उसके बगैर
मजबूरी है
पसन्द किसको है
न रखा जा सकता है
बहुत दूर
और न ही पास
काश चल सकता होता
इसके बिना
तो ज्यादा अच्छा होता
एक इन्सानी ज़िन्दगी
का भी हो सकता है
यही हाल
किन्ही उदास क्षणो मे
खुद को पाता हूँ
एक कचरा पेटी
जरूरत सबकी
चाहत किसी की नहीं

Saturday, 8 May 2010

महानता

जैविक क्रम मे उच्चतम
होने से हम महान हैं
ये और बात है कि
हम मार डालते हैं
एक दूसरे को ही
अक्सर भरे पेट भी
हम महान हैं क्योंकि
विस्तारित कर लिये हैं हमने
अपने अंग
नाखूनो को छुरों तलवारों मे बदल कर
पैरों को गाड़ियों जहाजों मे बदल कर
आँखों को खुर्दबीनो दूरबीनो मे बदल कर
दूर तक है अब हमारी पहुँच
ये और बात है कि
इनका इस्तेमाल हम
प्रकृति के विरुद्ध संघर्ष कर
लगे हुये हैं आत्मघात मे ही
हम महान हैं क्योंकि
हम कहते हैं ऐसा
ये और बात है कि
दिखाई नहीं देता
कुछ भी हमारे कृत्य में ऐसा

Wednesday, 5 May 2010

नाम

पहले पूछता था कोई
कि कौन हो तुम
झट से बता दिया करता था नाम
समय के चलते
जुड़ता गया बहुत कुछ
नाम के साथ
कभी तमगे
कभी कालिख
बोझ बढ़ता गया
खो गया नाम कहीं भीड़ मे
फ़िर कौन के जवाब मे
देने लगा मै
जमा किये गये
कभी तमगे
कभी कालिख
एक एक करके
और फ़िर जब चुक गया सब कुछ जमा
तो पाया कि मेरा नाम
कहीं गुम है

Tuesday, 4 May 2010

हमारे बीच

कितना कुछ रहा हमारे बीच
कभी अपने
कभी अपनो की सलाहें
और फ़िर पराये
सुझाव जो मांगे नहीं हमने
वो किस्से वो चर्चे
हँस हँस के सुनाये गये जो
वहाँ भी जहाँ
कोई लेना देना नहीं रहा हमारा
उलझने जो पैदा हुईं अपनी
कभी खुद से तो कभी औरों से
मौसमो की बेमानियाँ
रोज़ की परेशानियाँ
छोटे बड़े गम
खामोश मनमुटाव
लाग लगाव बेमतलब के
आंसू और अफ़सोस
इतना कुछ रहा हमारे बीच
बहुत कुछ रहा हमारे बीच
क्यों थी हमारे बीच
इतनी जगह !

Monday, 3 May 2010

तुम्हारा दखल

जब तुम चलती हो
तो कतई नहीं लगता
फ़ूलों की कोई डाली लचकी हो
न तुम्हारी आँखें हिरनी सी लगीं मुझे
और मैने फ़ूल भी झरते नहीं देखे
जब तुम हँसती हो
सुना नहीं मैने
कि अच्छा गाया ही हो तुमने कभी
या लिखा हो कोई गीत
तुम्हारी अदायें भी ऐसी कोई शोख नहीं
और तुम कुछ इस तरह दाखिल हो मेरी ज़िन्दगी में
कि कुछ अच्छा नहीं लगता तुम्हारे बिना
न फ़ूलों की डाल के लचकने सी किसी की चाल
न कोई हिरनी सी आँखें
न किसी की हँसी से झरते फ़ूल
न किसी का गाना
न कवितायें
और न ही किसी की शोख अदायें


(२ मई; हमारी वैवाहिक वर्षगाँठ और उसके जन्म दिन पर)

Wednesday, 28 April 2010

बदलता नहीं कुछ

उत्कंठाओं से पैदा हुई खीझ
बदलती जाती है ऊब में
धीरे धीरे
और फ़िर न जाने कब
जन्मती है एक गहरी उदासी
सरोकार घर से निकलकर
फ़ैलने लगते हैं दूर तलक
और हो जाते हैं गुम
तृष्णाओं की अन्धी गलियों में
कुछ फ़ीके फ़ीके से उजाले
समझौतों की देहरी पर
सर पटक पटक कर
दम तोड़ देते हैं बेआवाज़
जीवन के सच की
छोटी सी एक कंकड़ी
जगा देती है
समय के महासागर में
एक सैद्धान्तिक लहर का वर्तुल
बढ़ते भागते हुये
अनन्त की ओर
खोती जाती है अपनी धार
छू भर भी नहीं पाती
अगली पीढ़ी के मनुष्य को
बीत जाता है एक दिवस
एक शताब्दी
एक युग
एक कल्प
एक ही साथ
हर समय
समय के बीतते जाने की
यही नियति है
या कि ठहरा हुआ है समय

Tuesday, 27 April 2010

पदोन्नति

योग्यता और निष्ठा के आधार पर
वे पा गये पदोन्नति
मगर सवाल ये कि
कौन सी योग्यता
किसके प्रति निष्ठा

Monday, 19 April 2010

आइसलैंड ज्वालामुखी

अपनी छुद्र जानकारियों
और अत्यल्प ताकत के मद मे चूर
हवा में उड़ते हम मानव
काटते रहते हैं पेड़ उसके
कुतरते रहते हैं पहाड़
दोहन करते हैं उसके खजानो का
दूषित करते हैं उसके जल संसाधन
रौंदते हैं बुरी तरह
सहती रहती है चुपचाप अक्सर
वसुन्धरा जो आखिर ठहरी
और फ़िर कभी कभी
एक ज़रा सी झिड़की जैसे
फ़ुफ़कार उठती है वो
आसमान में उड़ने वालों के
कतर डालती हैं पंख
उसकी ज्वालायें
हम फ़िर उड़ेंगे कल
हमारी जिद ठहरी

Thursday, 15 April 2010

कंचन

वो भागता था मुँह करके
धन की ओर
चीखता हुआ कि
स्वर्ग है धन
दूसरा भागता था पीठ करके
धन की ओर
चीखता हुआ कि
नर्क है धन
धन था कि चीखता था वहीं पड़ा हुआ
अरे भाई
महज़ धन हूँ मैं
सुनता कौन था लेकिन

Wednesday, 14 April 2010

सभ्यता का लेखा जोखा; सन २०१०

आधुनिकता के खंडहरों मे
बदहवास फ़िरते इतिहास की
मर्मान्तक चीखें
आंकड़ों के कूड़ेदान मे
सड़ते सत्यों के ढेर से
तथ्यों की चिन्दियां बीनते समूह
ज़िन्दगी के कब्रिस्तान मे
नाचते सरोकारों के प्रेत
हवस की तपती रेत पर
प्रसव को मजबूर योग्यतायें
प्रेरणाओं को निगलती
मुँह बाये
महत्वाकांक्षाओं की सुरसा
शिष्टता की ओढ़नियों मे छुपी
बजबजाती पाशविकता
दिशाहीन राहों पर
लंगड़ाता भ्रमित कुंठित वर्तमान
रिश्तों के सच का कुल जमा मापदण्ड
नून तेल लकड़ी के ठीकरे
मर्यादाओं के पाखण्ड तले
नंगो की छातियों पर सवार
अट्टहास करते बौने न्याय तंत्र
शासन प्रणाली की ओट मे
भूखी मासूमियत के कंधों पर खड़े
अपनी उँचाइयों का दम्भ भरते
मनुष्यता की लाशें नोचते जनतान्त्रिक गिद्ध
क्षण भर में सहस्त्र बार
धरणी का विनाश करने को व्यग्र
वसुधा की कुटुंब थैली मे फ़लते फ़ूलते
प्रजातन्त्र और साम्यवाद के चट्टे बट्टे
हवस अनाचार मूर्खता और दर्प
की बीनो पर डोलते
अनैतिक तन्त्र का अलौकिक लोक
यह सब है कुल जमा परिणाम
सामाजिक मनुष्यता के विकास क्रम मे
हुई प्रगति का
या कहें दुर्गति का
यह हमारी सभ्यता है
आश्चर्य
फ़िर क्या है असभ्यता

Tuesday, 13 April 2010

पी एच डी

छान मारे पुस्तकालय
पढ़ डालीं किताबें
निबटा डालीं
विद्यालयों और विश्व विद्यालयों की कक्षायें
उत्तीर्ण कर लीं परीक्षायें
अत्याधुनिक शोध पत्र
विद्बानो के व्याख्यान
छूटे नहीं एक भी
हो गई आखिर
तैरने मे पी एच डी
और फ़िर
पार करने को
जैसे ही लगाई भव सागर मे छलांग
कि डूब गये

Monday, 12 April 2010

दोष

अभी पैदा हुये बच्चे हिन्दू नहीं होते
और न ही मुसलमान
अभी पैदा हुये बच्चे आस्तिक नहीं होते
और न ही नास्तिक
अभी पैदा हुये बच्चे होते हैं निर्दोष
जरा देर मे ही ये नहीं रह जायेंगे निर्दोष
जरा देर मे ही आ जायेंगे इनमे दोष
अभी हो जायेंगे ये हिन्दू
या मुसलमान
अभी हो जायेंगे ये आस्तिक
या नास्तिक

Friday, 9 April 2010

गुजरती का नाम ज़िन्दगी

ज़िन्दगी की तलाश में
गुजर गई एक ज़िन्दगी
एक ज़िन्दगी गुजर गई ख्वाब मे
सुबह और शाम के भागदौड़ मे
गुजर रही है एक और ज़िन्दगी
कल कुछ हो जाये शायद
इस इन्तजार में हर रोज़
गुजर जाती है एक ज़िन्दगी
एक ज़िन्दगी गुजर रही है
अपनो की ज़िन्दगी की सोच मे
जाने कैसी होगी वह ज़िन्दगी
जो मै जीना चाहता हूँ
गुजारना नहीं
सोचता हूँ कि
वह ज़िन्दगी अब अगर
अकस्मात मिल भी जाये
तो उसे जीने के लिये
कहाँ से लाउँगा
एक और ज़िन्दगी !


(१ जून २००४)

Tuesday, 6 April 2010

अतिप्रश्न

प्रेम तपस्या है
प्रेम जीवन है
प्रेम ईश्वर है
तमाम लोग तमाम बातें
पूछो प्रेम क्या है
हर कोई तैयार बताने को
कवि गण सबसे आगे
इस सवाल का जवाब
चाहे कुछ भी हो
जक तक जवाब है
जाना नहीं समझो
हमसे पूछे कोई
हम तो न बता पायेंगे

Monday, 5 April 2010

धारणायें

रंगीन चश्मे से देख कर
वो बनाता रहा
एक खूबसूरत तैल चित्र
एक शान्त सुन्दर बड़ी गहरी नीली झील
पीछे थोड़ी दूर तक फ़ैले
हरे मैदान
और फ़िर उसके पीछे
ऊँचे खड़े सलेटी भूरे और हरे रंगो वाले पहाड़
सामने इस तरफ़ पास
एक छोटा सा घर
और इसके दालान में
दो बिल्लियों के साथ खेलते
छोटे बच्चे
जो बन पड़ा
वो यकीनन अपने रंग मे न था
और फ़िर देखा गया उसे
और और रंगीन चश्मो से
ये झील
पीछे के मैदान और पहाड़
सामने खेलते बच्चे और बिल्लियाँ
कालांतर मे
रूप लेती है एक कविता का
एक कवि के शब्द जाल में कैद होकर
यकीनन ये अब एक मिथक भर था

Friday, 2 April 2010

रेत के महल

सागर तट पर तन्मयता से
रेत के महल बनाते बच्चे
बस यूँही खेल है उनको
साँझ होते होते
घर लौटने का समय
खूब मस्ती में
रौंदते मिटाते
वही रेत के महल
बस यूँही खेल है उनको
प्रयोजन रहित
निष्पत्ति विहीन
बस यूँही है
फ़ूलों का खिलना
झरनो का गिरना
नदियों का बहना
हवाओं का चलना
पशुओं की भाग दौड़
सूरज चाँद सितारे
जीवन है निष्प्रयोजन
प्रफ़ुल्लता है हर ओर
दुखी है
सिर्फ़ और सिर्फ़ मानव
जाने क्यों

Thursday, 1 April 2010

काँटे

तुम जब कहते हो मुझे
कुरूप और कठोर
काँटे सा
चुभता है
और झरती जाती हैं
मेरी पँखुडियाँ.

Wednesday, 31 March 2010

रस्सी

खूँटे से बंधी भैंस
घूम फ़िर तो लेती है
हमारी तरह ही
लेकिन ज़रा कम
उसकी रस्सी जो छोटी है
हमारी रस्सी से

Tuesday, 30 March 2010

इतिहास

प्रारम्भिक राजवंशीय काल के
मेसोपोटैमिया के युद्धों से लेकर
अत्याधुनिक आतंकवाद के विरुद्ध
चल रहे युद्धों तक
मानव इतिहास पटा पड़ा है लड़ाइयों से
इतिहास का मतलब ही है शायद
युद्धों का इतिहास
केवल संघर्षों की कहानियाँ भर हैं
पुस्तकों में वर्णित हमारी गाथायें
हर वक्त होता ही रहा है धरती पर
कहीं न कहीं युद्ध
और कुछ नहीं
तो शान्ति के लिये युद्ध
जीना आता ही नहीं हमें
जैसे शान्ति से
बुनियादी रूप से ही गलत है शायद
हमारे जीने का ढंग
सेना राजा राज्य आक्रमण
ध्वस्त धराशाई परास्त विजयी
सन्धि समर्पण इत्यादि मात्र दर्जन भर शब्दों मे
सिमटकर रह गया है इतिहास
हमारी इतनी लम्बी मानव सभ्यता का
या असभ्यता का

Monday, 29 March 2010

दोनो हाथ उलीचिये

जब कोई चला जाता है
तो छोड़ क्या जाता है
किसी को दे जाता है दौलत
किसी को प्रेमपूर्ण यादें
किसी को गालियाँ
किसी को नाम
किसी को आंसू
और ले क्या जाता है भला
कुछ नहीं
तो सारा मामला आखिर
दे जाने भर का ही है
ले जाने का तो कोई जुगाड़ ही नहीं

Sunday, 28 March 2010

राख का ढेर

समस्यायें अब ज्वलंत नहीं रहीं
सदियों जलने के बाद
अब सिर्फ़ राख का ढेर भर है
कुरेदेने पर भी नहीं मिलती
एक भी दबी चिन्गारी
इनको हवा देने से
नहीं भभक उठती कोई ज्वाला
उड़ती राख भर जाती है आँख मे
थोड़ा मलने के बाद
चल देते हैं अपने रास्ते
जैसे कि चल देना ही सब कुछ हो
जैसे कि रास्ते पहुँचाते ही हों
जैसे कि कोई वास्ता ही न हो समस्यायों से
जैसे कि वे अपनी हो ही नहीं
जैसे कि सब ऐसे ही चल जायेगा हमेशा
जैसे कि किसी को कुछ भी करना न होगा
करें भी क्या हम
फ़ुरसत कहाँ है
मगर जब फ़ुरसत होगी
बहुत देर हो चुकी होगी

Saturday, 27 March 2010

जो है जैसा है

माँ बाप सोचते थे कि थोड़ा मेहनती और होता मै
यूँ नहीं कि उन्हे मुझसे प्यार न था
लेकिन फ़िर भी जैसा था मै
उन्हे स्वीकार न था
यही हाल मेरे गुरुओं का था
ऐसा ही कुछ मेरे दोस्तों को भी खयाल था मेरे लिये
अआदमी तो ये ठीक है लेकिन
जरा ऐसा होता तो अच्छा था
जरा वैसा न होता तो अच्छा था
हर इन्सान जो मिला और करीब आया मेरे
और शायद वो भी जो करीब नहीं आया
कुछ न कुछ तो काट छाँट करना ही चाहता था मुझमे
जैसा मै हूँ या था
वैसा तो मंजूर ही नहीं रहा कभी किसी को मै
हो सकता है
इस वजह से कुछ बदलाव किया हो खुद मे मैने
कोई नहीं कह सकता
ठीक रहा ये बदलाव या गलत
लेकिन इससे भी क्या होता है
लोग तो अभी भी
कुछ न कुछ बदलाव की चाहत लिये ही हुये हैं
न मेरी मर्जी से कुछ मतलब
न ईश्वर की मर्जी से कोई वास्ता
सोचो तो
क्या मजा है
परमात्मा को भी जो है जैसा है स्वीकार है
लेकिन इन माटी के पुतलों को नहीं

Friday, 26 March 2010

तहजीब

न जाने कितने सवालों के जवाब देता आया हूँ
जिनके बारे मे मुझे ठीक से कुछ भी पता नहीं था
लोगों ने मान लिये होगें उत्तर
ऐसा तो नहीं समझता मै
लेकिन उन्होने औरों को
जवाब देने में इस्तेमाल जरूर किये होंगे
जैसा कि मुझे ही मिले थे औरों से
सब जवाब बेमानी
आदिकाल से हैं
सवाल करने वाले
जवाब देने वाले
और इस कचरा सी माथा पच्ची के बीच
सवाल खड़े हैं आज तक
वैसे के वैसे ही
चाँद तक छान डालने वाली मनुष्यता
अपनी ऊँचाइयों का दम्भ भरते नहीं अघाती
लेकिन मुझे दिखती है
बेबसी असहायता लाचारी
उसी मनुष्यता की
जहाँ आज भी चुनौती की तरह खड़े हैं
बुनियादी सवाल
भूख के अत्याचार के शोषण के अन्याय के
हज़ारों सालों के
इन्सानी वज़ूद और तहज़ीब के बाद
और उसके बावज़ूद

Thursday, 25 March 2010

महाभारत की असली कथा

दु:शला का एक वंशज मिला मुझे
कानो सुनी बता रहा था
कि पांडव बड़े दुष्ट थे
एक नम्बर के धूर्त
महा शराबी लंपट दुराचारी
रोज पीटें द्रौपदी को
गरियायें अपनी माँ को
अपने बाप तक को नहीं बख्शा
न काम न काज
जुआड़ी तो खैर वे जग जाहिर थे
प्रजा त्रस्त
बुरा हाल राज्य का
न कहीं न्याय
न खाने को अनाज
सब तरफ़ अधर्म ही अधर्म
पड़ोसी राजा लूटमार पर उतारू
और फ़िर
धर्म के पुनुरुत्थान के लिये
बेचारे परम प्रतापी राजा दुर्योधन को
आ गया तरस निरीह जनता पर
सौ पुण्यात्मा भाई
सारे श्रद्धेय वृद्धजन और गुरू मिल बैठे
विचार किया और छेड़ दिये लड़ाई
खूब लड़े लेकिन जीत न पाये
अरे बड़े कुटिल थे पांडव
और पटा लिये थे कृष्ण महराज को भी
और फ़िर कपटी व्यभिचारी इन्सान से
भला सदाचारी जीते हैं कभी
खैर हमने कहा
कि हम तो पढे हैं कुछ और
इतिहास मे
तो वो कहने लगा
भइया तनिक सोचो
कौरवों के खतम हो जाने बाद
आखिर लिखाया किसने होगा इतिहास

Wednesday, 24 March 2010

मेरे पापा

मेरे पिता पर कविता लिखना कठिन है
न रस न लालित्य न माधुर्य
प्रेम संवाद ही नहीं हुआ कभी हमारे बीच
न वाणी से
न अन्यथा
अलबत्ता कुछेक दफ़े मेरे गालों से ज़रूर
उनकी हथेलियों का विस्फ़ोटक संवाद हुआ है
जाने क्या चाहते थे वे ज़िन्दगी से
असन्तुष्ट व्यग्र तीव्र उत्सुक
झपट्टा सा मारने को तैयार
वे यकीनन चाहते थे कि हम बने
बड़े ऊँचे धनवान प्रसिद्ध
कुल मिलाकर एक ज़ुनून थे वे
वो बताने को हैं नहीं
और हम जानते नहीं
कि हम कहाँ पहुँच सके उनके हिसाब से
खैर जहाँ भी पहुँचे हम
इसमे उस ज़ूनून का दखल अव्वल है


(राम नवमी, मेरे पिता की पुण्यतिथि पर, उन्हे असंख्य श्रद्धा सुमन अर्पित)

Tuesday, 23 March 2010

जैसा चाहो

पसन्द नहीं मै ?
मुझे तोड़ो
चूर चूर करो
पीसो
भिगोओ
गूँथो
ढालो
रंगो
सजाओ
जैसा चाहो

Saturday, 20 March 2010

वह

सौन्दर्य की क्या तस्वीर बनाये कोई
गुलाब की बनाई जा सकती है तस्वीर
प्रभात पर लिखी जा सकती है कविता
खिले चेहरे पर गाये जा सकते हैं गीत
लेकिन सौदर्य
वो तो है सिर्फ़ एहसास भर
यूँही है कुछ शिव भी और सत्य भी
किसी बच्चे की किलकारी मे सुनो उसे
किसी प्रेमी की आँख में झाँक देखो उसे
किसी सुबह की ताजी हवा में छुओ उसे
वह हर जगह है
लेकिन अगर उसे
न देखने न सुनने न छूने की
जिद ही पे उतारु हो कोई
तो वह फ़िक्र नहीं करता इसकी कतई
और वो तुम्हारी शर्त पर
तुम्हे हतप्रभ भी नहीं करता
वो नहीं है कोई मदारी
वह है होना
शुद्ध अस्तित्व

Friday, 19 March 2010

भविष्य वाणी

कल हाथों मे छिपा है
पर क्या पढ़ना लकीरें
कलम पकड़ें हाथ मे
या हल कुदाल
या फ़िर कूची बांसुरी सा कुछ
लग जायें अभी मेहनत से
इसी आज से निकलेगा कल
और जब वह आयेगा
अपनी परम भव्यता मे प्रकट होगा
केवल तभी जब
आज को सर्वस्व समर्पण किया हो हमने

Thursday, 18 March 2010

जीवन एक सम्भावना

कंकड़ जैसा ही दिखता है
अभी तो बीज
लेकिन मिट्टी तोड़ेगी अहंकारी आवरण
पानी की प्राणदायिनी शक्ति
सूरज की गर्मी
हवाओं के थपेड़े
और आकाश का विस्तार
ले आयेंगे अंतर
और फ़िर तब
सिर्फ़ तभी
फ़र्क होगा
बीज और कंकड़ में
जीवन मिलता है इसी तरह हमे
एक अवसर की तरह
और साधन की तरह पंच तत्व
सम्यक उपयोग से इनके
हजारों फ़ूल लगते हैं जब
और सुवास होती है हमारे जीवन मे
तभी पहचान होती है
कि जो मिला था हमें
वो बीज था
नहीं तो कंकड़

Wednesday, 17 March 2010

एट्किन्स डाइट

उन्होने रोटियों पर हस्ताक्षर किये
फ़िर वे सरकारी मुहर के लिये भेज दी गईं
एक बाबू हफ़्तों तक रजिस्टर भरता रहा
उनके डिस्पैच के लिये
साधारण डाक से वे पहुँचीं
जरूरतमन्दो के हाथ आते आते
खाने लायक नहीं बचीं वे
और कुछ वे भी नहीं बचे
जिनके लिये भेजा गया था इन्हे
बड़ा पुण्य का काम है
रोटी देना
वो भी उनको
जो अपने हाड़ से खोदते हैं खेत
सारी जमा पूँजी और सारी उधारी देते हैं बो
अपने खून से करते हैं सिंचाई
उम्मीदों की हवा में पसीना सुखाकर
पैदा करते हैं गेंहू
पलकों से चुनकर दाने पहुँचाते हैं गोदामो मे
बहुतों को संतोष है इस पर
चैन से सो जाते हैं पी खाकर
और हाँ गेंहू नहीं खाते वे
नो कार्ब
मोटापे की वजह से
एट्किन्स डाइट पर चल रहें हैं
सिर्फ़ प्रोटीन
खालिस मांस

Tuesday, 16 March 2010

निर्णय

दस बरस के एडोल्फ़ की हत्या
शर्तिया एक जघन्य अपराध होती
मगर फ़िर दुनिया
एक हिटलर से बच गई होती
क्या गलत क्या सही
कौन तय करेगा
जानता ही कौन है

Monday, 15 March 2010

जंजीरें

न जाने कौन सा सुख है जंजीरों मे
लेकिन सुख होगा ज़रूर
तभी तो
हम अगर छोड़ भी पाते हैं
कोई पुरानी जंजीर
तो तभी
जब पकड़ लेते हैं
और नई जंजीरें

Saturday, 13 March 2010

विमुख

तुम्हारे हित मे है कि तुम
पीठ कर लो मेरी ओर
सूरज को नहीं देखोगे
तभी तो देख पाओगे
जो दिखता है
उसके होने पर

Thursday, 11 March 2010

असंगति

एक अकड़ के आ रहा है
दूसरा मुँह छुपाये है
एक का गला फ़ूलों के हार के काबिल है
दूसरे का फ़न्दे के
आस्तीन पर दोनो के लहू है
इन्सान का

Wednesday, 10 March 2010

मा फ़लेषु कदाचन

बोर्ड की प्रथम परीक्षा मे जाने से पूर्व
भगवान की मूर्ति को प्रणाम करने को कहा गया
इससे क्या होगा
एक स्वाभाविक प्रश्न निकला
सब ठीक हो जायेगा
एक घिसा सा उत्तर मिला
पर मै तो सिर्फ़ वही प्रश्न हल कर पाया
जो मुझे आते थे
बाकी नहीं
लेकिन परिणाम शेष था
सो प्रभु के सब ठीक करने का थोड़ा भरोसा भी
अंतत: परीक्षाफ़ल मे उतने ही अंक मिले
जितना मैने हल किया था
तो क्या प्रभु ने कुछ नहीं किया
खैर
और और परीक्षायें आईं
नौकरी पाने के लिये
जीवन साथी का विश्वास पाने के लिये
बच्चों के उचित विकास के लिये
समाज मे ऊँचे स्थान के लिये
हर बार प्रभु को प्रणाम किया
हर बार वही मिला जितना कर पाया
उतना ही मीठा जितना गुड़ डाला गया
न कम न जादा
क्यों फ़िर फ़िर प्रभु को प्रणाम जारी है
क्या इसलिये कि परीक्षा की पूरी तैयारी ही नहीं होती
और जो भी कुछ रह जाता है
उसके प्रति आशंका बनी ही रहती है
उस डर के चलते झुक जाता है सर
एक मूर्ति के समक्ष
श्रद्धा लेशमात्र नहीं
मेरा विश्वास है कि
समर्पण पूर्ण हो अगर
तो नहीं होगा डर
तो हर परीक्षा में
हम पूर्ण तैयार होंगे
और इस पूर्णता का
सौ प्रतिशत अंकों से
कोई लेना देना नहीं है

Tuesday, 9 March 2010

मेरे बिना

जब मै नहीं था
तब सिर्फ़ ये कि
मै नहीं था
जब मै नहीं होऊंगा
तब सिर्फ़ ये कि
मै नहीं होऊंगा
कोई इस तथ्य को
कोई महत्व दे तो दे

Monday, 8 March 2010

यह भी गुजर जायेगा

यह भी गुजर जायेगा
ये महावाक्य पढ़ा था कभी
एक बार जब तकलीफ़ में थे हम
याद आ गया ये वाक्य
अच्छा लगा सुकून मिला दिल को
और जब बहुत खुश थे कभी हम
याद आ गया वही महावाक्य
नहीं अच्छा लगा इस बार
भूल हो गई यहीं
चूक गये जीवन के मूलमन्त्र से
हम सब हमेशा हमेशा से
यूँही चूकते आये हैं
अभिशापित है इन्सानियत क्या
क्या यही है नियति

Saturday, 6 March 2010

भारत रत्न

चलो अब
छापो मेरी किताबें
मेरा गुणगान करो
बनाओ मूर्तियाँ मेरी
पुरस्कृत करो मुझे
मरणोपरान्त

Friday, 5 March 2010

रचना

घुटन तड़प छ्टपटाहट
बेचैनी उदासी घबराहट
कितने बौने शब्द
कितनी बड़ी अनुभूतियाँ
आग जलाती है
लेकिन आग शब्द में
नहीं कोई तपिश
पानी पानी लिखते रहने
या रटते रहने से
नहीं बुझती है प्यास
नहीं शब्दों मे सत्य
वरन उसमे
जिसकी खबर लाते हैं शब्द
सिर्फ़ खबर भर उस पार की
क्या है फ़िर
और क्यों है
लिखने की कोशिश
मात्र बेचैनी
या वक्तव्य भर का सुख
गर्भ अनुभूति का
अमरत्व की पिपाशा
होने का बढ़ के छलकना
या कुछ और
जो भी है खैर
जब तक है
लिखे बिना
कोई गुजारा नहीं

Thursday, 4 March 2010

लंगोटिया यार

लंगोट बहुत करीब होता है उसके
सबसे ज्यादा करीब
जिसके लिये वह होता है
इतने ही करीब दोस्तों को
कहते हैं लंगोटिया यार
हैं मेरे भी कई
जिनके लिये मैं हूँ लंगोट
जरा सोचो
तुम क्या हो दोस्तों

Tuesday, 2 March 2010

स्वान्त: सुखाय

फ़ूल खिलते हैं
खूशबू लुटाते हैं
निस्वार्थ
ऐसे कई उपमानों से लैस
मै कविता सुना रहा था कि तभी
मेरी छोटी सी बिटिया ने
आकर एक तथ्यगत सत्य
किया उद्घाटित
ऐसा नहीं है
फ़ूल अपने पराग को
दूसरे फ़ूलों तक पहुँचाने के उपक्रम में
बिखेरेते हैं गन्ध
जिससे कि सन्तति हो सके
इसमे स्वार्थ है उनका अपना
अभी अभी पढ़ा होगा उसने
और अभी अभी ही मैने
पुन: अविष्कृत किया कि
कविता ही नहीं अपितु
सब कुछ वो जो सुन्दर है शिव है और सत्य है
होता ही है स्वान्त: सुखाय

Monday, 1 March 2010

प्रभु की शिक्षायें (बुरा न मानो होली है)

अपने पड़ोसी को प्यार करो
प्रभु बोले
इस पे मजाक किया किसी ने
कि देख के करना
जब उसका पति न घर पर हो
दूसरों से वैसा व्यवहार करो
जैसा तुम चाहते हो वे करें तुम्हारे साथ
सुना ऐसा भी कुछ बोले थे ईश्वर पुत्र
चाहते थे हम
एक चुम्बन मिल जाये
अपनी पड़ोसन से
तो क्या दे डालूँ मै उसे एक

Sunday, 28 February 2010

खोज

खोज जारी है
कभी किताबों मे
कभी पहाड़ों पर
खोज ले जाती रही मंदिरों तक
बाज़ारों तक
दोस्तों की महफ़िलों तक
बिस्तरों पर खोजते रहे
और रसोईघरों में भी
खूबसूरत बगीचे देख डाले
और बियाबान जंगल भी
कभी अस्पतालों मे भी देखा
कभी किसी की आँखों मे
न सागर तट बच पाये खोज से
न दरिया की मौजें
लोगों के गीतों मे तलाशा
अपनों के आँसुओं मे झाँका
बहुत देर हुई
खोज जारी है
और अब तो ढूँढते हैं आईना
कि ये तो देख सकें
कि कौन खो गया है

Saturday, 27 February 2010

ड्रेनेज़ सिस्टम

पुरुष और स्त्री व्यक्ति हैं
पत्नी एक सम्बन्ध है
घर के इन सम्बन्धों में
पनपती है गन्दगी
वेश्या भी एक सम्बन्ध है
बाहर का ये सम्बन्ध है निकास
जो साफ़ होना चाहिये वहाँ गन्दगी है
और जो गन्दा जान पड़ता है वो सफ़ाई के लिये है
न हो अगर नालियाँ
उस गन्दगी के निकास को
जो रोज़ पैदा होती हैं घरों में
तो क्या हाल हो घरों का
हाँ नालियाँ खुली अच्छी नहीं लगतीं
इसीलिये ढक के रखता है इन्हें
सभ्य समाज

Friday, 26 February 2010

चारदीवारी

जिस चारदीवारी के पीछे खड़े होकर
तुम बादलों के चटकीले रंग निहारती हो
वास्तव मे है नहीं वह
बाड़ें होती हैं मवेशियों के लिये
सपनों को तो बहुत छोटा है
सारा आकाश भी
डैनों को खोलने के प्रयत्न काम नहीं आते अक्सर
चाहत करती है संचालित सब गतियाँ सारी उड़ाने
सपने नहीं टूटते
मनोबल टूटते हैं
और फ़िर कुछ नहीं बचता
तुममे तो अभी बाकी हो पूरी तुम
तुम्हारे पंख दिखाई देते हैं मुझे
और उदासी भी
नैराश्य है जिसे तुम संतुष्टि कहती हो
तुमने खुद ही बनाये हैं घेरे अपने चारों ओर
सुरक्षा नहीं
ठीक से देखो कैद है
सहनुभुति पा लेने भर का लोभ क्यों
सब पाने की पात्रता तो है तुममे
सब में होती है
बस एक ज़रा तीव्र उत्कंठा
और ज़रा सा हौसला
फ़िर तुम पाओगी कि
चारदीवारी नज़र ही नहीं आती
उन चटकीले रंगों वाले बादलों से
वास्तव मे है नहीं वह

Thursday, 25 February 2010

कभी तो आयेगा अच्छा भी वक्त

कभी तो आयेगा अच्छा भी वक्त
ख़राब हैं हालात अभी तो बहुत
अभी तो करना पड़ता है बहुत बन्दोबस्त
कि लोग चल सकें सड़कों पर ठीक से
और हाँ
भेड़ बकरियों के बाबत नहीं
इन्सानों के लिये कह रहा हूँ मै
खड़े रहते हैं मुश्तैद दरोगा सिपाही
जैसे कि हम इतने जंगली हैं कि
चल भी न सकें कायदे से अपने आप
अभी तो डंडे के ज़ोर पे ही
रोकनी पड़ती हैं चोरियाँ
मुकाबला किया जाता है डकैतियों का
सज़ा देके समझाई जाती है ये बात
कि बुरी बात है दूसरे का हक़ छीनना
कोशिश की जाती है ज़ोर ज़बरदस्ती से
कि औरतों से ज़ोर ज़बरदस्ती न की जाये
बड़ी मुश्किल से शायद ही कभी
समझ आता हो किसी को
बुज़ुर्गों की इज़्ज़त की जाये
बच्चों को मोहब्बत से पाला जाये
पेड़ पौधों को बचाया जाये
कभी तो आयेगा वो वक्त
जब अदालतें नहीं होगी
नहीं होंगे वकील जज़ और सिपाही
हो जायेंगे हम लायक इतने
कि ज़रूरत हीं नहीं होगी इनकी
कभी तो आयेगा ऐसा भी वक्त
खराब हैं हालात अभी तो बहुत
कभी तो आयेगा अच्छा भी वक्त

Wednesday, 24 February 2010

फ़िर आता है बसन्त

मै जब मर जाता हूँ
तब तुम ऐसे रोती हो
कि अब बस सब खत्म
लेकिन ऐसा होता नहीं
कुछ जगहें हो जाती हैं खाली
शुरु में अखरती हैं वे जगहें
जैसे जीभ बार बार वहाँ जाती है
जहाँ दाँत अभी अभी टूटा हो
फ़िर पड़ जाती है आदत
तुम्हारे खाने की मेज पर की वो दूसरी कुर्सी
सिनेमा हाल की तुमसे चौथी सीट
रेलगाड़ी में तुम्हारे सामने के ऊपर वाली बर्थ
डबल बेड पर तुम्हारे दांये तरफ़ का तिहाई हिस्सा
कुछ खाली जगहें भर जाती हैं
कुछ की आदत डाल लेती हो तुम
थोड़ी मदद कर देते हैं लोग
और थोड़ी वक्त
और फ़िर धीरे धीरे ये बात
कुछ यूँ हो जाती है जैसे
कड़क ठण्ड मे जब तुम्हारा
तुलसी का बिरवा मर जाता है
तुम नया ले आती हो
बसन्त आते आते

Tuesday, 23 February 2010

जमीन

वे लोग आये और बोले
यहाँ बनेगी सड़क
मैने कहा ठीक
एक बूढे ने आकर पूछा
क्या वह गेंहू उगा सकता है वहाँ
मैने हामी भर दी
बच्चों ने पढना चाहा वहाँ
मैने इन्कार नहीं किया उसे
जो स्कूल बनाने आया था वहाँ
ढेर सारे मवेशी आये
और घास चरने लगे वहाँ
उन्होने मुझसे कुछ नहीं पूछा
मुझे बुरा लगा क्योंकि
अभी तक सबने पूछा था
लेकिन मैने कोई विवाद नहीं किया
मुझे खयाल आ गया था कि समय हो चुका है
और मुझे अब फ़िर चल देना है अपने रास्ते
उस खाली मैदान के साथ खड़े
इस पेड़ के तले से उठकर
जहाँ मै रुका था
पल भर विश्राम को

Monday, 22 February 2010

कर्फ़्यू

सब्ज़ी काटते काटते वह उठा
छुरा भोंक दिया उस लड़के के
जिसने घंटी बजाई थी
और जो टोपी पहने था
खून की नदी संसद भवन तक पहुँची
अखबार के दफ़्तर से होकर
पत्रकारों ने स्नान किया आरती की
और भोज की तैयारी में जुट गये
दो गुटों में बँटकर नेताओं ने
मंत्रोच्चार के साथ
एक दूसरे पर फ़ूलों की वर्षा की
बच्चों की छुट्टी हो गई
औरतें खाली और बेपरवाह
कोई ठेलेवाला नहीं गुज़रा कहीं से
बीमार बूढा रात्रि भोजन में
सब्ज़ी न होने से नाराज़ था
और उसने अस्पताल में अनशन कर दिया
नुक्क्ड़ों चौराहों पर
कटी हुई गाजर और मूलियाँ
दुर्गन्ध पैदा करती रहीं
बहुत सी सब्ज़ियाँ कटीं बेमौसम
बहुत से लोग तुरन्त बूढे होकर
भरती हो गये अस्पताल में
यहाँ से बाद में कुछ सीधे स्वर्ग गये
और कुछ घर होकर
किसी को कोई फ़र्क नहीं पड़ा
कईयों ने कहा कि वे प्रभावित हुये
उन्हे भी कोई फ़र्क नहीं पड़ा
फ़र्क ही तो नहीं पड़ता है किसी को कभी भी

Sunday, 21 February 2010

कलजुगी नेता

ये गलतफ़हमी दूर कर लो कि
अनुयाई चलते हैं नेता के पीछे
केवल दिखता भर है ऐसा
बात कुछ यूँ है कि
नेता की आँखें होती हैं पीछे को
दिखती नहीं हमे ये और बात है
और ये भी कि आगे वाली तो हैं नकली
जैसे हाथी के दाँत
न मानो तो जरा सोचो
कौन नेता ले जाता है आगे
समाज को
देखता ही नहीं आगे को
तो ले कैसे जायेगा आगे
खैर तो मामला ये कि
नेता वो
जो देख लेता है
किधर जा रही है भीड़
और फ़िर चल पड़ता है उसके आगे आगे
मुड़े भीड़ बांये तो बांये दांये तो दांये
अड़चन ही नहीं
आँखें जो हैं पीछे को
तो ये हैं कलजुगी नेता
और कहीं अगर असली हो नेता
क्या पड़ी उसे कोई पीछे है कि नहीं
आगे को आँख है
आगे को देखता है
आगे को चलता है
और तब बढ़ता है
आगे को समाज

Saturday, 20 February 2010

सुख मे करै न कोय

ईश्वर ने पकड़ लिया हमे
एक छुट्टी वाले दिन
लगे शिकायत करने
याद नहीं करते हो आजकल
दिया बाती भी नहीं जलाते मेरे चौबारे
न भजन न कीर्तन न रतजगा
कथा करवा के पंजीरी भी नहीं बाँटते
अरे कभी दो फ़ूल चढा जाया करो
थोड़ा दान दक्षिणा
भन्डारा वगैरह कर लिये कभी
हो आये तीरथ चार धाम
क्या तुम भी
हाँ नही तो
बिल्कुल ही भुला दिये हमें
अब हम क्या कहें
भगवान हैं
बहुत उमर हो गई है
उन्हे कुछ कहे अच्छा नहीं लगता
लेकिन बात दरअस्ल ये है कि
कोई तकलीफ़ ही नहीं है हमे इन दिनो

Monday, 15 February 2010

शिकार

इन्सान शेर को मारे तो
शिकार
शेर इन्सान को मारे तो
हत्या
भला क्यों?

Sunday, 14 February 2010

प्रणय निवेदन

एक दिन मै
किसी पतझड़ में
उठाके वो सारी गिरी हुई पत्तियाँ
पीली सूखी आवाज करती पत्तियाँ
टाँग दूँ पेड़ों पर फ़िर से
सुबह की सुन्दर मन्द बयारों को
बुला के छुपा बैठूँ वहीं कहीं आसपास
सूर्यास्त के समय का वो सुनहरा सागर
तान दूँ ऊपर बनाके छत
टाँक दूँ उसपे सजा सजा के
दूज से पूनम तक के चौदहों चाँद
तारे छुपा दूँ ढेर से पेड़ो के पीछे
बना के शामियाना झरनों के परदों से
तुम्हे बुलाऊँ वहाँ एक शाम
और आते ही तुम्हारे
डोलने लगें हवायें
सूखे पत्तों और झरनो का संगीत
टिमटिमाते हजारों तारे बिखर के
नाचने लगें यहाँ वहाँ
मै लेकर
तुम्हारी पसन्द का वो लाल गुलाब
बैठ घुटने के बल
तुम्हे भेंट कर
प्रणय निवेदन करूँ !
तब भी नहीं ?

Saturday, 13 February 2010

उसने हाँ कहा होगा

और तो खैर क्या गिला शिकवा अँधेरे से
मलाल ये ज़रूर है कि देख न सके हम
जाने किस अन्दाज़ में उसने हाँ कहा होगा

छलकते हुये पियालों को शर्म आ गई होगी
थरथराते लबों पर तबस्सुम छा गई होगी
परदा नहीं था और वो परदा कर रहा होगा
जाने किस अन्दाज़ में उसने हाँ कहा होगा

रेशमी आरिजों पर रंगे हिना छा गया होगा
वो शोख पत्थर का सनम पिघल रहा होगा
कली सा वो बदन चटक कर गुल बना होगा
जाने किस अन्दाज़ में उसने हाँ कहा होगा

मलाल ये ज़रूर है कि देख न सके हम
और तो खैर क्या गिला शिकवा अँधेरे से

Friday, 12 February 2010

तुम कहो

सुनी है
खामोश नज़रों से
लरज़ते लबों से
सुर्ख आरिज़ से
गहरी साँसो से
तेज धड़कन से
बात हमने जो
तुम भी तो कहो

Thursday, 11 February 2010

परिक्रमा

चाँद धरती के लगा रहा है चक्कर
एक आकर्षण से बँधा
घूम रही है धरती
सूरज से बँधी
सूरज परिक्रमा में रत है
एक और महासूर्य के
सब कुछ इस पूरे ब्रह्माण्ड में
है किसी न किसी के आकर्षण में बँधा
और लगा रहा है उसके चक्कर अनवरत
खिंचाव
लगाव
प्रेम
चक्कर
तुम
तुम्हारा कालेज
रिक्शा
मेरी साइकिल
मैं
इस ब्रह्माण्ड से बाहर नहीं हैं

Wednesday, 10 February 2010

जोड़

दिखता नहीं कि
मेज से जुड़ी है कुर्सी
साथ तो है लेकिन
तो फ़िर जुड़ी है
दिखने का क्या
दिखने से भी परे होते हैं जोड़

Tuesday, 9 February 2010

बैनीआहपीनाला (VIBGYOR)

बैंगनी से लाल तक
जो रंग हम देख पाते हैं
उसके अलावा भी होता है प्रकाश
छोटी और बड़ी वेवलेन्थ
जो फ़ैली है दूर दूर तक
इन्फ़्रा रेड की ओर
अल्ट्रा वॉयलेट की ओर
इन निम्नतर और उच्चतर उर्जा तरंगो के प्रति
हम हैं बिलकुल अन्धे
बहुत ज़रा से एक स्पेक्ट्रम के अलावा
बाकी जो ढेर सारा प्रकाश हमें नहीं दिखता
क्या उसी प्रकाश स्पेक्ट्रम में
घटित होते हैं
शोषण हिंसा घृणा कुत्सित व्यभिचार
धड़ल्ले से ज़ारी हैं
कालाबाजारी रिश्वतखोरी अपहरण बलात्कार
प्रदूषित होते जाते हैं
सागर हिमशिखर हवायें नदियाँ
और मानव मस्तिष्क
लुप्त होते जाते हैं
दुर्लभ जीव जन्तु वनस्पतियाँ
और संस्कार
यकीनन वहीं
उसी प्रकाश स्पेक्ट्रम में
अन्यथा हम देख न लेते
सामूहिक आत्मघात की ओर
बढ़ती जाती मनुष्यता !

Monday, 8 February 2010

सेन्स ऑफ़ ह्यूमर

चार माह का नन्हा बच्चा
लेटा लेटा स्वयं मे मस्त
किसी भीतरी खुशी से प्रफ़ुल्ल
हाथ पाँव फ़टकारता
मुट्ठियों को ज़ोर से भींचे
मुस्कराता रहता है मन्द मन्द
विधाता ने बनाने के बाद उसे
जैसे कि चुपके से
सौंप दी हो कोई अकूत सम्पदा
खुलेगीं धीरे धीरे मुट्ठियाँ उसकी
ज्यों ज्यों बड़ा होगा
और फ़िर पायेगा कि
हाथ खाली हैं
मजाक किया था शायद भगवान ने
हो सकता है उनका भी हो
सेन्स ऑफ़ ह्यूमर

Saturday, 6 February 2010

मेरे बच्चों !

चाहता हूँ तुम्हे दे जाऊँ
सुन्दर सूर्यास्त
चौदहों चाँद
अँधियारी रातों में तारो की महफ़िल
साफ़ नदियाँ सागर
संगीत सुनाते झरने
सुरक्षित जंगल वन्य जीवन
शानदार चीते मतवाले हाथी
नाचते मोरों से भरे वन
पहाड़ों के घुमावदार रास्ते
ढलुआँ खेत
लहलहाती फ़सलें
पेड़ो पर झूले सावन के
शीतल मन्द बयार
झकझोरती आँधियाँ
रिमझिम फ़ुहारें
आम के बौर की मतवाली गन्ध
खुशबू लुटाते गुलाब और बेला
बदलते मौसम की मस्तियाँ
विस्तृत रेतीले बंजर टीले
अगर ये सब बचे
हमारी हवस और मूर्खता से !

Thursday, 4 February 2010

कबूतर

उस गाँव में
नहीं जानते थे लोग
किसी चिड़िया को
सिवाय कबूतर के
लग गया एक दिन
उनके हाथ
कहीं से उड़ता आया
एक रंग बिरंगा खूबसूरत तोता
परेशान हो गये लोग
देखा नहीं था कभी
इतना भद्दा कबूतर
खैर उसको ठीक करना
उसके ही हित मे था
और ज़रूरी भी
क्योंकि वे दयालु लोग थे
सो
काट दी गई उसकी कलगी
सीधी कर दी गई घिस कर उसकी चोंच
काट छाँट दिया गया परों को
और फ़िर रंग दिया गया
सफ़ेद रंग में उसे
अब चैन आया लोगों को
बन गया कबूतर
जाने कब से हम सब
अपने घरों में
शिक्षा संस्थानो में
बना रहे हैं हर रोज़
कबूतर

Tuesday, 2 February 2010

ईश्वर

मिला एक दिन
एक शख्स मुझे
जो खुद को
कहता था भगवान
मेरे संशय पर दिखाया
उसने जो पहचान पत्र
उसपर लिखा था
मेरा ही नाम

Sunday, 31 January 2010

ताज

रोती रही रात भर
ताज से लिपट के
बहती हुई गुम हो गई
घने कोहरे मे
पंखुडियों पे जम के बैठ रही
उसकी सिसकियां
गूंजती रहीं सदियों महलों मे
आसुँओ को बिखेर एक चितेरे ने
सजा डाले बगीचे
डोंगी मे बैठ यमुना पर
चाँदनी पीने की आस लिये
ज़िन्दगी पा लेने की
ज़िन्दगी भर की नाकाम कोशिश
एक निहायत खूबसूरत इमारत
सदियों सदियों के लिये
मोहब्बत करने वालों के लिये रश्क
न कर पाने वालों के लिये रश्क
रोती रहती है रात भर
आज भी एक रूह
लिपट के ताज से
सूकून नहीं है
जाने क्यों

Saturday, 30 January 2010

पत्थर की मूर्तियाँ

मूर्तियाँ बनवाने से
नहीं होता कोई महान
कोई होता है जब महान
तो बन ही जाती हैं मूर्तियाँ
पत्थर की बनी हुई
नहीं टिकतीं ज्यादा देर
धरासाई कर देता है कभी
कोई भूकम्प
कोई गुस्साई भीड़
किसी नेता की सनक
नगर निगम की नई योजना
महान लोगों की मूर्तियाँ
ज़िन्दा रहती हैं
यहाँ भीतर
दिलों में

Friday, 29 January 2010

सम्बन्ध

रात दिखता था घर के बाहर
घना कोहरा
इतना कि नहीं दिखता था
सामने वाला घर
सोचता हूँ
वो कौन सा कोहरा है
सरक आया है जो भीतर घर के
नहीं दिखते साफ़
साथ रहने वाले शख्स
कहाँ देख पाते हैं साफ़ हम
बरसों साथ रहके भी
एक दूसरे को
क्या है हमारे बीच कोहरा सा
जो दिखता नहीं
देखने देता नहीं
वो मैं है शायद
दो मैं
एक मेरा एक तुम्हारा
दो अहम
ठोस
सोचना ये है कि
हमारे बीच वो ऊष्मा कहाँ से आये
जो वाष्पीभूत कर दे
बीच के कोहरे को
शायद प्रेम है वो गर्मी

Thursday, 28 January 2010

एक खबर

दो चींटियों की हो रही थी शादी
चल रहा था प्रीतिभोज
सजे धजे लोग
गीत संगीत
हँसी और छेड़छाड़
झूलों पर बच्चों की भीड़
शराब की मस्ती से सराबोर नौजवान
गुब्बारे बेचती चींटियाँ
कुछ मिल जाने की लालसा में
व्यग्र भिखारी चींटियाँ
जिस लॉन पर बसी थी ये खुशनुमा दुनिया
उसके नजदीक बरामदे में खेलता
एक छह माह का दुधमुँहा बच्चा
ठोकर मार एक बड़ी गेंद को
देता है उछाल फ़ेंक और वो
जा गिरती है उस जलसे पर
न जाने कितने मृत
न जाने कितने घायल
न जाने कितने का नुकसान
पता नहीं क्या लिखेंगे अखबार वाले
पता नहीं क्या दिखायेंगे टीवी वाले
उस दुधमुँहे बच्चे को सचमुच
कुछ पता नहीं

Wednesday, 27 January 2010

किस्मत

मेरी किस्मत मे लिख दो
एक टुकड़ा चाँदनी
अँधियारी रातों को
लिख दो अलसाये फ़ागुन के दिन
कुछ सपने सतरंगे
मीठी नींद ज़रा सी
रुनझुन पायल चूड़ी खनखन
थोड़े से झूले सावन के
सुबह के हवा की खुशबू
चटकीले बादल के रंग
पहली बारिश का सोंधापन
आग बरसते आसमान में
पल भर छाया शीतल लिख दो
ठिठुरते दिनो मे लिख दो
आँगन भर भर धूप
प्रियतम एक मधुमास लिख दो मेरे नाम
मन मंदिर में अपने लिख दो मेरा नाम

Tuesday, 26 January 2010

जश्ने क़ैद

हम कैद मे हैं
हमेशा से कैद हैं हम
कारागृह हमारी नियति
जंजीरे हमारा भाग्य
ऊब गये एक जेल से तो दूसरी
ये नहीं तो वो जंजीर
जैसे रात सोते कोई करवट बदले
जंजीरे बदल जाती हैं
कैद जारी रहती है
हर क्रान्ति बदल डालती है जेलें
और बदल जाते हैं जेलर
आज़ादी की हर लड़ाई का परिणाम
तमाम भावुक लोगों की मौत
कुछेक चालाक लोगों के हाथ मे सत्ता
आम लोगों की हालत वही की वही
बल्कि अक्सर और बदतर
पहले हुआ करती थीं बहुत खूँरेज़
सत्ता बदलने की लड़ाइयाँ
हम अब ज़रा सभ्य हो गये
करते हैं हर पाँच साल में
और जल्दी भी कभी
बड़ी सी एक बेकार की कवायद
एक ही थैली के चट्टे बट्टे
मजे ले लेकर
बारी बारी से
करते हैं राज
पहले के लोगों से ज्यादा शातिर
ज्यादा होशियार ठहरे
राज़ी कर लिया है हमें
कि हम खुशी खुशी अपने ही हाथों
कुबूल करें
कभी इसकी हथकड़ी
तो कभी उसकी
कभी ये जेल तो कभी वो
बहरहाल कैद ज़ारी है बदस्तूर
और हाँ
इन खतरनाक और चालाक लोगों ने
चीजों की शक्ल बदल दी है
जेलों को अबके बनाया है महलनुमा
ज़ंजीरों को ज़ेवरात की शक्ल दी है

Monday, 25 January 2010

शाम

सुबह आँख खोलते ही
सामने खड़े हो जाते हैं मुँह बाये
बहुत से काम
थोड़े वादे
कुछेक मुलाकातें
ढेर सी भाग दौड़
काटना ही तो कहेंगे इसे
जबरन चलती रहती है
उठापटक दिन भर
सारा दिन बुलाती रहती है शाम हमें
कुछ है जो खींचता सा है
कुछ है जो दिखता है आगे
जिसे काटना न पड़ेगा
और जो कट जायेगा तो
अच्छा न लगेगा
फ़िर हो ही जाती है शाम
और फ़िर कुछ नहीं होता
बेवफ़ा सी मालूम होती है शाम हमें
अभी जब लगता है
दोपहर ही है ज़िन्दगी में
होगी कभी शाम भी
सोचता हूँ क्या वह भी
निकलेगी बेवफ़ा

Sunday, 24 January 2010

झूठ

जवाब दिया था जब मैने
कि नहीं करूँगा
इस सवाल पर तुम्हारे
कि कुछ करोगे तो नहीं
जो उठा था
मेरे बार बार आग्रह से बुलाने पर
एकान्त मे तुम्हे
उस वक्त
झूठ बोल रहा था मैं
ये मै भी जानता था
तुम भी

Saturday, 23 January 2010

कुछ तो यूँही यहाँ जीना आसान न था
और फ़िर तूभी तो मुझपे मेहरबान न था
महज़ दो ही परेशानियाँ इश्क में हुईं हमें
चैन दिन को नहीं रात को आराम न था
मीर का दिलबर दर्द का चारा जाने था
अपना भी मगर कोई ऐसा नादान न था
झूठ नहीं फ़रेब नहीं दगा नहीं न मक्कारी
पास मेरे तो कोई जीने का सामान न था
पाँव टूटने का हमे गिला होता क्योंकर
अफ़सोस उस गली में मेरा मकान न था

Friday, 22 January 2010

संगम

बूँद बूँद पिघलती है बर्फ़
सँकरे मुहाने से निकलती है
चट्टानों को काटती है
झाड़ियों में बनाती है राह
आड़े तिरछे पहाड़ के
दुर्गम रास्ते पे जूझती है
न कोई दिशा सूचक होता है
न कोई नक्शा
मार्ग बताने वाला भी नहीं कोई
भटकती फ़िरती है
और कहाँ कहाँ मारती है सर
आबादियों के पास से गुजरती है
ढोती है लोगों की गन्दगी
हर तरह की
बरबादियों से लड़्ती है
कुदरत से खाती है मार
सूख कर भी नहीं मानती हार
पल भर नही थमती विश्राम को
अदम्य साहस दिखाती है
प्रिय मिलन की आस से भरी
गिरते पड़ते चलती जाती है
अन्तत: एक दिन वो नदी
सागर के सामने
पहूँच ही जाती है
इतराती है दुलराती है
खुश होती है और
चौड़ी हो जाती है
ज़रा सोचो
कि अब अगर सागर मना कर दे
प्रणय को
तो क्या करे वह कहाँ जाये
ऐ मेरे देवता
मेरी प्रार्थना सुनी जाये

Thursday, 21 January 2010

मुक्ति

एक दिन झाड़ दूँगा धूल
कर्मो की विचारों की सपनो की
फ़ेंक दूँगा लगाव
किताबों से आमो से खास लोगों से
दरकिनार कर बैठूँगा चिन्तायें
परिवार की समाज की जगत की
छुट्टी पा लूँगा कष्टों से
बीमारी के मौसमो के बेमौसम के
छोड़ दूँगा सब
तरह तरह की शंकायें
हर तरह की आशायें
दोनो जहान के झगड़े
रोज़ रोज़ के लफ़ड़े
खत्म कर दूँगा
आदि अनादि के विवाद
व्यर्थ के संवाद
प्रेम कहानियाँ
दुश्मनी की गालियाँ
सब झंझटों से
मुक्त हो जाऊँगा
बस अपने ही मे
मस्त हो जाऊँगा
न जवाब दूँगा
कोई कुछ भी कहे
लोग कहेंगे
मिश्रा जी नहीं रहे

Wednesday, 20 January 2010

अति

ज्यादा ठण्ड हुई तो मर गये
ज्यादा गर्मी तो भी मरे
कभी ज्यादा बारिश
तो कभी सूखा
कभी ज्यादा हवायें ही मार देती हैं
मै बात कर रहा हूँ जिस प्राणी जगत की
उनमे से अनेकों को मार देती है
ज्यादा भूख भी
आश्चर्य है उन्हे कि
ज्यादा भोजन भी मार सकता है किसी को

Tuesday, 19 January 2010

लेके पत्थर इधर आते हैं लोग
शायद हमने सही बात कही है
जी मे है कि तुमसे बात करें
कहने को तो कोई बात नहीं है
नज़र का फ़ेर है तेरा होना भी
तू हर जगह है फ़िरभी नहीं है
मर मिटे जब उनके लिये हम
कहते हैं कि तू कुछ भी नहीं है
करता है ढेरों सवाल मेरा दिल
पर तुम्हारा कोई जवाब नहीं है

Monday, 18 January 2010

पानी गये न ऊबरे

मोती मनुष्य चूना
रहीम के अनुसार
बिना पानी हैं बेकार
होता तो है पानी मनुष्य में
कहावत है कि मर जाता है
इन्सान का पानी कभी कभी
मेरी समझ से मर नहीं सकता पानी
रूप बदल लेता है
पानी जब पानी नहीं रहता
तो हो जाता है बर्फ़ या भाप
बर्फ़ यानि ठोस पत्थर भावना शून्य
भाप यानि गुबार धुँआ मलिन द्रष्टि
मेरी एक आँख तुम
जमी हुई पाओगे
दूसरी में गुबार
एक द्रष्टि निर्मोही
दूसरी अस्पष्ट
हर आँख की यही कथा है
या कहें व्यथा है

Sunday, 17 January 2010

तत्वमीमांसा

सूरज निकला भी होना चाहिये
सिर्फ़ खिड़कियाँ खोल देने भर से
नहीं आ जाती धूप
खिड़की खुली भी होनी चाहिये
सिर्फ़ सूरज निकले होने भर से
नहीं आ जाती धूप
धूप लाई नहीं जा सकती
लेकिन रोकी जा सकती है धूप

Saturday, 16 January 2010

बड़ा हुआ तो क्या हुआ

दूर तक फ़ैली रेत
बियाबान बंजर भयावह
भीषण गर्म हवाओं के थपेड़े
आग उगलता सूरज
नामोनिशान तक नहीं बादलों का
सीधा लम्बा खड़ा खजूर का पेड़
छाया नहीं है पंथी को
और न ही फ़ल पास
लेकिन है अदम्य साहस
मुश्किलों मे डटे रहने का संकल्प
जो उनके पास कहाँ
इतराते हैं जो
अपनी फ़लदार शाखाओं
और छायादार पत्तियों पर

Friday, 15 January 2010

क्या लागे मेरा

एक होटल के कमरे में
एक सर्द सुबह बैठे बैठे
खिड़की के पार ज़रा दूर
दिखा भीख माँगता बूढ़ा
दिल पसीजा जी किया
दे दूँ ये कम्बल उसको
उठा ही था हाथ मे ले
कि खयाल आया अरे
ये तो मेरा है ही नहीं
न कम्बल न कमरा
लेकिन
वो कमरा जिसे घर कहते हैं
उसमे कम्बल
जिसे अपना समझते हैं
हे ईश्वर !
कब खयाल आयेगा कि
वो भी मेरा नहीं है !

Thursday, 14 January 2010

मकर संक्रान्ति

सर्दी बढ़ गई है
घर से लोग ज़रा कम निकलते हैं
और काफ़ी देर से भी
भगवान भास्कर को भी
लगता है
सुबह सुबह नहा धोकर तैयार होने मे
काफ़ी वक्त लग जाता है निकलते निकलते
कभी कभी तो वो पूरा दिन ही मार लेते हैं छुट्टी
कैज़ुअल लीव
गत सप्ताह तो लगता है
चले गये थे मेडिकल लीव पर
वापस आये तो ज़रा कमजोर थे
अच्छा लेकिन
कुछ लोग वाकई बहुत सख्त हैं
जल्दी से हुये तैयार और लग गये काम पे
ऐसी सर्दी मे भी
बिला नागा
न कोई कैज़ुअल न मेडिकल
कम्बलों और जैकेटों का भी
कम ही सहारा है जिनको
धूप के ही हैं भरोसे जादा
सो भी दगा दे देती है गाहे बगाहे
तमाम हैं ऐसे
जैसे मेरे घर की बाई
दफ़्तर के चपरासी
ईंटे ढोती औरतें
रिक्शा खींचते आदमी
कूड़ा बीनते बच्चे
इन्सान को चाहिये थोड़ी सहूलियत दे दे इनको
जैसे ज़रा देर से आने की मोहलत
कोई पुराना कम्बल
पानी गरम करने की सुविधा
बच्चों का पुराना स्वेटर
बचा हुआ खाना
लेकिन मै सोचूँ
कि जब भगवान ही दुबक जाते हैं
थोड़ी सी धूप देने में
इनको इस मौसम मे
तो इन्सान की आखिर बिसात ही क्या है

Wednesday, 13 January 2010

एक छोटा सवाल

देखो मुझसे पूछ के तो यहाँ भेजा नहीं गया
जाते समय भी नहीं पूछी जायेगी मेरी मर्ज़ी
यहाँ रहते भी अगर न हो मेरी मर्ज़ी का तो
मेरा सवाल है
फ़िर आखिर कहाँ हो कुछ भी मेरी मर्ज़ी से
किससे पूछूँ मै ये सवाल

Tuesday, 12 January 2010

अर्थ काम धर्म मोक्ष

किताबों और इम्तिहानों के
जंगल में उलझकर जब पहली बार
जीवन में कष्ट समझ मे आया
ये बताया गया कि
इसके पार परम सुख है
लेकिन उसके पार जब
जीविकोपार्जन और
अन्य युवा सुलभ आकांक्षाओं
की उहापोह के झमेलों में
फ़िर जान अटकी सी जान पड़ी
ये बताया गया कि
इसके पार परम सुख है
फ़िर एक बार झटका लगा
जब जीवन में अर्थ सिर्फ़ अर्थोपार्जन में दिखा
और काम हमेशा काम में रोड़ा रहा
अब सिवाय ये स्वयं मान लेने के
कोई चारा नहीं था कि
इसके पार परम सुख है
अर्थ का
जीवन अनर्थ कर देना
समझ नहीं आया कभी
ये भी न समझ आया कि
काम है एक दुश्पूर माँग
एक बिना पेंदे का बरतन
डाले रहो हमेशा जिसमे
खैर
परम सुख अब जब कि
जान पड़ता है केवल मृग मरीचिका
एक नया झमेला शुरु हुआ
धर्म का
और उसके नाम पर चल रहे
सब तरह के अधर्म का
अब लालच दिया जा रहा है
मोक्ष का
अब जब कि पक्का जान पड़ता है
कि परम सुख
एक परम कुटिल जालसाजी है
हम भी हो गये शिकार

Monday, 11 January 2010

ड्राइवर

बाहर ठण्ड है
सोया हूँ देर तक
देर तक सोया रह सकता हूँ
हो रहा है सब कुछ समय पर विधिवत
जैसे बच्चों का स्कूल जाना
उन्हे ले जायेगा मेरे जैसा ही एक इन्सान
जो सोया नहीं है देर तक
बाहर ठण्ड है फ़िर भी
सोया नहीं रह सकता है देर तक
शायद ये इन्सान उस वक्त सोया हो देर तक
जब मै नहीं सोया था
क्या कोई गणित होता है सोने के वक्त का
पता नहीं
लेकिन मुझे ठीक लग रहा है
इस वक्त देर तक सोना
और उसे शायद न ठीक लग रहा हो

Sunday, 10 January 2010

द्रष्टिकोण

मरी गाय को
कच्चे माल की तरह देखता है मोची
सम्भावित आमदनी की तरह देखता है पुजारी
भोजन की तरह देखेती हैं चीलें
बोझ की तरह देखते हैं सफ़ाईकर्मी
नुकसान की तरह देखता है ग्वाला
मुझे आँकते वक्त तुम देख सकते हो
मेरे जूते
मेरा चेहरा
मेरी पढ़ी हुई किताबें
मेरा पसन्दीदा भोजन
और भी बहुत कुछ
ये देखना तुम्हारे बाबत खबर देगा बहुत कुछ
मेरी तुम्हे शायद ही कोई खबर मिले

Saturday, 9 January 2010

सिकुड़न

ठण्ड सिकोड़ देती है बहुत कुछ
जैसे चादर
क्योंकि मेरे पाँव तो उतने ही लम्बे हैं
फ़िर भी बाहर हैं
लेकिन कुछ चीजें ठण्ड और गर्मी
दोनो मे ही सिकुड़ जाती हैं
जैसे दिल
क्योंकि ज्यादा लोग मर जाते हैं
जबकि घरों मे तो जगह उतनी ही रहती है

Friday, 8 January 2010

कोहरा

पर्यावरण प्रदूषण जन्य
वैश्विक वायुमण्डल तापवृद्धि प्रेरित
दिन भर बाहर छाया कोहरा
दिखता नहीं ठीक से
दिशा भटक जाते हैं
टकराते हैं
मंजिल तक पहुँचने मे बाधा है
अवश्यम्भावी है ये पूर्णतया छट जाये
कुछ सप्ताह उपरान्त
लेकिन
एक और कोहरा
जो छाया है यहाँ भीतर
सदियों से घेरा डाले
नही देखने देता ठीक से
दिशाभ्रम पैदा करता है
मंजिल तक पहुँचने मे बाधा है
अवश्यम्भावी है ये न छटे स्वयं
जन्मो तक भी

Thursday, 7 January 2010

तृष्णा

सुना है अन्त हर चीज का है
तो फ़िर क्यों नहीं
इन कमबख्त इच्छाओं का?
उफ़ ये नई इच्छा!

Wednesday, 6 January 2010

Judge Ye Not

पूरब को भागती हुई नदी
पश्चिम की ओर जाती नदी को देखकर
हैरान है
पक्का भरोसा है उसे कि
दूसरी नदी भटक गई है रास्ता
गलत है दिशा तो
कैसे पहुँच पायेगी मंजिल को
दुखी होती है
चिन्तन करती है
कारण समझने की करती है कोशिश
नतीजे निकालती है
किसी ने बरगला दिया होगा
हो सकता है कोई छुद्र स्वार्थ हो
बुजुर्गों ने सिखाया न हो सन्मार्ग पर चलना
मूर्ख हो न जान पाई हो सही राह
और अगर दूसरी नदी भी
पहली के बारे में
कुछ ऐसा ही सोचती हो
तो क्या आश्चर्य
सभी नदियाँ सोचती हैं ऐसा ही
किसी भी एक नदी की दिशा
ठीक ठीक किसी और जैसी नहीं होती
लेकिन सभी
बिना एक भी अपवाद के
पहुँच ही जाती हैं सागर तक

(2)
हम सब नदियाँ
छोटी बड़ी धीरे तेज छिछली गहरी
पा लेती हैं अपनी मंजिल
महासागर इस विराट का
दिशा दशा एवं अन्य सब विशेषण
सीमित संकुचित और अकिंचन हैं
हमारा जीवन और जीवन दर्शन भी
असीम विस्तृत और भव्य है
अस्तित्व !

Tuesday, 5 January 2010

कलियुग

इन्सान को चाहिये कि वह
माँ बाप से प्रेम करे
गुरु का करे सम्मान
दीन दुखियों की मदद
औरतों की इज्जत
बड़े बूढ़ों का आदर
ये सब सिखाया जायेगा
एक दिन
जब नहीं रह जायेगी सहज
इन्सानियत
कलियुग कहलायेगा वो दिन
घोर कलियुग !

Monday, 4 January 2010

बेटी बचाओ; किसलिए?

मेरी बच्ची!
तुम्हे खेलने जाने दूँ तो कैसे
जानता हूँ जरूरी है तुम्हारा खेलना
मगर ज्यादा जरूरी है तुम्हारी आबरू
ज्यादा जरूरी है कि तुम
इतनी नफ़रत से न भर जाओ
कि फ़िर जी ही न सको
मेरी बच्ची!
तुम्हे चाहिये शिक्षा
जानता हूँ मगर
आचार्यों और प्राचार्यों के
कुत्सित इरादों के समाचार
कँपा देते हैं छाती मेरी
मेरी बच्ची!
तुम मत पड़ना बीमार
नहीं कर सकूँगा भरोसा
चिकित्सकों की शक्ल में भेड़ियों पर
मेरी बच्ची!
नहीं तुम नहीं कर सकतीं अपना मनोरंजन
कोई सिनेमा नहीं तुम्हारे लिये
कहीं घूमना फ़िरना नहीं दोस्तों के संग
सड़कों पर तुम्हारी ताक में
लगाये हैं घात दोपाये जानवर
मेरी बच्ची!
मै आशंकित हूँ
इस तरह जीकर तुम आखिर
बनोगी क्या
करोगी क्या
कैसे कटेगी तुम्हारी ज़िन्दगी
कन्या भ्रूण हत्या अपराध है
जानता हूँ
अब लगता है अपराध
तुम्हे जीवन देना भी
मैं नहीं जानता कि
कौन सा अपराध ज्यादा बड़ा है
लेकिन हर हाल में
मै क्षमा प्रार्थी हूँ तुमसे
मेरी बच्ची!

Sunday, 3 January 2010

नानी के घर जाने वाली रेलगाड़ी

जल्दी सुबह उठ के पकड़नी होती थी वह गाड़ी
देर रात तक नींद उतरती ही नहीं थी आँखो मे
उत्साह उमंग और व्यग्रता न पूछो
रिक्शे वालों से माँ का मोलभाव सवेरे सवेरे
स्टेशन पर टिकट की लम्बी लाइनें
उस पैसेन्जर का बहुत बहुत लेट होते जाना
और फ़िर किसी देवदूत की तरह
आते इंजन की रोमांचकारी झलक
डब्बे मे जल्दी दौड़ के
लकड़ी के फ़ट्टों वाली सीटें घेर लेना
जितनी हो सकें
जो बाद में धीरे धीरे और चढ़ते मुसाफ़िर
ज़रा ज़रा करके हड़प कर जाने वाले होते
जगह जगह रुकती गाड़ी
धुँये के बादल उड़ाता इंजन
सीटी और चना जोर की आवाजें
पान चबाते यहाँ वहाँ बेवजह घूमते
हँसी ठट्ठा करते शोहदे
मूँगफ़ली चबाकर छिलके वहीं फ़ेंकते लोग
बार बार खाने को माँगते
बेवजह रोते चीखते बच्चे
फ़िर पीटे जाते
ऊपर की सीटों पर धँसे घुसे
बाज़ी बिछाये दहला पकड़ खेलते नौजवान
स्टेशनों के आस पास
लाइनों के किनारे की दिवारों पर
मर्दाना कमजोरी का शर्तिया इलाज
दाद खाज़ खुजली का मलहम
शौचालयों में पानी हो न हो
अश्लील भित्ति चित्र कलाकारी जरूर होती
ज़ंजीर खींच गाड़ी रोक अपने गाँव के पास
कूदकर भागते दस बारह लड़के
लौटते होते जो पास वाले कस्बे से
रेलवे भरती परीक्षा दे के
खाना वो पूड़ी आलू
दादी के आम के अचार के साथ
गजक लईया पट्टी और केले
कम कम पीना पानी
और फ़िर हर स्टेशन पर
बोतल फ़िर से भरने की कोशिश
अक्सर नाकाम होती हुई
देर शाम तक कई घन्टों
और बहुत थोड़े किलोमीटरों का
सफ़र हो ही जाता तय
धूल धुँये और कोयले के टुकड़ों से लथपथ
प्यासे और भूखे
थके और झोलों से लदे फ़ंदे
उमंग और खुशी से भरे ताजे ताजे से
पहुँच जाते नानी के घर
कहाँ वो शानदार और हसीन यात्रायें
और कहाँ ये
एअर कन्डीशन्ड मे बैठे ही उपलब्ध
वाटर बाटल टी काफ़ी लन्च और न जाने क्या क्या
सैकड़ों किलोमीटर का सफ़र
महज चन्द घन्टों मे तय करती
बोरिंग राजधानियाँ और शताब्दियाँ

Saturday, 2 January 2010

हम बंधे या भैंस

हम समझते थे कि बँधी है भैंस
टूटी रस्सी और भागी वो
फ़िर जब हम भागे उसके पीछे
पता चल गया कौन बँधा था

Friday, 1 January 2010

प्रार्थना

मै बाती सा जलकर भी
पथ दीप्त प्रभु कर पाऊँ
खींच उषा का आँचल मैं
नभ पर दिनकर ला पाऊँ

सुख आये या दुख आये
सम हो जीवन का स्वर
हो छाँव या कि धूप हो
बैठूँ नहीं थक हार कर

टूटती हो तार वीणा की
मगर न कभी लय टूटे
छूटते हों राग जीवन के
मगर न कभी आशा छूटे

घृणा द्वेष से दूर रहूँ मै
गीत प्रेम के गा पाऊँ
कुचला जाता भी यदि हूँ
गन्ध पुष्प सी बिखराऊँ

मै बाती सा जलकर भी
पथ दीप्त प्रभु कर पाऊँ
खींच उषा का आँचल मैं
नभ पर दिनकर ला पाऊँ


नव वर्ष पर असीम मंगल कामनाएं !