Thursday 13 November, 2008

अपने अपने सुकून

भूख और नींद की जद्दोजहद में पड़ा
वो छोटा लड़का सोच रहा था,
(उस वक्त जब पास ही उसकी माँ
एक और छोटे बच्चे को
सूखी छाती से लगाये
किसी फ़िक्र मे नहीं थी
शायद समझॊता कर लिया था
जो है जैसा है उससे)
कि देर हुई और बड़ी बहन नहीं आई।
और अगर रात भर नहीं आई
तो सुबह खाने को ज़रूर मिलेगा
थोड़ा सुकून दे गया ये खयाल।
उसे खयाल भी नहीं हो सकता कि
पुलिस आजकल सख़्त है
और रोज़ छापे पड़ रहे हैं।
समाज की सोच सोच के
सेहत ख़राब सी किये हुये,
(जब डाक्टर ने वजन कम करने की
सख़्त हिदायत दे डाली है)
वे परेशान थे कि
अनाचार की बन आई है
हर ओर है भ्रष्टाचार
पुलिस प्रशासन कुछ नहीं करते
चलो इसको मुद्दा बनायें इस बार
थोड़ा सुकून दे गया ये खयाल।

नदिया चले....

उफ़नती गरज़ती
हौले से कभी तेज़
इधर मुड़कर उधर मुड़कर
पहाड़ों से मैदानों में
दॊड़ती हुइ सागर को
एक नदी
अचानक रोक दी गई
एक बड़ा बाँध
अब!
ये नदी
भर देगी खुद से यहाँ
एक विशाल खूबसूरत सरोवर
इससे मिलेगा खेतों को
ज़रूरत भर पानी जो भरेंगे पेट
मिलेगी बिज़ली मिटेंगे अँधेरे
वैसे नही तो ऐसे
पा लेगी अपना मुकाम।
ये नदी दिखा देगी
सदियों से चले आ रहे
अबाधित दौड़कर
सागर से एक हो जाने के रिवाज़ के अलावा भी
कुछ और भी हश्र हो सकता है
और शायद बेहतर।

Saturday 8 November, 2008

क्या हो गया

आते जाते आवारा बादल चलने को आवाज़ लगाते
उठें मगर जायें कहाँ शहर अँधेरा घर खाली है
कितना खाली कितना सूना हर मन का घर आँगन
कैसे कोई फ़ूल खिले रूखी सूखी हर डाली है

यह मेरा है वह मेरा है इसी भरम मे व्यर्थ जिये
अब सब जब भेद खुला तो बची कोई भी साँस नहीं है
खोलें मुट्ठी या बन्द करें खाली हाथ सदा खाली हैं
तृप्ति मिलेगी इस जीवन मे ऐसी कोई आस नही है

जाने कितने अरमानो से चलने की तैयारी की
जाने को उस पार खड़े कागज़ की भी नाव नहीं है
एक झरोखा सूरज लाये गिरी दिवारें तूफ़ानो को
कहाँ ठौर है तन को अब मन को भी तो ठांव नहीं है

मूरत में वो उतरा तो है होश किसे और समय कहाँ
देवालय में लोग सो रहे क्या हो गया मकानो को
प्रेम नही है दया नही है तेरे मेरे में सब उलझे हैं
घर घर में व्यापार हो रहा क्या हो गया दुकानो को

अरे अरे मे बीते जाते अहा अहा के सारे पल छिन
कितने सपने रोज़ बिखरते अब होश में आना होगा
कैसे पाए कोइ उसको उसका कोई गाँव नहीं है
बाहर बाहर भटक लिये अब अपने भीतर आना होगा

Friday 7 November, 2008

वह आता है

सूखे पत्तों की तरह
ना कि जमीन के सीने को
जकड़े हुए जड़ों जैसे
मिलो उसे
तो उड़ा लिये जाओ
जब वह आता है
मन्द् हवाओं में।

धूल के नन्हें कणो जैसे
ना कि सिर्फ़ पड़े हुए
भारी पत्थर की तरह
मिलो उसे
तो बहा लिये जाओ
जब वह आता है
बर्खा फ़ुहारों में।

पानी भर हो रहो
तो ले जाये उड़ाकर
जब वो आग में आये
मस्ती में भर रहो
तो सराबोर कर दे
जब वो फ़ाग मे आये।

वो आता है तो यूँ
कि फ़ूलों मे सुवास आये
कि दिन मे रोशनी आये
कि तारों भरी अमावस
कि बाग मे मधुमास आये
या कि यूँ
कोई नन्हा बच्चा
खिलखिला के हँस दे बेवजह।

रात कहीं दूर वीराने में
अपने प्रियतम को
पपीहा आवाज लगाये।

वो आता है
और कभी शोर में
कभी सन्नाटे में
कभी धीरे से
और कभी तेज।

तुम बस तैयार मिलो और
वो पार करा दे।
इसके सिवा कोई चारा नहीं है
और कभी नहीं रहा।

Thursday 6 November, 2008

एक दिया छोटा सा

कहते हैं कि वेदों में ब्रह्म को परिभाषित करने वाले चार महावाक्य हैं यानि सत्य के शुद्धतम वक्तव्य। एक है "अहम् ब्रह्मास्मि", जो कि जगत विख्यात है। सामवेद के छान्दोग्य उपनिषद में ऐसा ही एक और महावाक्य है "तत्वमसि"। इसका हिन्दी अनुवाद है - "तू वह है" ।

तो... मैं ब्रह्म हूँ , तू ब्रह्म है। यह ब्रह्म है, वह ब्रह्म है। मैं और तू, यह और वह, सब एक है - और सब ब्रह्म है। यहाँ उसके सिवा और कुछ है ही नहीं, कुछ और होने का उपाय ही नहीं है। मजा ये है कि ब्रह्म को ही नहीं पता कि वह ब्रह्म है। मुझे लगता है कि कि ये जान लेना कि यहाँ सब ब्रह्म है, बहुत सुकून की बात होगी। लेकिन मान लेने से बचना होगा। और बहुत कोशिश करनी होगी क्योंकि ये मान लेने का मन तो बहुत करता है।

जाना गया है या कि माना गया, इसकी कसौटी क्या है? मै समझता हूँ कि सुकून कसौटी है। यानि अगर जीवन में सुकून हो तो ही समझना होगा कि जान लिया गया है।

मेरी प्रार्थना है इस अस्तित्व से कि सब के जीवन में सुकून हो। मेरा विश्वास है कि ये हो सकता है क्योंकि मै अस्तित्व के प्रति पूर्ण आश्वस्त हूँ और ब्रह्म में श्रद्धा रखता हूँ।