Wednesday 30 June, 2010

सरल उपाय आरोग्य प्राप्ति के

सख्त हिदायत देते हुये बोले डाक्टर साहब
दाल चावल अब कम खाया करो
लौकी तरोई तो बिल्कुल बन्द
दलिया वगैरा का बहुत मन करे
तो कभी महीने में एक आध बार बस
मूँग की खिचड़ी तो छूना भी मत
और हाँ ये सुबह उठकर मुँह अंधेरे
क्यों जाते हो घूमने भला
बिस्तर पे ही रहा करो जादा
या फ़िर टीवी देखा करो
जिम की तरफ़ तो झाँकना भी मत
सेहत आपकी ठीक नहीं है
बहुत ध्यान रखना होगा
एक तो रोज सवेरे आलू भरे परांठे खाईये
पाव भर मक्खन लगा के
दो चार बार हफ़्ते मे सुबह सुबह
गरमा गरम पकौड़े
दिन मे छह सात बार कुछ न कुछ
सेहतमन्द लिया कीजिये जैसे कि
समोसा छोले भठूरे कचौड़ी
और आजकल तो विदेशी आईटम भी
बड़ा अच्छा उपलब्ध है जैसे कि
बर्गर पीज़ा चाकलेट
और हाँ कोक के बिना नहीं
और जो लोग धार्मिक हैं कट्टर
गोश्त खायें देशी घी मे पका के
कम से कम एक बार रोज़
साथ मे चार पांच पैग लें
तो और भी अच्छा
सोने पे सुहागा समझिये
दारू गोश्त और घी
रामबाण है जैसे सेहत के लिये
सिगरेट बीड़ी इत्यादि पीते हों तो क्या बात है
सेवन कीजिये जी भर के
मेहनत कतई बन्द कर दीजिये
भगवान भली करेंगे

Monday 28 June, 2010

कहा तो ऐसा ही गया

टिप टिप होती रही रात भर बारिश
भीगते रहे विश्वास सलीबों पर टंगे
सूख जायें तो बनाई जाये नाव
निकलेंगे दिया लेकर
अंधेरा ढूँढने
दोनो हाथ फ़ैलाये लकड़ी के बुत
ठिठुरती ठंड में जीने की दुआ माँगते रहेंगे
आशायें हारा नहीं करेंगी
प्यास और आग का एक सा हश्र
नियति के हाथों का खिलौना ही रहेगा
झुन्झुने बच्चों से बढ़के
आगे भी बना चुकेंगे अपनी पैठ
पत्थरों के कैन्वस पर आगे भी
उकेरे जायेंगे प्रेम के चित्र
द्रवित हुये इन्सान
जीवन की भाग दौड़ में
हाथों मे लिये रहेंगे पत्थर
सर पर उठाये रहेंगे पत्थर
पाँव मे बांधे रहेंगे पत्थर
सीने में दबाये रहेंगे पत्थर
आँखों को बनाये रहेंगे पत्थर
और समझा करेंगें कि
पत्थर नहीं हैं वे
पाषाण युग अब इतिहास है
कहा तो ऐसा ही गया

Monday 14 June, 2010

गुबार

चलो माना कि धुंआ छटेगा
सूरज फ़िर से निकलेगा
फ़िर दिखने लगेगा साफ़ साफ़
लेकिन ये बात तो तुम
आँखवालों से ही कहोगे न !

Friday 11 June, 2010

बेहतर

जंग लगी पुरानी घिसी हुई
लोहे की जंजीरों मे जकड़े हुये
सड़ते गलीज इन्सानों
इधर देखो
ये नई चमकदार
सोने की हथकड़ियाँ और बेड़ियाँ

Saturday 5 June, 2010

गीता सार

यहीं था यहीं हूँ अब यहाँ से किधर जाऊँगा

घुल जायेगा मचलती हवाओं मे कुछ मेरा
थोड़ा माटी मे मिलेगा अन्न उपजाने को
हो रहूँगा सुर्ख लाल रंग किसी ओढ़नी मे
बेला की मदमस्त खुशबू मे बिखर जाऊँगा

रसीले आम में मीठा एक हिस्सा मेरा बनेगा
कुछ लहरायेगा गेंहू की सुनहरी बालियों मे
सूर्य की पहली किरन बन इठलाऊँगा लहरों पर
पूस मे दोपहर की धूप बन पसर जाऊँगा

किन्ही मासूम आँखों से झाँकेगा हिस्सा मेरा
एक दिये की झिलमिलाती लौ में काँपा करूँगा
उस बंजर पहाड़ी के नुकीले पत्थर में छूना मुझे
किसी होठ पर ढलकती बूँद बन सिहर जाऊँगा

किसी मन्दिर की आरती हो गूँजा करूँगा
नन्हे बच्चे की करधनी का एक धागा बनूँगा
राग होकर गले से किसी के करूँगा मुग्ध
गहरी उदासी बन कभी आँसू मे उतर जाऊँगा

यहीं था यहीं हूँ अब यहाँ से किधर जाऊँगा