Thursday 25 April, 2013

क्या लगती है तुम्हारी

देख पसीना आ जाता है 
सांस गरम हो जाती है 
चुँधिया जाती है आँखें 
गर्दन नीचे झुक जाती है 
गाल लाल हो जाते हैं  
धड़कन थोड़ी बढ़ जाती है 
गला सूखने लगता है 
तबीयत जरा मचलती है 
छेड़ हवा ने मुझसे पूछा 
धूप तुम्हारी क्या लगती है 

Tuesday 16 April, 2013

स्याही और खून

डूबती आशाओं को बेधती 
सन्नाटों की छुरियाँ 
छवियों से पूर्णतया रिक्त 
आसमान और आँखें 
अपनी ही छाया में विश्राम को उत्सुक 
संघर्ष रत एक ठूंठ 
काटने को दौड़ते एकांत में 
प्रतिबिम्ब देखने को तरसता दर्पण 
निद्रा से बोझिल पलकें लिए 
अँधेरों की तलाश में व्यस्त सूरज.....................
...............अद्भुत बिम्बों और मुहावरों 
की खोज में गोते लगाता 
रचना की प्रसव पीड़ा में 
शब्द जाल बुनता 
बंद पलकों और खुले प्रज्ञा चक्षुओं से 
पंक्तियाँ पकाता 
वो जो कवि कहलाता है भीतर 
जब भी कभी खोलेगा आँखें 
खोलेगा यदि कभी तो 
अफ़सोस करेगा शायद 
कि उसके हाथ में कलम की जगह 
तलवार क्यों नहीं है