Thursday 31 December, 2009

प्राकृतिक

सूखे टूटे असहाय पत्तों को
शोर करके
यहाँ वहाँ उड़ाती उठाती गिराती
पतझड़ की हवायें
नंगे खड़े रहने को मजबूर पेड़
लुटे हुये नुचे हुये से
जेठ की दुपहरी में
उत्पात मचाता जलाता सूरज
प्यासे मरते इन्सान और जानवर
सूखते पेड़ पौधे
जलके राख होते वन बाग जंगल
भयानक बारिश से अस्त व्यस्त
नदी किनारे के गाँव में
बरस बरस कर नरक पैदा करते
आषाढ़ के बादल
छप्परों को उड़ाकर दूर दूर
फ़ेंकती आँधियाँ
मवेशियों को बहा ले जाती
इन्सानों को जिन्दा डुबोती
उफ़न कर बढ़ी हुई नदी
तभी सोचूँ मैं
लूटना जलाना डुबोना नोचना
बरबाद कर देना
ये सब हमें आता है
बड़ा नेचुरली.

Wednesday 30 December, 2009

चिंतन

मै एक चिन्तक हूँ
बड़ा चिन्तक
जीवन की
बड़ी बड़ी बातों
समस्याओं और रहस्यों पर
विचार करने का है जिम्मा
मुझे करनी होती हैं
बड़ी संगोष्ठियाँ
पी डालता हूँ दो किताब भर
उलट देता हूँ चार किताब भर
गाहे बगाहे
मार देता हूँ बड़े बड़े जुमले
वक्त बेवक्त
क्या करना मुझे
अगर
कुपोषित हैं बच्चे
अशिक्षित हैं लोग
कोई मतलब नहीं मुझे
अगर सुरक्षित नहीं हैं औरतें
क्या करूँ मै
अगर भूखों मरते हैं किसान
बिना इलाज के दम तोड़ते
गरीब लाचार अपाहिज बूढे
ये समाज के चिथड़े और कोढ़
कीड़ों की तरह नालियों में
जीते रहने को अभिशापित
इस तरफ़ को देखना हो
तो कुछ करना पड़ेगा
बहुत कुछ करना पड़ेगा
इसीलिये
मै एक बड़ा चिन्तक हूँ

Tuesday 29 December, 2009

हमारा इतिहास

दूध की नदियाँ बहती थीं
हमारे देश में
बह गया सारा का सारा
नहीं बचा अब के बच्चों के लिये
सोना चिड़ियों की शक्ल में
बसेरा करता था डाल डाल पर
हुआ सवेरा
उड़ गईं चिड़ियाँ
ठन ठन गोपाल
कहीं नहीं हुये
इतने अवतरण भगवानों के
जितने इस पुण्य भूमि पर
पता चलता है इससे कि
सबसे ज्यादा यहीं रहे होंगे पापी
क्योंकि जहाँ बीमार हों अधिक
वहीं होने चाहिये चिकित्सक
कहा जाता रहा है
कोई साधारण इन्सान नहीं हैं हम
हम तो सन्तान हैं
ऋषि मुनियों और देवताओं की
जरूर कुछ वंशज होंगे
दुर्वासा ऋषि के
शान समझते हैं
बात बात पे गाली देने मे
परशुराम जी के जो
नहीं घबराते
ज़रा सी बात पे कत्ले आम करने मे
कुछ इन्द्र देव के भी रहे होगें
चलने दो सोमरस
होने दो नंग नाच
रास विलास अक्षत यौवनाओं के साथ
इस पर भी न भरे मन
छलो किसी भी अहिल्या को
मुँह अँधेरे ब्रह्म मुहुर्त में
और फ़िर तमाम होंगे सुपुत्र
ऋषि गौतम के
जो इन्द्र का तो न बिगाड़ पायेंगे कुछ
बना के छोड़ देंगें पत्थर कुलटा कुलच्छिनी
अपनी बेचारी घरवाली को ही
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते........
बकवास है ये सब
हम अपने जिस इतिहास पर
फ़ूले नहीं समाते
भरा पडा है वो
औरतों के अनादर से तिरस्कार से
समाज के कमजोर लोगों की प्रताड़ना से
अपने को ऊँचा कहने वालों की धूर्तताओं से
ये जुआ खेलते राजे महाराजे
कई कई पति वाली औरतें
आदमियों की अनेक पत्नियाँ
बड़े बूढों के सामने खुली सभा में
लज्जित की जाती अपने ही घर की वधुयें
भीषण युद्धों में सर्वनाश करते हुये भाई भाई
ये सब है इतिहास इसी पुण्यभूमि का
जहाँ देवता भी जन्म लेने को तरसते हैं

Monday 28 December, 2009

अन्नदाताओं से

उठो चलो
आग लगानी है
अपने ही खलिहानो मे
खून को पसीना किया हमने
जानता हूँ
मगर ज़रा सोचो
कि हमें तो मरना है भूखों ही
फ़िर क्यों ये पवित्र अन्न
उनका पेट भरे जो
कल जलायेंगें हमारे ही झोंपड़े
बनाने को आलीशान महल
मौत की ओर धकेलेंगे हमारी बेटियाँ
अपने विलास के लिये
बरबाद कर देगें हमारी नदियाँ सागर
अपने ऐशोआराम में
नहीं छोड़ेंगे हमारे लिये
साफ़ हवायें सुरक्षित वन
उठो चलो
जल्दी करो
देर हो चुकी है पहले ही
पालने बन रहें हैं कब्र
और कब तक करें सब्र

Sunday 27 December, 2009

दंभ

उमस गर्मी और अन्धकार
फ़िर टूट जाना
पता नहीं
बीज के लिये ये क्या है
आशा या मजबूरी
फ़ल फ़ूल और छाया
साँस लेने को हवा
पता नहीं
हमारे लिये ये क्या है
अधिकार या पुरस्कार
जो भी हो
नियति है यही
मेरी समझ में
ये कोई गौरव नहीं है बीज का
बीज इसका दम्भ भी नहीं करता
चुपचाप मिट रहता है बेआवाज़
एक हम इन्सान
जो इसी प्रकृति का
हिस्सा हैं अदना सा
जो श्रेष्ठतर समझते हैं स्वयं को
और तमाम जीवों में
किसी को अगर
कचरा भी दें अपना
तो मचाते हैं कितना शोर
नहीं है हमारे दम्भ का
कोई ओर छोर

Saturday 26 December, 2009

अन्धानुकरण

गुलाब गुलाब है
और जुही जुही
जुही होना चाहे गुलाब यदि
तो पड़ेगी मुश्किल मे
और गुलाब तो खैर हो न पायेगी
यकीनन नही चाहती
कोई चम्पा
किसी जुही या गुलाब के जैसा होना
और क्या पड़ी है किसी गुलाब को
जो वो रजनीगन्धा होने के ख्वाब देखे
कमल खुश है कीचड़ मे ही
गुलाब को नहीं है शिकायत काटों से
काँटे इतराते नहीं
फ़ूलों का साथ होने से
हम जो हैं
वही होने को हैं
अनुकरण मात्र ही
अन्धानुकरण है
लाख हो आसान
कोई बनी बनाई राह
ले न जा सकेगी मंजिल तक
कभी न ले गई किसी को
राह खुद अपनी बनानी है हमें
साफ़ कर झाड़ियां काटें पगडन्डियों के
तोड़ने हैं पत्थर खुद ही
बिछानी है रोड़ियाँ
फ़िर इस सड़क पर है चलना हमें
और फ़िर मुमकिन है कि
पहुँच सकें वहाँ
स्वयं मे
स्वयं के होके जीना ही
सफ़लता है मंजिल है
बस यही कि स्वयं की पूर्णता में
हम फ़लें फ़ूलें
स्वीकार करके जो हैं जैसे हैं
स्वयं के शिखर छूलें
बुलन्दी है यही
ज़िन्दगी है यही

Friday 25 December, 2009

प्रभु पुत्र को, शर्म से!

हे ईश्वर पुत्र
मेरे भाई
कभी कभी लगता है
तुमने व्यर्थ जान गँवाई
प्रेम की खातिर
और हमारे प्रेम में
तुमने सलीब पर टाँग दी
अपनी गर्दन
हम निरे लंपट
अपनी गर्दनो में
सलीब लटकाये घूमते हैं
पूरी दुनिया में फ़ैलाने को
तुम्हारा प्रेम संदेश
जबरन कितनी बर्बरता से
निरीहों की
गर्दने उतारते हैं
दो हज़ार साल से
हम यही करते आये हैं
और आगे भी यही करेंगे
देखकर ऐसी क्रूरता
कभी न कभी जरूर
तुम और तुम्हारे पिता
शर्म से डूब मरेंगे

Thursday 24 December, 2009

सिगरेट पीती हुई औरत

सिगरेट पीती हुई औरत
भाप से चलने वाले
इंजन की याद दिलाती है
एक बारगी लगता है कि
वो नेतृत्व कर रही है
चूल्हे का धुँआ भी
याद मे आता है
चिता का भी
जिसमें वो रोज़ जलती है
गीली लकड़ी की तरह
शायद वो देखना चाहती है
उस धुँये को जो अपने भीतर
कहीं महसूस करती होगी
मै चाहता हूँ कि
ठीक से देख ले वो
क्योंकि ठीक से देख लेना
समस्याओं को
उनके समाधान की दिशा में
सर्वाधिक आवश्यक कदम है
लेकिन चूँकि ये एक
कदम मात्र ही है
मै ये भी चाहता हूँ कि
वो सिर्फ़ देखती ही न रह जाये

Wednesday 23 December, 2009

संघर्ष

मान लिया गया
कि मेरा देश महान है
मेरी भाषा महान है
मेरा धर्म महान है
और ऐसा मान लिया गया
हर जगह दुनिया में
मान लिया जाये
कि अपने देश धर्म और भाषा के लिये
कुछ भी कर गुजरना
जिसमे लड़ मरना भी शामिल है
हर व्यक्ति का कर्तव्य हो
और ऐसा मान लिया जाये
हर जगह दुनिया में
फ़िर जो हुआ
हो रहा है
और होते रहने की आशंका भी है
उसे भी क्या
एक वॄहद समय चक्र में
इन्सानियत मान लिया जायेगा ?

Monday 21 December, 2009

अँधेरे की ओर ले चलो प्रभु!

यहाँ से गुजरती ये सड़क
कहाँ मिल जाती है बादलों में
या चुक जाती है
दूर खड़ी उन इमारतों मे से किसी मे
कुछ पता नहीं चलता अँधेरे में
हरे और पीले पत्ते
दिखाई देते हैं एक से
पता नहीं चलता कि
वो सो गया है भरे पेट
या कि पीठ से लगाये पसलियों को
दोस्त और दुश्मन
अमीर और गरीब
कोई भेद नहीं
समा गईं है सब बनावटे
एक दूसरे में
मिट गईं हैं सीमायें
सुन्दर और कुरूप सब एक
जी भर के नज़ारा कर लें आओ
इस खास मंज़र का
इससे पहले कि रोशनी हो और
लौट चलें हम फ़िर
भेदभाव भरी दुनिया में
उजाले की दुनिया में

Sunday 20 December, 2009

मेरी रामायण

एक किताब है
जो सिर्फ़ एक बार पढ़ी जाती है
जैसे कोई जासूसी उपन्यास
और फ़िर एक है जो
बार बार पढ़ते हैं जैसे
रामायण
दिखने मे हो जाती है
जरूर फ़टी पुरानी सी
और ज्यादा सावधानी से
रखते हैं
पढ़ते हैं
सीता के वनवास से शायद
उसकी उम्र का कोई वास्ता न रहा होगा
जानता हूँ किस्सा अहिल्या का
और उसकी उम्र भर की तकलीफ़
हमारे प्यारे बाबा ने
न जाने कौन सी पीनक में
ढोल के साथ खड़ा कर दिया था तुम्हें
तुम्हे जरूर डराते भी होंगे ये किस्से
तुम कुछ भी समझ लो
अब उम्र के इस पड़ाव पर
देखो चाहे जितनी बार
अपने कानो के पास के बालों की चाँदनी
तुम हो मेरी रामायण ही
पढ़ी जाने लायक बार बार
सम्मान से आदर से
माथे पर लगाकर हर बार

Saturday 19 December, 2009

मेरा मै

मैं !
लगाते थे
चक्कर जिसके
चाँद और सूरज
जिसको सुलाने
आती थीं
चाँदनी रातें
जिसके लिए
बहती थीं नदियाँ
गिरते थे झरने
उगते थे पेड़
खिलते थे फूल
गातें थे पंछी
बहती थीं हवाएं
लगते थे मेले
सुख देने को
दुःख देने को
और
कुछ न लेने-देने को
लगे रहते थे लोग
अब जब
सिर्फ़ एक मुट्ठी खाक हूँ
कहूँ तुमसे
कि क्या है हक़ीकत
तो क्यों कहूँ
कैसे कहूँ
देख सको
तो देख लो खुद

Friday 18 December, 2009

तुझसे लागी लगन

रहस्यों को खा रहा हूँ
मै आजकल
पी डालता हूँ आशंकाओं को
पहन के घूमता हूँ सपने
बिछा के लेट रहता हूँ यथार्थ
पहाड़ उठा के फ़ेक दिया है
अनिश्चितता का
छाती से
घूम के आया हूँ सारा आकाश
लगा के पंख संभावनाओं के
संवेदना की तलवार भाँजता हूँ
विडम्बनाओं की लोभनीय
तस्वीरें उतारता हूँ
सुहावनी अनुभूतियों की
ललकार पे खड़ा हो जाता हूँ
अन्तरतम की वास्तविकता पर
तैल चित्र बनाता हूँ
कभी कभार
मुझे तुमसे काटता है
व्यापक मौन
दोनो टुकड़ों में दिखता नहीं
मै कौन तुम कौन
इसी गड्डमड्ड में
अब आया चैन

Thursday 17 December, 2009

स्त्री

तुम स्वतन्त्र होगे
क्या तब जब
आदमी कहेगा ये तुमसे?
तो फ़िर तुम क्यों देखती हो
आदमी की ओर ही
स्वतन्त्रता के खयाल पर?
क्यों चाहती हो
उसकी स्वीकृति?
क्यों बनना और करना चाहती हो
उसके जैसा ही?
क्यों नहीं सोच पाती
अपने जैसा बनने का
अपने जैसा जीने का?
अपने सहारे चलने पर
क्यों कदम कदम पर
होती है घबराहट?
तुम्हे साथ चाहिये किसी का ठीक
पर सहारा क्यों?
स्वयं को तुम्हे
नहीं सिद्ध करना है
किसी और को
नहीं जरूरत है तुम्हे
बागी बनने की भी
अपने स्त्रीत्व के दम पर
अपनी पहचान बुलन्द करो
स्वच्छंद नहीं
स्वतन्त्र बनो
होंगी मजबूरियाँ
मगर खूबियाँ भी हैं तुममे
सम्मान समर्पण दया करुणा ममता स्नेह
कमजोरियाँ नहीं हैं तुम्हारी
हथियार हैं
लिखो अपना भाग्य स्वयं
फ़ैसले स्वयं करो अपने
परतन्त्र रहना है तो भी.
और फ़िर कैसी परतन्त्रता!

Wednesday 16 December, 2009

ढाई आखर ज़िस्म का

ये उतार चढाव
ये गोलाइयाँ
जो बनाती हैं तुम्हे
सबकी चाहत
तुम न चाहोगे फ़िर भी
ये तुम्हारा दुश्मन वक्त
खींच देगा कुछ सीधी तिरछी लकीरें
कुछ पिचका देगा ज्यादा
कहीं कहीं उभार देगा कुछ और ज्यादा
पतझड़ भी तो आखिर आता ही है
कब तक रहेगा बसन्त
नदी सूख के पतली हो रहेगी कभी
हरे भरे जंगल बियाबान हो जायेंगे
सामने जाने का भी न करेगा मन उसके
जिस आइने के सामने से
हटने का नहीं करता है जी आजकल
बहुत हो चुका भूगोल से प्रेम
इतिहास से भी कुछ सीखो
ज़रा गणित लगाओ
अर्थशास्त्र की मदद लो
वक्त का मूल्य समझो
ज़िस्म का छोड़कर ढाई अक्षर
प्रेम का पढ़ना शुरु करो

Tuesday 15 December, 2009

अप्प दीपो भव

न कोई दुख देने को है
और न ही कोई सुख देने को
तुम जो चाहो
स्वयं चुन लो
सब पड़ा है
यहाँ सामने तुम्हारे
चुनाव सिर्फ़ तुम्हारा है
मगर चुनाव तुम जिस अक्ल से करोगे
वो भी तुम्हारी ही है
यही विडम्बना है
मैने देखा है
तुम्हें काटें चुनते हुये
हमेशा से यहाँ
मैने देखा है कि तुम
चुनाव करते आये हो
गहरी घाटियों का
तुमने चुने हैं अँधेरे सदा
और फ़िर मैने देखा है
तुम्हे रोते हुये जब
काँटे चुभते हैं
जब सड़ते हो गहराईयों में
जब टकराते हो पत्थरों से
प्रकाश के अभाव में
अचरज हुआ है ये सब देख के मुझे भी
सोचता रहा हूँ भला बात क्या है
मैने जाना है कि
उचित चुनाव के लिये
जरूरत होती है
स्वयं के विवेक की
अपना दिया जला लो
जैसा भगवान बुद्ध ने कहा
अप्प दीपो भव

Monday 14 December, 2009

हकीकत

लगता है ये सिर्फ़ मेरा खयाल ही है
कि तुम्हारे दिवास्वप्नो तक है मेरी पहुँच!
कि कल मिल जायेगा वह सब कुछ
अनगिनत कल बीत गये जिसकी तमन्ना में!
कि हद से बढ़कर दवा बनता है दर्द!
कि ये दुनिया सिर्फ़ गम ही गम नही है मज़ाज़ का!
अगर ये तय हो जाये कि ये मेरा खयाल ही है
तो भी क्या!
फ़िर फ़ूटेंगें नई तमन्नाओं के अंकुर
मेरे खयालों में.
ऐसा ही हुआ है
युगों युगों से आज तक
जब से मै हूँ.
खयालों के कल आज और कल
खयालों के सुख दुख
खयालों में लेन देन
खयालों की सुबहें शामें रातें
खयालों के रिश्ते
उफ़ ये ज़िन्दगी है भी
या महज़ खयाल है!
मैं सोचता हूँ कि
पा जाउँगा एक राह कभी
जो ले जायेगी मुझे
एक हकीकत की नदी तक
जिसमे मै सारे खयालों को डुबो दूँ
हे भगवान!
यह भी महज़ एक खयाल ही न निकले!!

Friday 11 December, 2009

आज़ादी

वह करती आई थी
चौका बरतन
खाना बनाना
कपड़े धोना
साफ़ सफ़ाई
किसी ने उसे बता दिया एक दिन
कि वह कैद है
उसने कर दिया एलान
अपनी आज़ादी का
पर अब करे क्या
किसी ने दिखा दिया
उसे बाहर का रास्ता
अब वह काम करती है
पैसे कमाती है
और हाँ
साथ मे करती है
चौका बरतन
खाना बनाना
कपड़े धोना
साफ़ सफ़ाई

Thursday 10 December, 2009

अनुभव

कोई परेशानी है तो सिर्फ़ ये
कि अभी अनुभव ही नहीं किया तुम्हारा
छू लूँगा तुम्हे कभी
दबा के हाथ छेड़ूँगा
उफ़ कैसी होगी तुम छूने में
महक तो तुम्हारे बालों की
पागल कर देती है अक्सर
तुम्हारी कमर पकड़ के उठाया था बेन्च से
तो सिहर गया था मैं
तुम्हारी गहरी आँखे
तुम्हारी इतनी प्यारी बातें
और क्या चाहिये होगा मुझे
फ़िल्म देखते समय अँधेरे में सोचता हूँ
एक ही कमरे मे जब अँधेरा होगा
तो पूरी रात भी यकीनन कम पड़ेगी
मै नहीं जानता था
कि मुझे नहीं अच्छा लगेगा
लिप्स्टिक का स्वाद
मुझे ये भी कहाँ पता था
कि तुम्हारे कान की बाली
मेरी पीठ के नीचे दबी मिलेगी
कुछ बातें सचमुच अनुभव की ही होती हैं
अब ये तो स्वप्न मे नहीं सोच सकता था
कि तुम पास मे होगी और
मै तुम्हारी ओर पीठ करके सो रहा होऊँगा
तुम मुझे अच्छी बहुत लगती हो
पर मैं सोते वक्त नहीं चाहता कि
किसी का हाथ मेरे ऊपर हो
वैसे अगर दो चार रोज़ मे ही
वैक्सिंग के बाद चुभने लगते हैं बाल
तो क्या तुम थोड़ा जल्दी जल्दी
कर सकती हो वैक्सिंग
हाँ देखता हूँ कि
इससे स्किन पर होता है कुछ
चलो छोड़ो
अनुभव भी न
कितने भरम खोल देता है अक्सर
अब जैसे मैने अपने सभी दोस्तों से
कहा था कई बार कि
तुम्हारे बाल नेचुरली कर्ली हैं
मै चाहता हूँ कि अब अगर कभी
रात सोने मे देर हो जाये
तो हम लोग सो ही जाया करें
क्या रोज़ रोज़...
आफ़िस के लिये उठना भी होता है
वाह रे अनुभव
अभी तो सिर्फ़ कुछ महीने ही हुये हैं
अभी तो बच्चे होंगे
फ़िर
उनकी देख रेख में तुम शायद
अपने बालों को
ऐसा ना भी रख सको
और कुछ समय बाद तो
स्किन धीली सी भी हो जायेगी न
अनुभव
कभी कभी न भी हो तो कोई बात नहीं
कुछ मिठास कुछ छ्टपटाहट बनी ही रहे
कुछ अनुभव की तमन्ना ही रहे तो भी
बुरी बात नहीं शायद
अब ये कोई नई परेशानी पल रही है शायद
निजात नहीं परेशानियों से
और न ही अनुभव से

Wednesday 9 December, 2009

पाणिग्रहण

माँगा ज़िस्म
और उसने दिया
एक जोरदार हाथ
नफ़रत से
माँगा हाथ
उसने प्यार से
दिया ज़िस्म.

Saturday 5 December, 2009

कृष्णहठ

गलत है चाह और और की
सब मुझे ही मिल जाये तो
और क्या करें
औरों का भी होना है कुछ
समझता तो हूँ मगर
दिल जब कृष्णहठ पर उतर आये
माँगे चाँद
तो क्या उसे
पानी का थाल दे दूँ

Friday 4 December, 2009

बच्चे

उसके झोपड़े में
गहराती हुई रात के साथ
एक एक करके उसके बच्चे
ओढने को खींचते
उसकी पहनी हुई साड़ी
बच्चों के तन ढकते जाते
और उसका उघड़ता
होती एक और बच्चे की
पैदाइश की शुरुआत

Thursday 3 December, 2009

सरापा

पहली रात
हटा दिये थे
सारे फ़ूल मैने
इससे पहले
कि तुम
अनावृत हो
मै नहीं चाहता था
कि उनका गरूर टूटे

Wednesday 2 December, 2009

प्रेम भिखारी

इस दुनिया मे
सभी
प्रेम के भिखारी नज़र आये
माँगते एक दूसरे से ही
भला कैसे मिलता
किसी को भी
एक भिखारी
एक दूसरे भिखारी को
दे भी क्या सकता है
नतीजा ये
कि इतनी बड़ी दुनिया
इतने लोग
इतनी बातें प्रेम की
और नहीं दिखता
प्रेम कहीं भी
अब समय आ गया है
जब हम इसे ठीक से देख लें
समझ लें
फ़ेंक दे प्रेम के भिक्षापात्र
और एक नई मुहिम शुरू करें
प्रेम देने की
माँगने की नहीं
क्या तुम नहीं सोचते
कि देखते ही देखते
भर जायेगी ये दुनिया
प्रेम से.

Tuesday 1 December, 2009

असीम

वो वहाँ पहुँच गया तो क्या
मै यहाँ खड़ा रहा तो क्या
वो जितना मुझसे दूर है
मै भी उतना ही दूर उससे
या पास कह लो
पास हो तो भी तो दूरी है
या फ़िर दूर होके भी तो पास हैं
दूर क्या फ़िर पास क्या
जब तक कि एक ही नहीं हो जाते
एक ही नहीं हैं क्या
हैं तो
लेकिन दिखाई न दे
तो ज़रा नज़र पैनी करें
और अगर दिख भी जाये
तो कैसे कहिये
किससे कहिये
किन शब्दों मे कहिये
सीमित है भाषा
जीवन नहीं