Thursday 31 December, 2009

प्राकृतिक

सूखे टूटे असहाय पत्तों को
शोर करके
यहाँ वहाँ उड़ाती उठाती गिराती
पतझड़ की हवायें
नंगे खड़े रहने को मजबूर पेड़
लुटे हुये नुचे हुये से
जेठ की दुपहरी में
उत्पात मचाता जलाता सूरज
प्यासे मरते इन्सान और जानवर
सूखते पेड़ पौधे
जलके राख होते वन बाग जंगल
भयानक बारिश से अस्त व्यस्त
नदी किनारे के गाँव में
बरस बरस कर नरक पैदा करते
आषाढ़ के बादल
छप्परों को उड़ाकर दूर दूर
फ़ेंकती आँधियाँ
मवेशियों को बहा ले जाती
इन्सानों को जिन्दा डुबोती
उफ़न कर बढ़ी हुई नदी
तभी सोचूँ मैं
लूटना जलाना डुबोना नोचना
बरबाद कर देना
ये सब हमें आता है
बड़ा नेचुरली.

Wednesday 30 December, 2009

चिंतन

मै एक चिन्तक हूँ
बड़ा चिन्तक
जीवन की
बड़ी बड़ी बातों
समस्याओं और रहस्यों पर
विचार करने का है जिम्मा
मुझे करनी होती हैं
बड़ी संगोष्ठियाँ
पी डालता हूँ दो किताब भर
उलट देता हूँ चार किताब भर
गाहे बगाहे
मार देता हूँ बड़े बड़े जुमले
वक्त बेवक्त
क्या करना मुझे
अगर
कुपोषित हैं बच्चे
अशिक्षित हैं लोग
कोई मतलब नहीं मुझे
अगर सुरक्षित नहीं हैं औरतें
क्या करूँ मै
अगर भूखों मरते हैं किसान
बिना इलाज के दम तोड़ते
गरीब लाचार अपाहिज बूढे
ये समाज के चिथड़े और कोढ़
कीड़ों की तरह नालियों में
जीते रहने को अभिशापित
इस तरफ़ को देखना हो
तो कुछ करना पड़ेगा
बहुत कुछ करना पड़ेगा
इसीलिये
मै एक बड़ा चिन्तक हूँ

Tuesday 29 December, 2009

हमारा इतिहास

दूध की नदियाँ बहती थीं
हमारे देश में
बह गया सारा का सारा
नहीं बचा अब के बच्चों के लिये
सोना चिड़ियों की शक्ल में
बसेरा करता था डाल डाल पर
हुआ सवेरा
उड़ गईं चिड़ियाँ
ठन ठन गोपाल
कहीं नहीं हुये
इतने अवतरण भगवानों के
जितने इस पुण्य भूमि पर
पता चलता है इससे कि
सबसे ज्यादा यहीं रहे होंगे पापी
क्योंकि जहाँ बीमार हों अधिक
वहीं होने चाहिये चिकित्सक
कहा जाता रहा है
कोई साधारण इन्सान नहीं हैं हम
हम तो सन्तान हैं
ऋषि मुनियों और देवताओं की
जरूर कुछ वंशज होंगे
दुर्वासा ऋषि के
शान समझते हैं
बात बात पे गाली देने मे
परशुराम जी के जो
नहीं घबराते
ज़रा सी बात पे कत्ले आम करने मे
कुछ इन्द्र देव के भी रहे होगें
चलने दो सोमरस
होने दो नंग नाच
रास विलास अक्षत यौवनाओं के साथ
इस पर भी न भरे मन
छलो किसी भी अहिल्या को
मुँह अँधेरे ब्रह्म मुहुर्त में
और फ़िर तमाम होंगे सुपुत्र
ऋषि गौतम के
जो इन्द्र का तो न बिगाड़ पायेंगे कुछ
बना के छोड़ देंगें पत्थर कुलटा कुलच्छिनी
अपनी बेचारी घरवाली को ही
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते........
बकवास है ये सब
हम अपने जिस इतिहास पर
फ़ूले नहीं समाते
भरा पडा है वो
औरतों के अनादर से तिरस्कार से
समाज के कमजोर लोगों की प्रताड़ना से
अपने को ऊँचा कहने वालों की धूर्तताओं से
ये जुआ खेलते राजे महाराजे
कई कई पति वाली औरतें
आदमियों की अनेक पत्नियाँ
बड़े बूढों के सामने खुली सभा में
लज्जित की जाती अपने ही घर की वधुयें
भीषण युद्धों में सर्वनाश करते हुये भाई भाई
ये सब है इतिहास इसी पुण्यभूमि का
जहाँ देवता भी जन्म लेने को तरसते हैं

Monday 28 December, 2009

अन्नदाताओं से

उठो चलो
आग लगानी है
अपने ही खलिहानो मे
खून को पसीना किया हमने
जानता हूँ
मगर ज़रा सोचो
कि हमें तो मरना है भूखों ही
फ़िर क्यों ये पवित्र अन्न
उनका पेट भरे जो
कल जलायेंगें हमारे ही झोंपड़े
बनाने को आलीशान महल
मौत की ओर धकेलेंगे हमारी बेटियाँ
अपने विलास के लिये
बरबाद कर देगें हमारी नदियाँ सागर
अपने ऐशोआराम में
नहीं छोड़ेंगे हमारे लिये
साफ़ हवायें सुरक्षित वन
उठो चलो
जल्दी करो
देर हो चुकी है पहले ही
पालने बन रहें हैं कब्र
और कब तक करें सब्र

Sunday 27 December, 2009

दंभ

उमस गर्मी और अन्धकार
फ़िर टूट जाना
पता नहीं
बीज के लिये ये क्या है
आशा या मजबूरी
फ़ल फ़ूल और छाया
साँस लेने को हवा
पता नहीं
हमारे लिये ये क्या है
अधिकार या पुरस्कार
जो भी हो
नियति है यही
मेरी समझ में
ये कोई गौरव नहीं है बीज का
बीज इसका दम्भ भी नहीं करता
चुपचाप मिट रहता है बेआवाज़
एक हम इन्सान
जो इसी प्रकृति का
हिस्सा हैं अदना सा
जो श्रेष्ठतर समझते हैं स्वयं को
और तमाम जीवों में
किसी को अगर
कचरा भी दें अपना
तो मचाते हैं कितना शोर
नहीं है हमारे दम्भ का
कोई ओर छोर

Saturday 26 December, 2009

अन्धानुकरण

गुलाब गुलाब है
और जुही जुही
जुही होना चाहे गुलाब यदि
तो पड़ेगी मुश्किल मे
और गुलाब तो खैर हो न पायेगी
यकीनन नही चाहती
कोई चम्पा
किसी जुही या गुलाब के जैसा होना
और क्या पड़ी है किसी गुलाब को
जो वो रजनीगन्धा होने के ख्वाब देखे
कमल खुश है कीचड़ मे ही
गुलाब को नहीं है शिकायत काटों से
काँटे इतराते नहीं
फ़ूलों का साथ होने से
हम जो हैं
वही होने को हैं
अनुकरण मात्र ही
अन्धानुकरण है
लाख हो आसान
कोई बनी बनाई राह
ले न जा सकेगी मंजिल तक
कभी न ले गई किसी को
राह खुद अपनी बनानी है हमें
साफ़ कर झाड़ियां काटें पगडन्डियों के
तोड़ने हैं पत्थर खुद ही
बिछानी है रोड़ियाँ
फ़िर इस सड़क पर है चलना हमें
और फ़िर मुमकिन है कि
पहुँच सकें वहाँ
स्वयं मे
स्वयं के होके जीना ही
सफ़लता है मंजिल है
बस यही कि स्वयं की पूर्णता में
हम फ़लें फ़ूलें
स्वीकार करके जो हैं जैसे हैं
स्वयं के शिखर छूलें
बुलन्दी है यही
ज़िन्दगी है यही

Friday 25 December, 2009

प्रभु पुत्र को, शर्म से!

हे ईश्वर पुत्र
मेरे भाई
कभी कभी लगता है
तुमने व्यर्थ जान गँवाई
प्रेम की खातिर
और हमारे प्रेम में
तुमने सलीब पर टाँग दी
अपनी गर्दन
हम निरे लंपट
अपनी गर्दनो में
सलीब लटकाये घूमते हैं
पूरी दुनिया में फ़ैलाने को
तुम्हारा प्रेम संदेश
जबरन कितनी बर्बरता से
निरीहों की
गर्दने उतारते हैं
दो हज़ार साल से
हम यही करते आये हैं
और आगे भी यही करेंगे
देखकर ऐसी क्रूरता
कभी न कभी जरूर
तुम और तुम्हारे पिता
शर्म से डूब मरेंगे

Thursday 24 December, 2009

सिगरेट पीती हुई औरत

सिगरेट पीती हुई औरत
भाप से चलने वाले
इंजन की याद दिलाती है
एक बारगी लगता है कि
वो नेतृत्व कर रही है
चूल्हे का धुँआ भी
याद मे आता है
चिता का भी
जिसमें वो रोज़ जलती है
गीली लकड़ी की तरह
शायद वो देखना चाहती है
उस धुँये को जो अपने भीतर
कहीं महसूस करती होगी
मै चाहता हूँ कि
ठीक से देख ले वो
क्योंकि ठीक से देख लेना
समस्याओं को
उनके समाधान की दिशा में
सर्वाधिक आवश्यक कदम है
लेकिन चूँकि ये एक
कदम मात्र ही है
मै ये भी चाहता हूँ कि
वो सिर्फ़ देखती ही न रह जाये

Wednesday 23 December, 2009

संघर्ष

मान लिया गया
कि मेरा देश महान है
मेरी भाषा महान है
मेरा धर्म महान है
और ऐसा मान लिया गया
हर जगह दुनिया में
मान लिया जाये
कि अपने देश धर्म और भाषा के लिये
कुछ भी कर गुजरना
जिसमे लड़ मरना भी शामिल है
हर व्यक्ति का कर्तव्य हो
और ऐसा मान लिया जाये
हर जगह दुनिया में
फ़िर जो हुआ
हो रहा है
और होते रहने की आशंका भी है
उसे भी क्या
एक वॄहद समय चक्र में
इन्सानियत मान लिया जायेगा ?

Monday 21 December, 2009

अँधेरे की ओर ले चलो प्रभु!

यहाँ से गुजरती ये सड़क
कहाँ मिल जाती है बादलों में
या चुक जाती है
दूर खड़ी उन इमारतों मे से किसी मे
कुछ पता नहीं चलता अँधेरे में
हरे और पीले पत्ते
दिखाई देते हैं एक से
पता नहीं चलता कि
वो सो गया है भरे पेट
या कि पीठ से लगाये पसलियों को
दोस्त और दुश्मन
अमीर और गरीब
कोई भेद नहीं
समा गईं है सब बनावटे
एक दूसरे में
मिट गईं हैं सीमायें
सुन्दर और कुरूप सब एक
जी भर के नज़ारा कर लें आओ
इस खास मंज़र का
इससे पहले कि रोशनी हो और
लौट चलें हम फ़िर
भेदभाव भरी दुनिया में
उजाले की दुनिया में

Sunday 20 December, 2009

मेरी रामायण

एक किताब है
जो सिर्फ़ एक बार पढ़ी जाती है
जैसे कोई जासूसी उपन्यास
और फ़िर एक है जो
बार बार पढ़ते हैं जैसे
रामायण
दिखने मे हो जाती है
जरूर फ़टी पुरानी सी
और ज्यादा सावधानी से
रखते हैं
पढ़ते हैं
सीता के वनवास से शायद
उसकी उम्र का कोई वास्ता न रहा होगा
जानता हूँ किस्सा अहिल्या का
और उसकी उम्र भर की तकलीफ़
हमारे प्यारे बाबा ने
न जाने कौन सी पीनक में
ढोल के साथ खड़ा कर दिया था तुम्हें
तुम्हे जरूर डराते भी होंगे ये किस्से
तुम कुछ भी समझ लो
अब उम्र के इस पड़ाव पर
देखो चाहे जितनी बार
अपने कानो के पास के बालों की चाँदनी
तुम हो मेरी रामायण ही
पढ़ी जाने लायक बार बार
सम्मान से आदर से
माथे पर लगाकर हर बार

Saturday 19 December, 2009

मेरा मै

मैं !
लगाते थे
चक्कर जिसके
चाँद और सूरज
जिसको सुलाने
आती थीं
चाँदनी रातें
जिसके लिए
बहती थीं नदियाँ
गिरते थे झरने
उगते थे पेड़
खिलते थे फूल
गातें थे पंछी
बहती थीं हवाएं
लगते थे मेले
सुख देने को
दुःख देने को
और
कुछ न लेने-देने को
लगे रहते थे लोग
अब जब
सिर्फ़ एक मुट्ठी खाक हूँ
कहूँ तुमसे
कि क्या है हक़ीकत
तो क्यों कहूँ
कैसे कहूँ
देख सको
तो देख लो खुद

Friday 18 December, 2009

तुझसे लागी लगन

रहस्यों को खा रहा हूँ
मै आजकल
पी डालता हूँ आशंकाओं को
पहन के घूमता हूँ सपने
बिछा के लेट रहता हूँ यथार्थ
पहाड़ उठा के फ़ेक दिया है
अनिश्चितता का
छाती से
घूम के आया हूँ सारा आकाश
लगा के पंख संभावनाओं के
संवेदना की तलवार भाँजता हूँ
विडम्बनाओं की लोभनीय
तस्वीरें उतारता हूँ
सुहावनी अनुभूतियों की
ललकार पे खड़ा हो जाता हूँ
अन्तरतम की वास्तविकता पर
तैल चित्र बनाता हूँ
कभी कभार
मुझे तुमसे काटता है
व्यापक मौन
दोनो टुकड़ों में दिखता नहीं
मै कौन तुम कौन
इसी गड्डमड्ड में
अब आया चैन

Thursday 17 December, 2009

स्त्री

तुम स्वतन्त्र होगे
क्या तब जब
आदमी कहेगा ये तुमसे?
तो फ़िर तुम क्यों देखती हो
आदमी की ओर ही
स्वतन्त्रता के खयाल पर?
क्यों चाहती हो
उसकी स्वीकृति?
क्यों बनना और करना चाहती हो
उसके जैसा ही?
क्यों नहीं सोच पाती
अपने जैसा बनने का
अपने जैसा जीने का?
अपने सहारे चलने पर
क्यों कदम कदम पर
होती है घबराहट?
तुम्हे साथ चाहिये किसी का ठीक
पर सहारा क्यों?
स्वयं को तुम्हे
नहीं सिद्ध करना है
किसी और को
नहीं जरूरत है तुम्हे
बागी बनने की भी
अपने स्त्रीत्व के दम पर
अपनी पहचान बुलन्द करो
स्वच्छंद नहीं
स्वतन्त्र बनो
होंगी मजबूरियाँ
मगर खूबियाँ भी हैं तुममे
सम्मान समर्पण दया करुणा ममता स्नेह
कमजोरियाँ नहीं हैं तुम्हारी
हथियार हैं
लिखो अपना भाग्य स्वयं
फ़ैसले स्वयं करो अपने
परतन्त्र रहना है तो भी.
और फ़िर कैसी परतन्त्रता!

Wednesday 16 December, 2009

ढाई आखर ज़िस्म का

ये उतार चढाव
ये गोलाइयाँ
जो बनाती हैं तुम्हे
सबकी चाहत
तुम न चाहोगे फ़िर भी
ये तुम्हारा दुश्मन वक्त
खींच देगा कुछ सीधी तिरछी लकीरें
कुछ पिचका देगा ज्यादा
कहीं कहीं उभार देगा कुछ और ज्यादा
पतझड़ भी तो आखिर आता ही है
कब तक रहेगा बसन्त
नदी सूख के पतली हो रहेगी कभी
हरे भरे जंगल बियाबान हो जायेंगे
सामने जाने का भी न करेगा मन उसके
जिस आइने के सामने से
हटने का नहीं करता है जी आजकल
बहुत हो चुका भूगोल से प्रेम
इतिहास से भी कुछ सीखो
ज़रा गणित लगाओ
अर्थशास्त्र की मदद लो
वक्त का मूल्य समझो
ज़िस्म का छोड़कर ढाई अक्षर
प्रेम का पढ़ना शुरु करो

Tuesday 15 December, 2009

अप्प दीपो भव

न कोई दुख देने को है
और न ही कोई सुख देने को
तुम जो चाहो
स्वयं चुन लो
सब पड़ा है
यहाँ सामने तुम्हारे
चुनाव सिर्फ़ तुम्हारा है
मगर चुनाव तुम जिस अक्ल से करोगे
वो भी तुम्हारी ही है
यही विडम्बना है
मैने देखा है
तुम्हें काटें चुनते हुये
हमेशा से यहाँ
मैने देखा है कि तुम
चुनाव करते आये हो
गहरी घाटियों का
तुमने चुने हैं अँधेरे सदा
और फ़िर मैने देखा है
तुम्हे रोते हुये जब
काँटे चुभते हैं
जब सड़ते हो गहराईयों में
जब टकराते हो पत्थरों से
प्रकाश के अभाव में
अचरज हुआ है ये सब देख के मुझे भी
सोचता रहा हूँ भला बात क्या है
मैने जाना है कि
उचित चुनाव के लिये
जरूरत होती है
स्वयं के विवेक की
अपना दिया जला लो
जैसा भगवान बुद्ध ने कहा
अप्प दीपो भव

Monday 14 December, 2009

हकीकत

लगता है ये सिर्फ़ मेरा खयाल ही है
कि तुम्हारे दिवास्वप्नो तक है मेरी पहुँच!
कि कल मिल जायेगा वह सब कुछ
अनगिनत कल बीत गये जिसकी तमन्ना में!
कि हद से बढ़कर दवा बनता है दर्द!
कि ये दुनिया सिर्फ़ गम ही गम नही है मज़ाज़ का!
अगर ये तय हो जाये कि ये मेरा खयाल ही है
तो भी क्या!
फ़िर फ़ूटेंगें नई तमन्नाओं के अंकुर
मेरे खयालों में.
ऐसा ही हुआ है
युगों युगों से आज तक
जब से मै हूँ.
खयालों के कल आज और कल
खयालों के सुख दुख
खयालों में लेन देन
खयालों की सुबहें शामें रातें
खयालों के रिश्ते
उफ़ ये ज़िन्दगी है भी
या महज़ खयाल है!
मैं सोचता हूँ कि
पा जाउँगा एक राह कभी
जो ले जायेगी मुझे
एक हकीकत की नदी तक
जिसमे मै सारे खयालों को डुबो दूँ
हे भगवान!
यह भी महज़ एक खयाल ही न निकले!!

Friday 11 December, 2009

आज़ादी

वह करती आई थी
चौका बरतन
खाना बनाना
कपड़े धोना
साफ़ सफ़ाई
किसी ने उसे बता दिया एक दिन
कि वह कैद है
उसने कर दिया एलान
अपनी आज़ादी का
पर अब करे क्या
किसी ने दिखा दिया
उसे बाहर का रास्ता
अब वह काम करती है
पैसे कमाती है
और हाँ
साथ मे करती है
चौका बरतन
खाना बनाना
कपड़े धोना
साफ़ सफ़ाई

Thursday 10 December, 2009

अनुभव

कोई परेशानी है तो सिर्फ़ ये
कि अभी अनुभव ही नहीं किया तुम्हारा
छू लूँगा तुम्हे कभी
दबा के हाथ छेड़ूँगा
उफ़ कैसी होगी तुम छूने में
महक तो तुम्हारे बालों की
पागल कर देती है अक्सर
तुम्हारी कमर पकड़ के उठाया था बेन्च से
तो सिहर गया था मैं
तुम्हारी गहरी आँखे
तुम्हारी इतनी प्यारी बातें
और क्या चाहिये होगा मुझे
फ़िल्म देखते समय अँधेरे में सोचता हूँ
एक ही कमरे मे जब अँधेरा होगा
तो पूरी रात भी यकीनन कम पड़ेगी
मै नहीं जानता था
कि मुझे नहीं अच्छा लगेगा
लिप्स्टिक का स्वाद
मुझे ये भी कहाँ पता था
कि तुम्हारे कान की बाली
मेरी पीठ के नीचे दबी मिलेगी
कुछ बातें सचमुच अनुभव की ही होती हैं
अब ये तो स्वप्न मे नहीं सोच सकता था
कि तुम पास मे होगी और
मै तुम्हारी ओर पीठ करके सो रहा होऊँगा
तुम मुझे अच्छी बहुत लगती हो
पर मैं सोते वक्त नहीं चाहता कि
किसी का हाथ मेरे ऊपर हो
वैसे अगर दो चार रोज़ मे ही
वैक्सिंग के बाद चुभने लगते हैं बाल
तो क्या तुम थोड़ा जल्दी जल्दी
कर सकती हो वैक्सिंग
हाँ देखता हूँ कि
इससे स्किन पर होता है कुछ
चलो छोड़ो
अनुभव भी न
कितने भरम खोल देता है अक्सर
अब जैसे मैने अपने सभी दोस्तों से
कहा था कई बार कि
तुम्हारे बाल नेचुरली कर्ली हैं
मै चाहता हूँ कि अब अगर कभी
रात सोने मे देर हो जाये
तो हम लोग सो ही जाया करें
क्या रोज़ रोज़...
आफ़िस के लिये उठना भी होता है
वाह रे अनुभव
अभी तो सिर्फ़ कुछ महीने ही हुये हैं
अभी तो बच्चे होंगे
फ़िर
उनकी देख रेख में तुम शायद
अपने बालों को
ऐसा ना भी रख सको
और कुछ समय बाद तो
स्किन धीली सी भी हो जायेगी न
अनुभव
कभी कभी न भी हो तो कोई बात नहीं
कुछ मिठास कुछ छ्टपटाहट बनी ही रहे
कुछ अनुभव की तमन्ना ही रहे तो भी
बुरी बात नहीं शायद
अब ये कोई नई परेशानी पल रही है शायद
निजात नहीं परेशानियों से
और न ही अनुभव से

Wednesday 9 December, 2009

पाणिग्रहण

माँगा ज़िस्म
और उसने दिया
एक जोरदार हाथ
नफ़रत से
माँगा हाथ
उसने प्यार से
दिया ज़िस्म.

Saturday 5 December, 2009

कृष्णहठ

गलत है चाह और और की
सब मुझे ही मिल जाये तो
और क्या करें
औरों का भी होना है कुछ
समझता तो हूँ मगर
दिल जब कृष्णहठ पर उतर आये
माँगे चाँद
तो क्या उसे
पानी का थाल दे दूँ

Friday 4 December, 2009

बच्चे

उसके झोपड़े में
गहराती हुई रात के साथ
एक एक करके उसके बच्चे
ओढने को खींचते
उसकी पहनी हुई साड़ी
बच्चों के तन ढकते जाते
और उसका उघड़ता
होती एक और बच्चे की
पैदाइश की शुरुआत

Thursday 3 December, 2009

सरापा

पहली रात
हटा दिये थे
सारे फ़ूल मैने
इससे पहले
कि तुम
अनावृत हो
मै नहीं चाहता था
कि उनका गरूर टूटे

Wednesday 2 December, 2009

प्रेम भिखारी

इस दुनिया मे
सभी
प्रेम के भिखारी नज़र आये
माँगते एक दूसरे से ही
भला कैसे मिलता
किसी को भी
एक भिखारी
एक दूसरे भिखारी को
दे भी क्या सकता है
नतीजा ये
कि इतनी बड़ी दुनिया
इतने लोग
इतनी बातें प्रेम की
और नहीं दिखता
प्रेम कहीं भी
अब समय आ गया है
जब हम इसे ठीक से देख लें
समझ लें
फ़ेंक दे प्रेम के भिक्षापात्र
और एक नई मुहिम शुरू करें
प्रेम देने की
माँगने की नहीं
क्या तुम नहीं सोचते
कि देखते ही देखते
भर जायेगी ये दुनिया
प्रेम से.

Tuesday 1 December, 2009

असीम

वो वहाँ पहुँच गया तो क्या
मै यहाँ खड़ा रहा तो क्या
वो जितना मुझसे दूर है
मै भी उतना ही दूर उससे
या पास कह लो
पास हो तो भी तो दूरी है
या फ़िर दूर होके भी तो पास हैं
दूर क्या फ़िर पास क्या
जब तक कि एक ही नहीं हो जाते
एक ही नहीं हैं क्या
हैं तो
लेकिन दिखाई न दे
तो ज़रा नज़र पैनी करें
और अगर दिख भी जाये
तो कैसे कहिये
किससे कहिये
किन शब्दों मे कहिये
सीमित है भाषा
जीवन नहीं

Monday 30 November, 2009

सौन्दर्य

नयन भर देखा
सब नयनो ने
युगों युगों
रूप था कि
वही रहा
बाकी अभी
और और नयनो को
आगे और आगे
फ़िर यह रूप
नश्वर कैसा
क्षर कैसा
निश्चित यही
अव्यक्त का बिम्ब
अक्षर
अनश्वर

Sunday 29 November, 2009

पथ प्रदर्शक

चेहरों मे ही
उलझकर
जीवन की राह
तय करने वालों
नहीं पहचानते
देखकर पीठ
अभी अगर तुम
तो कैसे करोगे
अनुगमन
उसका
वो तो चल रहा होगा
तुमसे आगे
और देखता भी होगा
आगे को ही

Saturday 28 November, 2009

दीवार पर कैद तीन तितलियाँ

देखो
यहाँ दीवार पर कैद
ये तीन तितलियाँ
अभी उड़ेंगी
खिड़की के रास्ते
आकाश मे
या जहाँ चाहें
कर लेना कैद
उनकी उड़ान
और जब
ऊँचा आकाश
निमन्त्रण दे
खोल लेना पर
चल देना
उस अनजान पथ पर
मत सोचना मन्जिल को
मत ढूंढना पदचिन्ह
परों के निशान नहीं बनते

Thursday 26 November, 2009

स्विस बैंको मे जमा रुपया

इस सवाल पर कि
किसका है वो रुपया
जमा जो स्विस बैंको मे
नेता बोले मेरा नहीं
मंत्री बोले मेरा नहीं
मिल मालिक व्यापारी
अफ़सर सरकारी
मेरा नहीं मेरा नहीं
बोले हर बड़ा आदमी
झूठ नहीं कहते वे
नहीं है वो रुपया उनका
वो रुपया तुम्हारा है
किसानो
मजदूरों
शोषितों
भूखे मरने वालों!

Monday 23 November, 2009

कालचक्र

पल प्रतिपल
हर पल
बूँद से सागर
कालचक्र के भीतर
और बाहर
जीवन का कण कण
तन मन प्राण
बनाता मिटाता
उठाता गिराता
यह ज्वार
यह प्लवन
यह दुर्निवार बाढ़
फ़िर भी
यह जीवन अतृप्त
अनादि से अब तक
और और की दौड़
कैसी यह प्यास
कैसा विधाता

Thursday 19 November, 2009

लेन देन

जिन्हे मुझसे काँटे मिले हों
न ठहरायें कसूरवार मुझे
जिन्हे मुझसे मिले हों फ़ूल
न ठहरायें जिम्मेवार मुझे
बाँटा वही
जो मिला
यहाँ तो मै
कुछ लेके आया नहीं था


उल्टी गंगा

गंगासागर से
पटना और बनारस के रास्ते
इलाहाबाद पहुँचकर
उसने सोचा कि
दो हो जाऊँ
उल्टी गंगा बहाऊँ
नहीं नहीं
इन्सानो के सिवा
ऐसा कोई नहीं करता

Tuesday 17 November, 2009

समर्पण

पत्तों के पीछे से झरता
उगता सूरज
चाँद रात फ़ैली चाँदनी निशब्द
झील पर
दूर सागर में डोलती नावें
सुबह की हवाओं की खुशबुयें
एक नन्हे बच्चे की खिलखिलाहट बेवजह
अभी अभी रोपे दूर तक फ़ैले धान
पहाड़ी की ढलान पर फ़ैले
सीधे खड़े देवदार
गहरी रात के सन्नाटे
कुछ तेज तेज धड़कने
कुछ गहरी साँसे
जब भी
कभी भी
कहीं भी
जीवन ने दुलराया गुदगुदाया
वो अनुभुति
वो पल
वो जीवन
प्रेम को समर्पित कर आया

Monday 16 November, 2009

अधर्मान्धता

वो पढ़ता है एक किताब
और हम दूसरी
वो झुकता है एक जगह
और हम दूसरी
आओ चलो
मार डालें उसे


मानवता

मै मानवतावादी हूँ
देता प्रेम
जो मिली होती
मानवता कहीं
पर क्या करूँ
मिले सिर्फ़ मानव

Sunday 15 November, 2009

भाग के शादी करने वाली लड़की

उसने भाग के शादी की थी
थोड़ी नाराज़गी के बाद
दोनो घरवाले चुप बैठ रहे
उस मोहल्ले का
जहाँ वह भाग के शादी करने वाली लडकी
अपने पति के साथ रह रही थी
फ़ेरी लगाकर सब्ज़ी बेचने वाला भी
मुस्करा के देखता उसे
बच्चे हुये और जब वे
और बच्चों से खेल खेल मे लड़ते
औरों की मांयें नहीं चाहती कि
उनके बच्चे खेलें उन बच्चों के साथ
जो भाग के शादी करने वाली लडकी के थे
खैर
अब वो बहुत बूढी है
लोग मदद कर देते हैं
शाम पार्क मे बैठकर
इस मदद की चर्चाकर
वाहवाही भी लूटते हैं
कि उस
भाग के शादी करने वाली लड़की
की मदद करना इन्सानियत है
सो हम करें
उसका नाम तो खैर है
लेकिन ज्यादातर लोगों को पता नहीं
ज़रूरत भी नहीं क्योंकि
लोग पसन्द करते हैं
उसका विख्यात सम्बोधन
भाग के शादी करने वाली लड़की
मै सोचता हूँ
कि जब ये मरेगी और
इसका क्रियाकर्म होगा
तो क्या पन्डित श्लोक बाँचने मे
जब उसका नाम लेना होगा
कहेगें
भाग के शादी करने वाली लड़की !

Friday 13 November, 2009

यदा यदा हि धर्मस्य

उसने कहा था
वह आयेगा
जब जब धर्म की हानि होगी
वह मुझे दिखा नहीं इन दिनो
मै भरोसा रखता हूँ
उसके आस्वासन पर
या तो मै पहचानता नहीं उसे
या फ़िर
अभी और हानि होनी है धर्म की


दौड़

चोटी की दौड़ व्यर्थ है
मै जानता हूँ मगर
दौड़ जारी है
क्योंकि
मैं वहाँ से कहूँ
तो मानो शायद

Wednesday 11 November, 2009

शतरंज के खिलाड़ी

लोग देखते हैं अक्सर इन दिनो
दो इन्सानो के चीथड़े बिखरे हुये
एक वो जो आया था कमर पे बम बाँध
दूसरा खड़ा हो गया सामने बन्दूक तान
मुझे दिखतें हैं
दो शहीद प्यादे
और
दो नवाब बाज़ी बिछाये


कुत्ते

बरसों हो गये उन्हे
जनता का मांस नोचते
उसका लहू पीते
अब नहीं बचा होगा कुछ भी जनता मे
यकीनन
अब वे चूस रहे होंगे हड्डियां
और अपने ही मसूढों से रिसता लहू

Tuesday 10 November, 2009

औरत

किसी ने गले मे जंजीर डाल दी
तो बंध गई खूँटे से मगन
कभी हथकड़ी लगा दी गई
तो कितनी लगन से
बेलती है रोटियाँ
कभी बेड़ियाँ डाल दी गईं
तो नाचने लगी झूम के
वाह रे तेरा गहनो का शौक!


आदमी

नोट से रोटी कमाते हैं
कुछ लोग उसे खाते हैं
पर वे भूखे रह जाते हैं
क्योंकि
कुछ लोग नोट खाते हैं
वे हमारे वोट खाते हैं
और
सब कुछ नोच खाते हैं
वाह रे भूख!

Monday 9 November, 2009

जन्म दिन

हर दिन जैसा ही
ये भी वही दिन
और एक बरस निकल गया
और करीब और करीब
मौत के कदमो की आहट
साँसो के परदे में चली आती चुपचाप
इच्छायें आशंकाये
न खत्म हों तो न खत्म हों
और फ़िर तुम्हारी मंगलकामनायें
ये चाहना कि सब शुभ हो
फ़िर याद दिलाने को
कि नहीं है शुभ सब कुछ.
हाँ लेकिन ये भी याद दिलाने को
कि मै अकेला नहीं
इस कतार में
तुम भी हो
और भी हैं
सभी हैं
तो फ़िर
ये खुशी की बात है
या और दुख की.

Sunday 8 November, 2009

बैशाखियों को पर बनाने का हुनर आना चाहिये
कैसे ज़िन्दगी करें हर हाल बसर आना चाहिये

माना कि अब नहीं रहा वो जो वक्त अच्छा था
ये भी तो दिन दो दिन मे गुजर जाना चाहिये

न देखो राह मै एक चिराग था जल चुका बस
कोई सूरज तो नहीं जो लौट के आना चाहिये

याद आ जायेगा उन्हे बहाना कोई शबे वस्ल
मौत को भी तो आने का कोई बहाना चाहिये

Saturday 7 November, 2009

खानाबदोश

यादों का बिस्तर
खोल लेते हैं
बिछा देते हैं
तान के सो जाते हैं
और एक दिन
उठते हैं
समेटते हैं बिस्तर
और लेके
चल देते हैं
इसी बीच
जो कुछ भी
गुनगुना लेते हैं
वही जीवन की कविता है.

Friday 6 November, 2009

छुप छुप के

बैलगाड़ियों के समय
प्यार छुपा करता था
उस कच्ची दीवार की ओट में
जहाँ बँधते थे बैल
तलैया किनारे
या फ़िर दुपहरी मे
बम्बे के पीछे
अमराई में
या फ़िर साँझ होते
बाहर नीम के साथ वाली
भुसहरी मे
और कभी
मेले ठेले की रेलमपेली मे
चूड़ियों की दुकान पे
बैलगाड़ियों पे चलके
पहुँचे जहाजों तक
छुपने के ठिकाने
आधुनिक हो गये
मगर
प्यार अब भी छुपा करता है

Thursday 5 November, 2009

आखिरी उम्मीद

मेरा चैन खो गया था
अपनी जेबों मे तलाशा
अल्मारियों मे देखा
बिस्तर के नीचे
कमरों के कोनो मे
गलियारों मे
और फ़िर
रास्तों बाजारों
नदियों पहाड़ों
मन्दिरों मस्जिदों मे
सारा गाँव इकट्ठा
खूब शोर
एक पागल के चैन मे खलल पड़ा
चिल्लाकर बोला
अपने भीतर क्यों नही देखता है
मैने अनसुना कर दिया
लगा रहा खोज में
लोग चकित ऒर उत्सुक
कहने लगे कि देख भी लो
अपने भीतर एक बार
चिल्लाकर कहा मैने
नहीं कभी नहीं
वहीं तो है एक आखिरी उम्मीद
अगर वहाँ देखा मैने
और
न पाया तो !

Wednesday 4 November, 2009

ख़याल

एक सर्द रात
सुरमई चादर तले
छुपते छुपाते
हौले से सरकता
पूनम का चाँद है
या कोई
एक लचकती डाल
फ़ूलों की
बलखाती लहराती
सौ सौ फ़ितने जगाती
मौजे दरिया है
या कोई
एक आँगन के कोने मे
बेआवाज खामोश
कई कई रंग मे
कभी जलती कभी बुझती
पिघलती शम्मा है
या कोई
एक तूफ़ान सा
यहाँ सीने मे
सुबहो शाम
करवटें बदलता
धड़कता दिल है
या कोई
मेरा ख़याल है कि
ये तेरा ख़याल है

Tuesday 3 November, 2009

प्रार्थना

मुहब्बत में कोई मंजिल कभी गवारा न हो
ये वो दरिया निकले जिसका किनारा न हो

अकेले आये थे अकेले चले भी जायेंगे मगर
इस जमीं पर तेरे बिन अपना गुजारा न हो

कभी तकरार भी होगी हममे और प्यार भी
न बचे आखिर शख्स कोई जो हमारा न हो

बेशक ज़िन्दगी गुज़रे यहाँ की रंगीनियों मे
भूल जायें तुझे एक पल को खुदारा न हो

नज़र का फ़ेर है बुरा जो कुछ दिखे यहाँ
नही कुछ भी जो खुद तुमने सँवारा न हो

Monday 2 November, 2009

गुलाब बनाम गेहूँ

लाल रंग मे डूबकर
मै दॊड़ा कि
कोई चित्र बन जाऊँ
लाठी लिये
लोगों की भीड़
मेरे सामने हर सड़क पर
चीखती हुई कि
ये नहीं हो सकता
मैने ढेर सारे
हरे कपड़ों को
हवा मे लहराना
शुरू ही किया था कि
टिड्डों के झुन्ड के झुन्ड
ऒर फ़िर सब सफ़ाचट
बहुत बड़ॆ डब्बे में
पीले फ़ूलों की महक
बन्द करके ले गया
दूर जंगल के पास
खुशबुओं के पेड़ लगाने
जंगली सुवरों ने सब
तोड़ फ़ोड़ डाला
सफ़ेद ऒर काले का भी
ऐसा ही बुरा हाल हुआ
खुद को जलाके राख किया
कि चलो सलेटी से ही कुछ काम बने
मगर नहीं
तब फ़िर
पानी बरसाया
सूरज को लाया
ऒर बनाया आसमान मे
एक सतरंगी इन्द्रधनुष
अब सब ठीक था
आज की इस दुनिया मे
जो खुश ऒर व्यस्त है
एक खाली पर्दे पर
आती जाती तस्वीरों
को देखने में
नहीं चाहिये किसी को
सचमुच के रंग

Saturday 31 October, 2009

अपना अपना स्वभाव

गिरा दोगे आँख से
एक आँसू सा
धूल मे मिल जाऊँगा
मै फ़िर उठूँगा
सूर्य रश्मियों पर सवार
ले हवा का साथ
बनके बादल
बरस जाऊँगा
अनगिनत बूँदे
करेंगी तृप्त
तुम्हे ऒर सब को
फ़ेक दोगे
गुठली सा
किसी फ़ल की
दब रहूँगा धरती तले
मै फ़िर उठूँगा
बीज बन
समर्पित सर्व
धरा के गर्भ मे
गगनचुम्बी वृक्ष बन दे
डाल पत्ते फ़ूल
ऒर ढेर सारे फ़ल
तुम्हे ऒर सब को

Friday 30 October, 2009

पानी केरा बुदबुदा

मुझे मेरे रंग से जानोगे
या जात से कि मेरे पते से
मेरी डिग्रियाँ देखोगे
या फ़िर शरीर
कितनी सीढियाँ चढकर हाँफ़ जाता हूँ
मेरे बाथरूम मे गा चुकने के बाद
वहाँ कोई सुराग मिलेगा मेरा
मेरे कपड़ों का रंग भूरा भी हो सकता था
मेरे जूते मुझे कभी नही काटते
कोई तो डाक्टर दवा देगा ही
रसोई की जाँच भी करके देख लेना
जब कोई उड़ता है तो
उसके पैरों के निशान नहीं बनते
शब्द मुझे बहुत कमजोर लगे तो क्या
तुम कैसे जान लेते हो किसी को
मन कहाँ ठहरा कि विवेचना करो
आत्मा को टेबल पर लिटा कर चीरोगे
नहीं कोशिश भी मत करना
तुम नहीं जान सकोगे
दर असल कुछ है ही नहीं जानने को
बुद्ध को नहीं सुना
पानी का बुलबुला

Thursday 29 October, 2009

कतरन

एक रोशनी के टुकडे पर
मेरे घर का पता होना चाहिये
मुझे एक खत पढना है
जो तुमने नही लिखा कभी
दोनो ही बातों पर
मेरी राय मे डाकिया खास है
ऒर आज भी गरीब है
दूध हमेशा ही मंहगा बिका
दूध की जरूरत हमेशा रही
त्योहारों पर मिठाइयाँ
मिलावट से भी बनती हैं
हलवाई मोटे हैं आज भी
गायें ऒर भैसों की स्थिति मे
कोई सुधार हुआ है क्या
रात कविता सोचने बैठो
तो अच्छी हवा का क्या कहना
कपड़े भी चाहिये
ठंडी हवा से बचने को
मिल की चिमनी
उगलती रहती है काला धुँआ
अब ये मर्जी हवाओं की है
जहाँ चाहें ले जायें
टीबी से जर्जर एक गरीब बूढे को
कवितायें दी जा सकती हैं क्या
दवा ऒर खाने की जगह

Wednesday 28 October, 2009

समर्पण

बिहारी सूर कालिदास ऒर जयदेव
के यहाँ भी नहीं मिले शब्द
जो मै लिखना चाहता था
प्रेम मे तुम्हारे

नहीं भाया रंग कोई
सुबह की लालिमा में
बादलों बरसातों ऒर बगीचों मे
उठाकर उकेर देता
कैनवस पर एक चित्र अमर
प्रेम मे तुम्हारे

मिल गया होता अगर
एक टुकड़ा संगीत
कोयलों नदियों झरनों
या रात की निस्तब्धता मे
मै गाता मधुर गीत कोई
प्रेम मे तुम्हारे

न कोइ फ़ूल ही मै पा सका
भेंट मे देता जो तुम आते
पर मैं समर्पित स्वयं
साथ ले प्राण पण तन मन
ऒर जो भी मेरा अस्तित्वगत है
प्रेम मे तुम्हारे

आ जाओ प्रिय!

Tuesday 20 October, 2009

वार्तालाप

हम मिलें और बात करें
जो हम कहना नही जानते
और कहना चाहते हैं
तुम सुनो भी
तो क्या वही समझोगे
जो हम कहना नही जानते
और कहना चाहते हैं
खुद से पूछता हूँ
कहना चाहते क्यों हो
कहने से क्या होगा
सिर्फ़ कह देने के सिवा
बिन कहे तुम समझो तो ठीक
और अगर नहीं
तो कहना क्या है
इस दुनिया में
सब कहना और सुनना
बेकार ही नहीं तो और क्या है
जब
सब जो ज़रूरी है
बिन कहे ही कहा जा सकता है
बिन सुने ही सुना जा सकता है
बोलो क्या कहते हो!

Thursday 15 October, 2009

सर्वे भवन्तु सुखिन:

युग बीत गये केवल कहते कहते
अब सच मे भाईचारा दिखाइये
जला डालिये कड़वाहट के बीज
प्रेम ऒर दया के फ़ूल खिलाइये
सबकी खुशियों मे शरीक होइये
बोझ दुखों का मिल के उठाइये
झगड़ों को बीती बात बनाइये
पड़ोसियों को तरफ़दार बनाइये
ये जमीन स्वर्ग बन सकती है
अपने भीतर का दिया जलाइये
हर इन्सान दीपावाली मना सके
एक ऎसी भी दीपावली मनाइये.

दीपावली पर समस्त विश्व को असीम मंगल कामनायें.

Wednesday 14 October, 2009

लीला

हर सुबह नया एक जीवन है
शाम सुहानी वादा कल का

हर मौज़ भँवर मे डालेगी
हर माझी नाव डुबोयेगा
डरते हुये तो युग बीता
अब कितना वक्त गँवायेगा
जो होना है सो होगा ही
समझो सब कुछ नाटक ही
अभी जियो ऒर यहीं जियो
जीवन है जीना पल पल का

कोई नही आता ऊपर से
खुद अपना जिम्मा लेलो
भला बुरा सब हाथ हमारे
खुद झन्झावातों को झेलो
पैदल चलते थक जाओ तो
या बैठ रहो या पर लेलो
सुख दुख आते जाते रहते हैं
जीवन नाम इसी हलचल का

हर सुबह नया एक जीवन है
शाम सुहानी वादा कल का

Tuesday 13 October, 2009

और नहीं

एक मुर्दा भविष्य
एक लचर वर्तमान
अभी ठॊर नहीं
राह किसी ओर नहीं
एक जमात मूढ़ों की
बिरादरी गूँगों की
किसी की खैर नहीं
पर ज़रा शोर नहीं
नफ़रत के बीज
दुश्मनी के पेड़
अशान्ति के फ़ल
शराफ़त का दॊर नहीं
ये शोषण लाचारी
गरीबी महामारी
बढती बेरोज़गारी
बस अब ऒर नहीं

Monday 12 October, 2009

हम जो बन सके करते हैं
वो जो मन करे करते हैं

है रोशन किसी से जहाँ
ऒर कुछ यूँही जलते हैं

कुछ को तेरा दर नसीब
बाकी दर बदर भटकते हैं

मस्जिद मे जा बिगड़े हुये
मैखानों मे आ सुधरते हैं

क्यों जीते हैं खुदा जाने
जो न किसी पे मरते हैं

सुन ऎ दिल धीरे से चल
अभी वो आराम करते हैं

Thursday 8 October, 2009

समन्दर की जो प्यास लिये फ़िरते हैं
वो अक्सर पोखरों से फ़रियाद करते हैं

चमन को होगी लहू की ज़रूरत वरना
लोग यूँही कब मुझ को याद करते हैं

तेरे ठिकाने का पता नहीं अभी हमको
सर अपना हर दर पे झुकाया करते हैं

होशियार रहें जो चढ़ने की ठान बैठे हैं
ऊँची जगहों से ही लोग गिरा करते हैं

बन गई है यहाँ मस्जिद मैखाना हटाके
लोग अब कम ही इस तरफ़ गुजरते हैं

क्या क्या गुजरती है हुस्न पर देखिये
खूबसूरत फ़ूल बाजार मे बिका करते हैं

Wednesday 7 October, 2009

सिर्फ़ तस्वीर

मेरे पास तुम्हारी एक तस्वीर है
जो बहुत खूबसूरत है
लेकिन
तस्वीर ही तो है
कुछ खूबसूरत वादे मेरे पास हैं
जो शायद सच भी हों
लेकिन
बातें ही तो हैं
जो शाम ज़ुल्फ़ों की छाँव मे गुजरे
कामयाब ऒर हसीन है
लेकिन
सपने ही तो हैं
हर दर्द जो ये दिल सहता रहा है
चाहे जिसने भी दिये हों
लेकिन
अपने ही तो हैं

Saturday 26 September, 2009

तमन्नाओं के पर कतर दो
आहों को बेअसर कर दो

चलो कर दो रवाना कारवाँ
फ़िर रहजनो को खबर दो

भूखमरी से बच रहे ढीठ
चलो अब उनको जहर दो

जिन्हें दीखता नहीं हुस्न
इश्क की उन्हें नज़र दो

आवाम की भी मानो तो
एक सियासत लचर दो

कन्धें नाजुक हैं लोगों के
हमे घर मे दफ़न कर दो

Friday 25 September, 2009

कुछ काम का नहीं मेरे हुये न तुम
कुछ काम का नहीं मेरे हुये जो तुम

मुद्दतों बैठे रहे हम राह देखते तेरी
ऒर पहलू मे मुद्दतों बैठे रहे हो तुम

रुकते नहीं किसी के लिये ऎ वक्त
क्यूँ मेरे लिये ही ठहर गये हो तुम

कुछ भी मेरा नहीं जब दुनिया में
क्यूँ ऐ दर्द फ़िर मेरे हुये हो तुम

हम अब भी गुनाह करते हैं अदम
यही राह आदमी को दे गये हो तुम

Thursday 24 September, 2009

अब दे दे

कुछ आँसू बहें कुछ बात चले
कुछ बाती बनकर जल जाये
कुछ मोम बने दरिया निकले
कोइ याद बहे कोइ घूँघर बोले
कोइ राग कहे कोइ घूँघट खोले
कोइ गीत सुनाये सुबहों के
कोइ कहीं पपिहा बोले
कोइ लाये सन्देसा कोइ पाती बांचे
कोइ बुलाये कोइ सुलाये
कोइ लोरी गाये कोइ मन का बोले
कोइ आस जगाये कोइ प्यास बढाये
कोइ अपनो का सा अहसास कराये
कोइ छूले दिल के तार सभी
बज़ उठे कोइ सितार कभी
कोइ सपनो को पर दे दे
व्यथा कथा को घर दे दे
कोई सब हो जाने दे
कुछ न कहे बह जाने दे
सब दे दे
रब दे दे
और नही अब इन्तज़ार
अब दे दे
बस रब दे दे

Monday 21 September, 2009

माना कि ज़िन्दगी का हासिल मौत है
ऐसा भी क्या कि अभी से मर जाइये

न कुछ और बन पड़े तो रोइये ज़ार ज़ार
घुट घुट के बेकार क्यों कलेजा जलाइये

सर तो जायेगा अभी नहीं तो फ़िर कभी
कुर्बान जाइये किसी पे क्यों बोझा उठाइये

क्या हुआ दिल टूटा काँच की ही चीज़ थी
किरचों पर इन्द्रधनुष फ़िर नया सजाइये

फ़िर होश मे आने को हैं चाहने वाले तेरे
उठिये सँवरिये निकाब रुख से हटाइये

बात अगर मान जायें वो मेरी एक बार
यही कि एक बार बात मेरी मान जाइये

कुछ नहीं मिलता है आसान राहों पर
मुश्किलें न हों अगर तो लौट जाइये

Friday 18 September, 2009

रस्म निभाने आ पहुँचे
अपने ही जलाने आ पहुँचे
उनको बुलाने दोस्त मेरे
गैर के घर पे जा पहुँचे
मेरे मरने की मुझको
खबर सुनाने आ पहुँचे
मुझसे पहले मेरे चर्चे
उन के दर पे जा पहुँचे
छोड़ आये थे जो चेहरे
मुझे डराने आ पहुँचे
हम तौबा कर बैठे जब
पीने के बहाने आ पहुँचे

Thursday 17 September, 2009

अपना स्वार्थ

ढेर सारे फ़ूल खिले
इस बार मेरे बगीचे मे
भीनी सी खुशबू बिखेरते
लेकिन कोई कैसे भला
अपने ही बगीचे मे
रह सकता है हर वक्त
सो
मैने उठाये खूब सारे फ़ूल
ऒर बाँट आया
गलियों चॊबारों
चॊराहों मैदानो
दुकानों मकानों
अब
मै जहाँ भी होता हूँ
भीनी भीनी खुशबू आती है
हर वक्त.

Tuesday 15 September, 2009

मैं ऒर मैं

तुम मेरे हो
तुमसे लगाव मेरा है
तुम्हारी चाहत मेरी है
तुमसे विछोह मेरा है
उसकी तड़प मेरी है
तुम्हारी आस मेरी है
गहन प्यास मेरी है
तुम्हारे दर्द मेरे हैं
तुम्हारे स्वप्न मेरे हैं
लगाव चाहत विछोह तड़प
आस प्यास दर्द ऒर स्वप्न
से सहमा हुआ ये
गुजरता जीवन मेरा है
अनगिनत रंगीन भावनाओं के
बोझ तले दबकर सिसकते हुये
हॊले से सर उठाकर ये
उभरता गीत मेरा है
आश्चर्य!
इसमे तुम्हारा क्या है!

Thursday 20 August, 2009

उहापोह

तुम हो या कि नहीं हो !
सपने होते हैं ऒर नहीं भी
ऒर ख़याल भी.
मेरे दिन गुज़रते हैं तेरे ख़याल मे
मेरी रातें गुज़रती हैं तेरे सपनो मे
ये दिन ऒर ये रातें
हैं या नहीं !
ऒर अगर नहीं हैं
तो ज़िन्दगी कहाँ है !
तो फ़िर ये क्या है
जो कहीं मेरे भीतर
रह रह के कसमसाता है
घुटता है तड़फ़ड़ाता है
चीखता चिल्लाता है
ऒर ये जान लेना चाहता है
ऎ मेरी ज़िन्दगी !
तुम हो या कि नहीं हो !

मानव विकास

अग्नि धरती जल वायु और आकाश की
गोद मे पलकर एक नन्हा सा बीज
बना विशाल वृक्ष
उससे जन्मे अनगिनत नन्हे बीज
एक एक बीज को फ़िर सँभाला प्रकृति ने
ऒर फ़िर अनगिनत वृक्ष
ऒर अधिक बीज
ऒर ऒर वृक्ष
हर ओर पास पास ऒर दूर भी
हुआ विस्तार ऒर हो गये बहुत बहुत दूर
एक ही कोख से जन्मे।
इस ओर के एक वृक्ष ने बना ली चौपाल
अपने पास के वृक्षों को फ़ुसलाकर
जाने क्यों!
ऎसा ही किया उस ओर के वृक्षों ने भी
उसी वजह से
जाने क्यों!
फ़िर आई एक भयानक अशान्ति
जहाँ है
ढेर सारी कटुता
ढेर सारी निर्दयता
ढेर सारा वैमनस्य
ढेर सारी घृणा
ऒर फ़िर
सड़कों पर मकानों में
मन्दिर में दुकानों में
नदियों पहाड़ों पर
सागर ऒर किनारों पर
बेवजह बहता हुआ
गर्म लाल
जो देखते हो तुम
वो खून है
उस पहले बीज की आत्मा का
जो चीखती चिल्लाती
अपने को नोचती बदहवास
आकाश से पाताल तक
आदि से अनन्त तक
भागती फ़िरती है
एक शान्त कोने की चाह में
जहाँ हो
ज़रा सी ममता
ज़रा सी दया
ज़रा सी सहिष्णुता
ज़रा सा प्रेम।

Monday 17 August, 2009

धूप छाँव

अभी तुम थे अभी नही हो
तुम जो कहते थे
सुबह हर रात की होती है
हर वीराने को घर होना है
तुम जिससे की
जिन्दा थी हसरतें
रोशनी का पता मिलता था
बैरंग से किसी एक ख़त को
जैसे एक मकाँ मिलता था
हवायें फ़ुसलाकर न जाने कहाँ कहाँ
तैयार रहती थीं भटकाने को
हर एक खयालात ने ठानी थी
छोड़ जाने को आशियाने को
तुम जो कि
किस्से सुनाते थे सूरजों के
कि गहराई हुई रात कटे
उम्मीदें जमा होने लगी थीं
आहट सी सुनी थी सुबह की
जीने के लिये फ़िर एक बार
दिल ने कहा था कि आओ चलें
उठके दो कदम और फ़िर देखा फ़िर के
सोचा था कि तुम मिलोगे मेरे पीछे
मुस्कराते हुये और कहोगे कि चलो दौड़ें
तुम जो कहते थे कि मरती नहीं है ज़िन्दगी
कहाँ हो तुम !
अभी तुम थे अभी नही हो
दिल है कि मानता ही नहीं
ऒर ये लगता है
अभी भी तुम हो
और यहीं कहीं हो!