Saturday 23 July, 2011

अकल बड़ी या भैंस

भैंस नहीं पूछती
अक्ल बड़ी या इन्सान
अक्ल भी नहीं पूछती
ऐसे तात्विक प्रश्न

Thursday 21 July, 2011

प्रगति

हमने की है
बहुत तरक्की 
पिछले दो सौ सालों में
हम करेंगे
और भी तरक्की
अगले दो सौ सालों में
बचे रहे अगर तो

Tuesday 19 July, 2011

वहम

वहम सबको आज़ादी का है मगर
हर कोई यहाँ सीखचों के उस पार है
मिली है किसी को उम्र कैद की सजा
और कोई तो सूली पर खड़ा तैयार है
घुटने लगा है दम अब इस चमन में
बासी हो चुकी है हवा बदलनी चाहिए
बन सकती है जरूर जन्नत ये जमीं 
ये जमीन जन्नत बननी ही चाहिए
बहुत गहरा चली है ये सियाह रात  
अब बस इक नई सुबह की दरकार है
वहम सबको आज़ादी का है मगर
हर कोई यहाँ सीखचों के उस पार है
ज़िंदगी गीत गाती नाचती फिरती हो
बस हर तरफ हों जगमगाते उजाले 
जहाँ सांस लेने पर पाबंदियां न हों 
और न हों दिल कि धडकनों पर ताले
इंसान की सेहत को आज़ादी चाहिए
इस वक्त तो लेकिन आदमी बीमार है
वहम सबको आज़ादी का है मगर
हर कोई यहाँ सीखचों के उस पार है
आम आदमी की बुरी हालत हो गई है 
और इंसानियत किस तरह लाचार है
जो कुछ कर सकते हैं उनके लिए तो
भूख और गरीबी भी महज व्यापार है
चील कौवों की तरह नोंचते फ़िर रहे
ऐसी शासन व्यवस्था को धिक्कार है
वहम सबको आज़ादी का है मगर
हर कोई यहाँ सीखचों के उस पार है

Monday 18 July, 2011

सैनिक से

सरहदों की हिफाज़त करने वालों
तुम जिन झूठी लकीरों की खातिर
अपना खून पानी की तरह बहाते हो
उसके बदले में तुम्हारे बूढ़े बाप को
पानी की एक बोतल भी नहीं मिलती
तांबे  के जिन टुकड़ों को तमगों जैसे
बड़े फक्र से तुम छाती पर सजाते हो
उनको बेचकर तुम्हारे छोटे बच्चे को
चवन्नी भर चूरन तक नहीं मिलता 
जो तुम्हारी मौत को शहादत कहते हैं
वे तुम्हारी लाश पर सियासत करते हैं
वे तुम्हारे नाम पर फहराते तो हैं झंडा 
नज़र में उनकी होता है मगर वो डंडा 
जिसके दम पे वो तुम्हारे भाइयों और
बहनों का तबीयत से चूसते हैं खून 
पीने को सिर्फ आँसू और खाने को गम 
केवल यही मिलता है उनको दोनों जून 
तुम मजारों पर मेलों का ख़्वाब देखते हो 
तुम्हारी बेवा चंद ठीकरों को तरसती है
तुम अपने बाकी निशाँ का फक्र करते हो
ज़िंदा निशानी तुम्हारी दर दर भटकती है 
जिन चंद लोगों के हाथों का खिलौना 
बनके बेकार में गंवाते हो अपनी जान
उनकी जालसाजियों को ठीक से जानो 
करो तो ज़रा उनके ईमान की पहचान 
कागज़ के नक्शों पर खींच कर लकीरें 
तुमको मोहरे बनाकर बाज़ी बिछाते हैं
हथियारों के ज़खीरे की दुकाने सजाकर 
वे तुम्हारी मौत का सामान जुटाते हैं 
हम सब पर चढ कर राज करने के लिए 
उन्होंने खींची हैं जो ये लकीरें नकली 
ज़रा देखो तो सही वे कहीं हैं जमीं पर
जिनके लिए तुम बहाते हो खून असली 

Friday 15 July, 2011

अधर्म युद्ध

अमन के साथ लहू को बहा ले गई बारिश
बेवा का मुस्तकबिल आंसुओं में बह गया
किसी के बुढापे का सहारा टूटा चटक कर 
किसी के ख़्वाबों का खण्डहर ढह गया 
जुगनू फूल तितलियाँ थीं दुनिया उसकी 
बच्चे की ज़िंदगी में भला क्या रह गया
सफ़ेदपोशों को सियासत का मुद्दा मिला
तमाम मासूमों की ज़िंदगी से रंग बह गया 
फिर गुमराह कर दिए गए कुछ नौज़वान 
फिर ज़माना हैवानियत पे हैरान रह गया
कैसा वक्त है कि किताबें खंजर बन गईं हैं 
बजाये ज्ञान गंगा लहू का दरिया बह गया
इंसानियत ने अपना ही खून कर डाला
ये वार भी खुदा खुद अपने पे सह गया

Tuesday 5 July, 2011

हमारे दिलफ़ेंक सर जी

पश्चिमी दिल्ली के भीड़भरे
एक रिहायशी इलाके के
अन्दर की तरफ़
किसी तंग गली में
था एक दफ़्तर
जहाँ काम करते थे
एक हमारे सर जी
हमारे दिलफ़ेंक सर जी
जब तब फ़ेंक देते थे दिल सामने
कन्या हो या महिला
विधवा या परित्यक्ता
सर्व धर्म समभाव रखते थे वे
न उम्र देखें न रंग
बस जरा वो सब हो वहाँ वहाँ बदन में
जिसके होने से होती है कोई नारी नारी
और ज्यादा ज्यादा हो
लेकिन न भी हो तो भी ठीक
जब तक कि पता है नारी है
खैर जरूर बहुत लुभाता सा रहा होगा
उनका दिल
क्योंकि उठा ही लिया जाता था अक्सर
अबके जिन मैडम ने उठा लिया था उसे
मरुती मे आती थीं चला के
बाहर मेन रोड तक गलियों से निकलकर
आटो मिलने की जगह तक
सर जी को दिया करती थीं लिफ़्ट
वे उनको चुम्बन किया करते थे गिफ़्ट
देर शाम हो जाये जब अँधेरा
रोशनी से नहा जायें सड़कें गलियाँ
मैडम अपना गिफ़्ट लेने के लिये
रोका करतीं थी गाड़ी सडकपर
ठीक से देखकर
जहाँ उनके ऊपर
तेज रोशनी वाला हैलोजन न हो
उनकी इस होशियारी को
बहुत पसन्द करते थे सर जी
और ऊपर लटके बड़े बड़े हैलोजनों को
बहुत नापसन्द किया करतीं थीं मैडम
उनके इलाके का वो छोकरा सभासद
कभी सपने में भी न सोच सके शायद
कि उसे एक वोट कम मिलेगा अगले चुनाव में
बतौर हैलोजन लगवाने की सज़ा


(हमारे एक प्रिय सर जी के रोमांचकारी जीवन का एक पन्ना है ये; सोचने वाली बात है कि पूरी किताब कितनी दिलचस्प न होगी !)  

Saturday 2 July, 2011

जिस काफिर पे दम निकले

है तो इक दोस्त मेरा वो
दुश्मनी का मजा देता है
जान लेता है नजरों से
फिर जीने की दुआ देता है
अपनी पलकों से छूकर
जिस्म को रूह बना देता है
सर्द सी आह सीने में
तबस्सुम से उठा देता है
और फिर दहकते शोले
मेरे होठों पे सजा देता है
छीन लेता है होशोहवास
तोहमत सी लगा देता है
खुशनुमा रातों में अब भी
वो जख्म मजा देता है
है तो इक दोस्त मेरा वो