Friday 28 September, 2012

कुट गए डार्विन भईया

 
जब स्वर्ग पहुँचे डार्विन भाई 
बंदरों ने कर दी उनकी पिटाई 
बोले आदमी को ऊँचा बताते हो 
उन्हें हमारा विकास बताते हो 
वो तो बहुत ही गया बीता है 
भाई भाई का खून पीता है 
औरतों से ही जनम पाता है 
कोख को उनकी कब्र बनाता है 
किताबों में नारी का गुणगान करता है 
हकीकत में घोर अपमान करता है 
प्रेम के गीत गाता है 
जीवन घृणा से बिताता है 
दुनिया में हर कोई किसी का दुश्मन है 
इंसानियत विकास नहीं हमारा पतन है 

Thursday 20 September, 2012

फुहारें

जगह दे देती है सड़क
पानी को बारिश में 
बैठ जाती है यहाँ वहाँ 
उखड़े पत्थर बजरी 
छोटे छोटे ताल तलैया 
जलभराव और चलना मुश्किल गाड़ियों का 
लगा जैसे कह रही है सड़क 
ज़रा ठहरो भी 
ये हर वक्त की भागम भाग क्यों 
गाड़ियों को रहने दो भीतर 
पुराने अखबार निकालो 
नावें बनाई जायें 
भूल गए हो तो सीख लो बच्चों से 
बरामदे में बैठो 
फुहारों के साथ मजा लो पकौड़ियों का 
चाय पियो तसल्ली से 
साथ हो प्रिय तो पहलू नशीं रहो कुछ देर 
न हो साथ तो तसव्वुरे जानाँ की फुरसत निकालो 
बूँदों के संग नाचो गुनगुनाओ 
तनिक भीग भी लो
या यूँही बिता दोगे जिंदगी 
सूखी सूखी सी 

Thursday 13 September, 2012

फिर सही

रोज सुबह आँख खोलते ही 
आसमान की चुनौती 
उत्साहित करती है 
उसकी विस्तृत नीरवता पुकारती है 
आगे आगे भागते  
पीछे मुड़कर मुस्कराते हुए 
हाथ के इशारे से साथ बुलाते 
किसी बचपन के दोस्त सा 
एक शुभ्र बादल का टुकड़ा 
कहता है चले आओ 
डैने खोलता हूँ 
पर तोलता हूँ 
निकलना है अनंत की यात्रा पर 
पेट में कुछ तो दाना चाहिए 
खोज में निकलता हूँ 
बीत जाता है दिन उसी में 
लौटने लगते हैं परिन्दे  
गहराने लगती है रात 
डैने समेट लेता हूँ 
आँखों में नींद के साथ साथ 
उतरने लगता है 
सुबह उठकर 
एक और प्रयत्न का स्वप्न 

Wednesday 12 September, 2012

जीरो लॉस

 
चारा खाना तो पुरानी बात हो गई 
फिर इन्होने स्पेक्ट्रम खाया 
अभी अभी खनिज लोहा 
पचा भी नहीं था 
इनने कोयला खाना शुरू कर दिया 
ये मेनू तो बड़ी बड़ी दावतों का है 
छोटी छोटी और चीजें तो खैर 
ये खाते ही रहे बीच बीच में 
तोपें ताबूत गोले बारूद 
बालू बजरी हवाई जहाज 
पुल जमीनें सड़कें खाद 
रुपया तो बीच बीच में 
बिटविन द मील्स 
बिफोर द मील्स 
आफ्टर द मील्स 
और हाजमा इनका गज़ब का है दोस्तों 
सब पचा डालते हैं 
निकालते कुछ भी नहीं 
जीरो लॉस 

Tuesday 11 September, 2012

थोड़ा कोयला देना सरकार

कुछ इंसान अभी अभी निकले हैं 
पन्द्रह दिन तक पानी में रह के 
जड़ा गए होंगे बेचारे 
हड्डियाँ ज़रा सेंक लें 
तनिक आग जलाई जाए 
आपसे बस इतनी है दरकार 
थोड़ा कोयला देना सरकार 
उधर नीचे कुछ मदरासी बंधु 
रूस और जापान के हादसों से डरे 
अपनी सेहत और जान की चिंता में 
खा रहें गोली 
डाक्टर वाली नहीं 
पुलिस वाली 
अरे बिजली ही तो देनी है ना उनको 
तो कुछ और करिये उपचार 
थोड़ा कोयला देना सरकार 
एक कनपुरिया सज्जन 
दिसा मैदान को निकले होंगे 
अँधेरे में दिखाई नहीं दिया होगा 
ऐसी जगह फारिग हो गए 
कि बुरा मान गए साहब लोग 
हालांकि जगह तो ठीक ही चुनी थी 
सो बंद हैं ससुराल में 
लिखने का शौक है सुना उनको 
अब कागज़ कलम कहाँ वहाँ 
रंगने पोतने को है दीवार 
थोड़ा कोयला देना सरकार 

Friday 7 September, 2012

खूबसूरत अँधेरे

जाते जाते सांझ ने 
आसमान के ऊपर से खींच दी चादर 
कुछ गहरे बादल 
व्यस्त हो गए तारों से खेलने में 
कभी कोई टूटता सितारा 
खींच चाँदी की लकीर गुम हो जाता 
बेहद कमजोर हँसुली सा खूबसूरत चाँद  
नीचे इधर उधर टिमटिमाती रोशनियाँ 
घने अँधेरों में उकेरा गया एक  
बेहद हसीन मंजर 
बस ज़रा सी देर में 
सुबह फाड़ डालेगी अँधेरे का ये कैनवास 
और तमाम चिरागों के क़त्ल का लहू 
अपने दामन में समेटे 
बेशर्मों की तरह 
मंडराता चमकता फिरेगा 
बदमाश सूरज 

Monday 3 September, 2012

सभ्यता

मुझे बताया गया है कि 
एक आदमी हूँ मैं 
और ब्राह्मण हिन्दू 
तमाम और उप विभाजन 
भाई पिता बेटा मित्र सह कर्मचारी 
और ये भी कि 
मैं हूँ चतुर बेईमान शरीफ क्रोधी 
अनगिनत लकीरों से भेदा गया है मुझे 
असंख्य टुकड़े समेटे 
अपने जैसे असंख्य टुकड़े समेटे 
अन्य असंख्य लोगों से मिलना 
उफ़ 
मै कभी अपना ये वाला टुकड़ा आगे कर देता हूँ 
वे अपना वो वाला 
कहीं कभी और 
मेरा दूसरा कोई टुकड़ा 
उनके किसी और ही टुकड़े से मेल खाता है 
कभी नहीं भी मिल पाता 
मै या फिर वो 
या तो पेश नहीं कर पाते उचित टुकड़े उस वक्त 
या चाहते नहीं किसी वजह से 
अनगिनत लोग अनगिनत टुकड़े 
और अनगिनत संयोग 
उचित समय उचित स्थान पर 
उचित टुकड़ा खोजना निकालना पेश करना 
टुकड़ों के टुकड़ों से इस मिलने को 
कहा जाता है सभ्यता 
बहुत पेचीदा खेल है ये 
ज़रा चूके और गए 
और हाँ 
सत्य इस खेल में 
कहीं नहीं आता बीच में