Wednesday 31 March, 2010

रस्सी

खूँटे से बंधी भैंस
घूम फ़िर तो लेती है
हमारी तरह ही
लेकिन ज़रा कम
उसकी रस्सी जो छोटी है
हमारी रस्सी से

Tuesday 30 March, 2010

इतिहास

प्रारम्भिक राजवंशीय काल के
मेसोपोटैमिया के युद्धों से लेकर
अत्याधुनिक आतंकवाद के विरुद्ध
चल रहे युद्धों तक
मानव इतिहास पटा पड़ा है लड़ाइयों से
इतिहास का मतलब ही है शायद
युद्धों का इतिहास
केवल संघर्षों की कहानियाँ भर हैं
पुस्तकों में वर्णित हमारी गाथायें
हर वक्त होता ही रहा है धरती पर
कहीं न कहीं युद्ध
और कुछ नहीं
तो शान्ति के लिये युद्ध
जीना आता ही नहीं हमें
जैसे शान्ति से
बुनियादी रूप से ही गलत है शायद
हमारे जीने का ढंग
सेना राजा राज्य आक्रमण
ध्वस्त धराशाई परास्त विजयी
सन्धि समर्पण इत्यादि मात्र दर्जन भर शब्दों मे
सिमटकर रह गया है इतिहास
हमारी इतनी लम्बी मानव सभ्यता का
या असभ्यता का

Monday 29 March, 2010

दोनो हाथ उलीचिये

जब कोई चला जाता है
तो छोड़ क्या जाता है
किसी को दे जाता है दौलत
किसी को प्रेमपूर्ण यादें
किसी को गालियाँ
किसी को नाम
किसी को आंसू
और ले क्या जाता है भला
कुछ नहीं
तो सारा मामला आखिर
दे जाने भर का ही है
ले जाने का तो कोई जुगाड़ ही नहीं

Sunday 28 March, 2010

राख का ढेर

समस्यायें अब ज्वलंत नहीं रहीं
सदियों जलने के बाद
अब सिर्फ़ राख का ढेर भर है
कुरेदेने पर भी नहीं मिलती
एक भी दबी चिन्गारी
इनको हवा देने से
नहीं भभक उठती कोई ज्वाला
उड़ती राख भर जाती है आँख मे
थोड़ा मलने के बाद
चल देते हैं अपने रास्ते
जैसे कि चल देना ही सब कुछ हो
जैसे कि रास्ते पहुँचाते ही हों
जैसे कि कोई वास्ता ही न हो समस्यायों से
जैसे कि वे अपनी हो ही नहीं
जैसे कि सब ऐसे ही चल जायेगा हमेशा
जैसे कि किसी को कुछ भी करना न होगा
करें भी क्या हम
फ़ुरसत कहाँ है
मगर जब फ़ुरसत होगी
बहुत देर हो चुकी होगी

Saturday 27 March, 2010

जो है जैसा है

माँ बाप सोचते थे कि थोड़ा मेहनती और होता मै
यूँ नहीं कि उन्हे मुझसे प्यार न था
लेकिन फ़िर भी जैसा था मै
उन्हे स्वीकार न था
यही हाल मेरे गुरुओं का था
ऐसा ही कुछ मेरे दोस्तों को भी खयाल था मेरे लिये
अआदमी तो ये ठीक है लेकिन
जरा ऐसा होता तो अच्छा था
जरा वैसा न होता तो अच्छा था
हर इन्सान जो मिला और करीब आया मेरे
और शायद वो भी जो करीब नहीं आया
कुछ न कुछ तो काट छाँट करना ही चाहता था मुझमे
जैसा मै हूँ या था
वैसा तो मंजूर ही नहीं रहा कभी किसी को मै
हो सकता है
इस वजह से कुछ बदलाव किया हो खुद मे मैने
कोई नहीं कह सकता
ठीक रहा ये बदलाव या गलत
लेकिन इससे भी क्या होता है
लोग तो अभी भी
कुछ न कुछ बदलाव की चाहत लिये ही हुये हैं
न मेरी मर्जी से कुछ मतलब
न ईश्वर की मर्जी से कोई वास्ता
सोचो तो
क्या मजा है
परमात्मा को भी जो है जैसा है स्वीकार है
लेकिन इन माटी के पुतलों को नहीं

Friday 26 March, 2010

तहजीब

न जाने कितने सवालों के जवाब देता आया हूँ
जिनके बारे मे मुझे ठीक से कुछ भी पता नहीं था
लोगों ने मान लिये होगें उत्तर
ऐसा तो नहीं समझता मै
लेकिन उन्होने औरों को
जवाब देने में इस्तेमाल जरूर किये होंगे
जैसा कि मुझे ही मिले थे औरों से
सब जवाब बेमानी
आदिकाल से हैं
सवाल करने वाले
जवाब देने वाले
और इस कचरा सी माथा पच्ची के बीच
सवाल खड़े हैं आज तक
वैसे के वैसे ही
चाँद तक छान डालने वाली मनुष्यता
अपनी ऊँचाइयों का दम्भ भरते नहीं अघाती
लेकिन मुझे दिखती है
बेबसी असहायता लाचारी
उसी मनुष्यता की
जहाँ आज भी चुनौती की तरह खड़े हैं
बुनियादी सवाल
भूख के अत्याचार के शोषण के अन्याय के
हज़ारों सालों के
इन्सानी वज़ूद और तहज़ीब के बाद
और उसके बावज़ूद

Thursday 25 March, 2010

महाभारत की असली कथा

दु:शला का एक वंशज मिला मुझे
कानो सुनी बता रहा था
कि पांडव बड़े दुष्ट थे
एक नम्बर के धूर्त
महा शराबी लंपट दुराचारी
रोज पीटें द्रौपदी को
गरियायें अपनी माँ को
अपने बाप तक को नहीं बख्शा
न काम न काज
जुआड़ी तो खैर वे जग जाहिर थे
प्रजा त्रस्त
बुरा हाल राज्य का
न कहीं न्याय
न खाने को अनाज
सब तरफ़ अधर्म ही अधर्म
पड़ोसी राजा लूटमार पर उतारू
और फ़िर
धर्म के पुनुरुत्थान के लिये
बेचारे परम प्रतापी राजा दुर्योधन को
आ गया तरस निरीह जनता पर
सौ पुण्यात्मा भाई
सारे श्रद्धेय वृद्धजन और गुरू मिल बैठे
विचार किया और छेड़ दिये लड़ाई
खूब लड़े लेकिन जीत न पाये
अरे बड़े कुटिल थे पांडव
और पटा लिये थे कृष्ण महराज को भी
और फ़िर कपटी व्यभिचारी इन्सान से
भला सदाचारी जीते हैं कभी
खैर हमने कहा
कि हम तो पढे हैं कुछ और
इतिहास मे
तो वो कहने लगा
भइया तनिक सोचो
कौरवों के खतम हो जाने बाद
आखिर लिखाया किसने होगा इतिहास

Wednesday 24 March, 2010

मेरे पापा

मेरे पिता पर कविता लिखना कठिन है
न रस न लालित्य न माधुर्य
प्रेम संवाद ही नहीं हुआ कभी हमारे बीच
न वाणी से
न अन्यथा
अलबत्ता कुछेक दफ़े मेरे गालों से ज़रूर
उनकी हथेलियों का विस्फ़ोटक संवाद हुआ है
जाने क्या चाहते थे वे ज़िन्दगी से
असन्तुष्ट व्यग्र तीव्र उत्सुक
झपट्टा सा मारने को तैयार
वे यकीनन चाहते थे कि हम बने
बड़े ऊँचे धनवान प्रसिद्ध
कुल मिलाकर एक ज़ुनून थे वे
वो बताने को हैं नहीं
और हम जानते नहीं
कि हम कहाँ पहुँच सके उनके हिसाब से
खैर जहाँ भी पहुँचे हम
इसमे उस ज़ूनून का दखल अव्वल है


(राम नवमी, मेरे पिता की पुण्यतिथि पर, उन्हे असंख्य श्रद्धा सुमन अर्पित)

Tuesday 23 March, 2010

जैसा चाहो

पसन्द नहीं मै ?
मुझे तोड़ो
चूर चूर करो
पीसो
भिगोओ
गूँथो
ढालो
रंगो
सजाओ
जैसा चाहो

Saturday 20 March, 2010

वह

सौन्दर्य की क्या तस्वीर बनाये कोई
गुलाब की बनाई जा सकती है तस्वीर
प्रभात पर लिखी जा सकती है कविता
खिले चेहरे पर गाये जा सकते हैं गीत
लेकिन सौदर्य
वो तो है सिर्फ़ एहसास भर
यूँही है कुछ शिव भी और सत्य भी
किसी बच्चे की किलकारी मे सुनो उसे
किसी प्रेमी की आँख में झाँक देखो उसे
किसी सुबह की ताजी हवा में छुओ उसे
वह हर जगह है
लेकिन अगर उसे
न देखने न सुनने न छूने की
जिद ही पे उतारु हो कोई
तो वह फ़िक्र नहीं करता इसकी कतई
और वो तुम्हारी शर्त पर
तुम्हे हतप्रभ भी नहीं करता
वो नहीं है कोई मदारी
वह है होना
शुद्ध अस्तित्व

Friday 19 March, 2010

भविष्य वाणी

कल हाथों मे छिपा है
पर क्या पढ़ना लकीरें
कलम पकड़ें हाथ मे
या हल कुदाल
या फ़िर कूची बांसुरी सा कुछ
लग जायें अभी मेहनत से
इसी आज से निकलेगा कल
और जब वह आयेगा
अपनी परम भव्यता मे प्रकट होगा
केवल तभी जब
आज को सर्वस्व समर्पण किया हो हमने

Thursday 18 March, 2010

जीवन एक सम्भावना

कंकड़ जैसा ही दिखता है
अभी तो बीज
लेकिन मिट्टी तोड़ेगी अहंकारी आवरण
पानी की प्राणदायिनी शक्ति
सूरज की गर्मी
हवाओं के थपेड़े
और आकाश का विस्तार
ले आयेंगे अंतर
और फ़िर तब
सिर्फ़ तभी
फ़र्क होगा
बीज और कंकड़ में
जीवन मिलता है इसी तरह हमे
एक अवसर की तरह
और साधन की तरह पंच तत्व
सम्यक उपयोग से इनके
हजारों फ़ूल लगते हैं जब
और सुवास होती है हमारे जीवन मे
तभी पहचान होती है
कि जो मिला था हमें
वो बीज था
नहीं तो कंकड़

Wednesday 17 March, 2010

एट्किन्स डाइट

उन्होने रोटियों पर हस्ताक्षर किये
फ़िर वे सरकारी मुहर के लिये भेज दी गईं
एक बाबू हफ़्तों तक रजिस्टर भरता रहा
उनके डिस्पैच के लिये
साधारण डाक से वे पहुँचीं
जरूरतमन्दो के हाथ आते आते
खाने लायक नहीं बचीं वे
और कुछ वे भी नहीं बचे
जिनके लिये भेजा गया था इन्हे
बड़ा पुण्य का काम है
रोटी देना
वो भी उनको
जो अपने हाड़ से खोदते हैं खेत
सारी जमा पूँजी और सारी उधारी देते हैं बो
अपने खून से करते हैं सिंचाई
उम्मीदों की हवा में पसीना सुखाकर
पैदा करते हैं गेंहू
पलकों से चुनकर दाने पहुँचाते हैं गोदामो मे
बहुतों को संतोष है इस पर
चैन से सो जाते हैं पी खाकर
और हाँ गेंहू नहीं खाते वे
नो कार्ब
मोटापे की वजह से
एट्किन्स डाइट पर चल रहें हैं
सिर्फ़ प्रोटीन
खालिस मांस

Tuesday 16 March, 2010

निर्णय

दस बरस के एडोल्फ़ की हत्या
शर्तिया एक जघन्य अपराध होती
मगर फ़िर दुनिया
एक हिटलर से बच गई होती
क्या गलत क्या सही
कौन तय करेगा
जानता ही कौन है

Monday 15 March, 2010

जंजीरें

न जाने कौन सा सुख है जंजीरों मे
लेकिन सुख होगा ज़रूर
तभी तो
हम अगर छोड़ भी पाते हैं
कोई पुरानी जंजीर
तो तभी
जब पकड़ लेते हैं
और नई जंजीरें

Saturday 13 March, 2010

विमुख

तुम्हारे हित मे है कि तुम
पीठ कर लो मेरी ओर
सूरज को नहीं देखोगे
तभी तो देख पाओगे
जो दिखता है
उसके होने पर

Thursday 11 March, 2010

असंगति

एक अकड़ के आ रहा है
दूसरा मुँह छुपाये है
एक का गला फ़ूलों के हार के काबिल है
दूसरे का फ़न्दे के
आस्तीन पर दोनो के लहू है
इन्सान का

Wednesday 10 March, 2010

मा फ़लेषु कदाचन

बोर्ड की प्रथम परीक्षा मे जाने से पूर्व
भगवान की मूर्ति को प्रणाम करने को कहा गया
इससे क्या होगा
एक स्वाभाविक प्रश्न निकला
सब ठीक हो जायेगा
एक घिसा सा उत्तर मिला
पर मै तो सिर्फ़ वही प्रश्न हल कर पाया
जो मुझे आते थे
बाकी नहीं
लेकिन परिणाम शेष था
सो प्रभु के सब ठीक करने का थोड़ा भरोसा भी
अंतत: परीक्षाफ़ल मे उतने ही अंक मिले
जितना मैने हल किया था
तो क्या प्रभु ने कुछ नहीं किया
खैर
और और परीक्षायें आईं
नौकरी पाने के लिये
जीवन साथी का विश्वास पाने के लिये
बच्चों के उचित विकास के लिये
समाज मे ऊँचे स्थान के लिये
हर बार प्रभु को प्रणाम किया
हर बार वही मिला जितना कर पाया
उतना ही मीठा जितना गुड़ डाला गया
न कम न जादा
क्यों फ़िर फ़िर प्रभु को प्रणाम जारी है
क्या इसलिये कि परीक्षा की पूरी तैयारी ही नहीं होती
और जो भी कुछ रह जाता है
उसके प्रति आशंका बनी ही रहती है
उस डर के चलते झुक जाता है सर
एक मूर्ति के समक्ष
श्रद्धा लेशमात्र नहीं
मेरा विश्वास है कि
समर्पण पूर्ण हो अगर
तो नहीं होगा डर
तो हर परीक्षा में
हम पूर्ण तैयार होंगे
और इस पूर्णता का
सौ प्रतिशत अंकों से
कोई लेना देना नहीं है

Tuesday 9 March, 2010

मेरे बिना

जब मै नहीं था
तब सिर्फ़ ये कि
मै नहीं था
जब मै नहीं होऊंगा
तब सिर्फ़ ये कि
मै नहीं होऊंगा
कोई इस तथ्य को
कोई महत्व दे तो दे

Monday 8 March, 2010

यह भी गुजर जायेगा

यह भी गुजर जायेगा
ये महावाक्य पढ़ा था कभी
एक बार जब तकलीफ़ में थे हम
याद आ गया ये वाक्य
अच्छा लगा सुकून मिला दिल को
और जब बहुत खुश थे कभी हम
याद आ गया वही महावाक्य
नहीं अच्छा लगा इस बार
भूल हो गई यहीं
चूक गये जीवन के मूलमन्त्र से
हम सब हमेशा हमेशा से
यूँही चूकते आये हैं
अभिशापित है इन्सानियत क्या
क्या यही है नियति

Saturday 6 March, 2010

भारत रत्न

चलो अब
छापो मेरी किताबें
मेरा गुणगान करो
बनाओ मूर्तियाँ मेरी
पुरस्कृत करो मुझे
मरणोपरान्त

Friday 5 March, 2010

रचना

घुटन तड़प छ्टपटाहट
बेचैनी उदासी घबराहट
कितने बौने शब्द
कितनी बड़ी अनुभूतियाँ
आग जलाती है
लेकिन आग शब्द में
नहीं कोई तपिश
पानी पानी लिखते रहने
या रटते रहने से
नहीं बुझती है प्यास
नहीं शब्दों मे सत्य
वरन उसमे
जिसकी खबर लाते हैं शब्द
सिर्फ़ खबर भर उस पार की
क्या है फ़िर
और क्यों है
लिखने की कोशिश
मात्र बेचैनी
या वक्तव्य भर का सुख
गर्भ अनुभूति का
अमरत्व की पिपाशा
होने का बढ़ के छलकना
या कुछ और
जो भी है खैर
जब तक है
लिखे बिना
कोई गुजारा नहीं

Thursday 4 March, 2010

लंगोटिया यार

लंगोट बहुत करीब होता है उसके
सबसे ज्यादा करीब
जिसके लिये वह होता है
इतने ही करीब दोस्तों को
कहते हैं लंगोटिया यार
हैं मेरे भी कई
जिनके लिये मैं हूँ लंगोट
जरा सोचो
तुम क्या हो दोस्तों

Tuesday 2 March, 2010

स्वान्त: सुखाय

फ़ूल खिलते हैं
खूशबू लुटाते हैं
निस्वार्थ
ऐसे कई उपमानों से लैस
मै कविता सुना रहा था कि तभी
मेरी छोटी सी बिटिया ने
आकर एक तथ्यगत सत्य
किया उद्घाटित
ऐसा नहीं है
फ़ूल अपने पराग को
दूसरे फ़ूलों तक पहुँचाने के उपक्रम में
बिखेरेते हैं गन्ध
जिससे कि सन्तति हो सके
इसमे स्वार्थ है उनका अपना
अभी अभी पढ़ा होगा उसने
और अभी अभी ही मैने
पुन: अविष्कृत किया कि
कविता ही नहीं अपितु
सब कुछ वो जो सुन्दर है शिव है और सत्य है
होता ही है स्वान्त: सुखाय

Monday 1 March, 2010

प्रभु की शिक्षायें (बुरा न मानो होली है)

अपने पड़ोसी को प्यार करो
प्रभु बोले
इस पे मजाक किया किसी ने
कि देख के करना
जब उसका पति न घर पर हो
दूसरों से वैसा व्यवहार करो
जैसा तुम चाहते हो वे करें तुम्हारे साथ
सुना ऐसा भी कुछ बोले थे ईश्वर पुत्र
चाहते थे हम
एक चुम्बन मिल जाये
अपनी पड़ोसन से
तो क्या दे डालूँ मै उसे एक