ऐ जगमगाती रोशनियों |
कभी आओ इधर भी |
युगों से जहाँ पहुंचा नहीं कोई |
उस पार के अँधियारे चाँद की |
कुरूपता का बखान भी कभी हो |
जिन खयालों पर अपराध के ताले लगें हैं |
किस जमीन में वे पनपते हैं आखिर |
चर्चा हो जाए ये भी कि |
काले अक्षरों में सब कुछ सफ़ेद ही होता है क्या |
जो झुठलाया जाकर भी होता तो है ही |
जवान बेवा की कामनाएँ ज्यूँ दफ़न रिवाजों में |
इंसानियत किन्ही अरमानों की |
कब्रगाह बनी घूमती न हो सदियों से |
सच के कुछ मोती न छुपे हों |
गहरी अँधेरी घाटियों में कहीं |
आओ चलके देखें तो सही |
बने बनाए के बिगड जाने की आशंका |
पुरुषार्थ को कोई चुनौती भी अगर है |
फिर भी शायद |
चाँद को एक बारगी ही सही |
पूरी रोशनी में देख लेने की चाह |
उद्वेलित करती है मुझे |
कभी आओ इधर भी |
ऐ जगमगाती रोशनियों |
Friday, 16 November 2012
देखें तो सही
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