Friday, 16 November 2012

देखें तो सही

ऐ जगमगाती रोशनियों 
कभी आओ इधर भी 
युगों से जहाँ पहुंचा नहीं कोई 
उस पार के अँधियारे चाँद की 
कुरूपता का बखान भी कभी हो 
जिन खयालों पर अपराध के ताले लगें हैं 
किस जमीन में वे पनपते हैं आखिर 
चर्चा हो जाए ये भी कि 
काले अक्षरों में सब कुछ सफ़ेद ही होता है क्या 
जो झुठलाया जाकर भी होता तो है ही 
जवान बेवा की कामनाएँ ज्यूँ दफ़न रिवाजों में 
इंसानियत किन्ही अरमानों की 
कब्रगाह बनी घूमती न हो सदियों से 
सच के कुछ मोती न छुपे हों 
गहरी अँधेरी घाटियों में कहीं 
आओ चलके देखें तो सही 
बने बनाए के बिगड जाने की आशंका 
पुरुषार्थ को कोई चुनौती भी अगर है 
फिर भी शायद 
चाँद को एक बारगी ही सही 
पूरी रोशनी में देख लेने की चाह 
उद्वेलित करती है मुझे 
कभी आओ इधर भी 
ऐ जगमगाती रोशनियों 

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