Wednesday, 16 January 2013

बस्तियाँ

जीने में थी लाख अड़चने और सदा मरने का डर था 
मिटटी की कमजोर दीवारें और टूटा फूटा सा छप्पर था 
प्यार मोहब्बत रिश्ते नाते सब बिकते थे बाज़ारों में 
हर ओर दुकाने लगी हुईं थी कहीं नहीं कोई घर था 
बड़े बड़े विद्वानों का धंधा सही राह बतलाने का था 
नहीं कहीं मंजिल थी कोई दुर्गम सा बस एक सफर था 
बड़ा अचम्भा होता मुझको लोग जिसे बस्ती कहते थे 
लाशों के अम्बार लगे थे खून से लथपथ पड़ा शहर था 
मौत चीखती चिल्लाती नाचे फिरती थी गली गली 
हंसने गाने की बात ही क्या सांस भी लेना दूभर था 
जीने में थी लाख अड़चने और सदा मरने का डर था 

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