जीने में थी लाख अड़चने और सदा मरने का डर था |
मिटटी की कमजोर दीवारें और टूटा फूटा सा छप्पर था |
प्यार मोहब्बत रिश्ते नाते सब बिकते थे बाज़ारों में |
हर ओर दुकाने लगी हुईं थी कहीं नहीं कोई घर था |
बड़े बड़े विद्वानों का धंधा सही राह बतलाने का था |
नहीं कहीं मंजिल थी कोई दुर्गम सा बस एक सफर था |
बड़ा अचम्भा होता मुझको लोग जिसे बस्ती कहते थे |
लाशों के अम्बार लगे थे खून से लथपथ पड़ा शहर था |
मौत चीखती चिल्लाती नाचे फिरती थी गली गली |
हंसने गाने की बात ही क्या सांस भी लेना दूभर था |
जीने में थी लाख अड़चने और सदा मरने का डर था |
Wednesday, 16 January 2013
बस्तियाँ
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