गहरा गई थी साँझ |
आधा चुल्लू कड़वा तेल लिए |
उसने सोचा जरूर होगा |
नून के साथ रोटी में लगा के |
बच्चे खा लेंगे ठीक से |
लेकिन फ़िर त्यौहार की रात |
अन्धेरा भी नहीं ठीक |
कोई गमी तो है नहीं घर में |
उहापोह तो रहा मन में |
हाथ मगर बेलते रहे बाती |
और आखिर बार ही दिये |
उसने भी दिये अपने चौबारे |
कौन रोज रोज आती है दिवाली |
Friday, 28 October 2011
दिवाली
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