Friday, 5 October 2012

सपने तो आखिर सपने हैं

शिखरों पर बैठे जमकर

बहकर बनते झरने हैं

बादल कब किसके अपने हैं

सपने तो आखिर सपने हैं

फूल सहेजें लाख मगर

शूल ह्रदय में चुभने हैं

सुख जितना मिलता है

उतने ही दुःख सहने हैं

सपने तो आखिर सपने हैं



एक लहर ऊपर जाती है

वही मगर नीचे आती है

ऊपर नीचे आगे पीछे

नियति नाच नचाती है

भवनों के कंगूरे भी आखिर

धूल धूसरित होने हैं

इन्द्रधनुष के रंगों जैसे

सिर्फ हवा में सजने हैं

सपने तो आखिर सपने हैं



मरुस्थल हैं सागर भी हैं

और यहाँ पर हैं उपवन

कभी हार ही हाथ लगेगी

कभी जीत से आलिंगन

पल भर को गिरने से पहले

आँख में मोती सजने हैं

रोज टूटते रोज बिखरते

रोज मगर फिर बुनने हैं

सपने तो आखिर सपने हैं

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