समन्दर की जो प्यास लिये फ़िरते हैं
वो अक्सर पोखरों से फ़रियाद करते हैं
चमन को होगी लहू की ज़रूरत वरना
लोग यूँही कब मुझ को याद करते हैं
तेरे ठिकाने का पता नहीं अभी हमको
सर अपना हर दर पे झुकाया करते हैं
होशियार रहें जो चढ़ने की ठान बैठे हैं
ऊँची जगहों से ही लोग गिरा करते हैं
बन गई है यहाँ मस्जिद मैखाना हटाके
लोग अब कम ही इस तरफ़ गुजरते हैं
क्या क्या गुजरती है हुस्न पर देखिये
खूबसूरत फ़ूल बाजार मे बिका करते हैं
Thursday, 8 October 2009
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अब क्या कहें सिवा इसके कि,
ReplyDeleteआप तो कलम में ही इक दुनिया आबाद लिये फ़िरते हैं..
बहुत खूब अरविंद जी ..लिखते रहें
बन गई है यहाँ मस्जिद मैखाना हटाके
ReplyDeleteलोग अब कम ही इस तरफ़ गुजरते हैं
Kya baat hai! Bahut khub.