तीर बन लक्ष्य भेद
हुये हर्षित
अहा मै
चूके कभी
भरे विषाद से
अफसोस
रात दिन
सुख दुःख पर झूलते
इतराते बिफराते
आँख होती तो देखते
प्रत्यंचा को
संधान करते हाथों को
होता विवेक तो सोचते
उसके भी पार
और और दूर
जान लेते नियति
समझ लेते विधान
और बस बने रहते
केवल एक तीर
लक्ष्य भेदता
कभी चूकता भी
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment