Friday, 8 April 2011

बात बस इतनी सी है

तीर बन लक्ष्य भेद
हुये हर्षित
अहा मै
चूके कभी
भरे विषाद से
अफसोस
रात दिन
सुख दुःख पर झूलते
इतराते बिफराते
आँख होती तो देखते
प्रत्यंचा को
संधान करते हाथों को
होता विवेक तो सोचते
उसके भी पार
और और दूर
जान लेते नियति
समझ लेते विधान
और बस बने रहते
केवल एक तीर
लक्ष्य भेदता
कभी चूकता भी

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