Saturday, 9 April 2011

वोटर

कुछ लूटते रहे तुम्हारी इज्जत
छीनते रहे तुम्हारी रोटी
जलाते रहे बस्तियाँ तुम्हारी
और कुछ थे जो
मुद्दा बनाते रहे इन्हें
धंधा चलाते रहे अपना
और भी थे कुछ
जिन्होंने खबरों का लगाया बाज़ार
इन सबके यहाँ रहा नोटों का अम्बार
और तुम
चोरी और बेईमानी का शिकार बनते
मरे लावारिस जानवरों की तरह सड़ते रहे
तुम्हारी रंगो में आखिर बहता क्या है
सुनते थे की हाय लगती है गरीब की
जिसका कोई नहीं उसका खुदा होता है
समझ में नहीं आता किस तरह रोता है तू
और अपने खुदा से रोज तू कहता क्या है
तुम्हारी रंगो में आखिर बहता क्या है

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