कुछ लूटते रहे तुम्हारी इज्जत
छीनते रहे तुम्हारी रोटी
जलाते रहे बस्तियाँ तुम्हारी
और कुछ थे जो
मुद्दा बनाते रहे इन्हें
धंधा चलाते रहे अपना
और भी थे कुछ
जिन्होंने खबरों का लगाया बाज़ार
इन सबके यहाँ रहा नोटों का अम्बार
और तुम
चोरी और बेईमानी का शिकार बनते
मरे लावारिस जानवरों की तरह सड़ते रहे
तुम्हारी रंगो में आखिर बहता क्या है
सुनते थे की हाय लगती है गरीब की
जिसका कोई नहीं उसका खुदा होता है
समझ में नहीं आता किस तरह रोता है तू
और अपने खुदा से रोज तू कहता क्या है
तुम्हारी रंगो में आखिर बहता क्या है
Saturday, 9 April 2011
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