Tuesday, 5 July 2011

हमारे दिलफ़ेंक सर जी

पश्चिमी दिल्ली के भीड़भरे
एक रिहायशी इलाके के
अन्दर की तरफ़
किसी तंग गली में
था एक दफ़्तर
जहाँ काम करते थे
एक हमारे सर जी
हमारे दिलफ़ेंक सर जी
जब तब फ़ेंक देते थे दिल सामने
कन्या हो या महिला
विधवा या परित्यक्ता
सर्व धर्म समभाव रखते थे वे
न उम्र देखें न रंग
बस जरा वो सब हो वहाँ वहाँ बदन में
जिसके होने से होती है कोई नारी नारी
और ज्यादा ज्यादा हो
लेकिन न भी हो तो भी ठीक
जब तक कि पता है नारी है
खैर जरूर बहुत लुभाता सा रहा होगा
उनका दिल
क्योंकि उठा ही लिया जाता था अक्सर
अबके जिन मैडम ने उठा लिया था उसे
मरुती मे आती थीं चला के
बाहर मेन रोड तक गलियों से निकलकर
आटो मिलने की जगह तक
सर जी को दिया करती थीं लिफ़्ट
वे उनको चुम्बन किया करते थे गिफ़्ट
देर शाम हो जाये जब अँधेरा
रोशनी से नहा जायें सड़कें गलियाँ
मैडम अपना गिफ़्ट लेने के लिये
रोका करतीं थी गाड़ी सडकपर
ठीक से देखकर
जहाँ उनके ऊपर
तेज रोशनी वाला हैलोजन न हो
उनकी इस होशियारी को
बहुत पसन्द करते थे सर जी
और ऊपर लटके बड़े बड़े हैलोजनों को
बहुत नापसन्द किया करतीं थीं मैडम
उनके इलाके का वो छोकरा सभासद
कभी सपने में भी न सोच सके शायद
कि उसे एक वोट कम मिलेगा अगले चुनाव में
बतौर हैलोजन लगवाने की सज़ा


(हमारे एक प्रिय सर जी के रोमांचकारी जीवन का एक पन्ना है ये; सोचने वाली बात है कि पूरी किताब कितनी दिलचस्प न होगी !)  

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