Monday, 22 August 2011

दुनिया मेरे आगे

गीली गीली सी महकती रात
लुकते छिपते दोना भर सितारे
मटरगस्ती करते आवारा बादल
रुनझुन बूँदों की स्वर लहरी 
पत्तों को छेड़ती सावनी बयार 
देर तक मासूम पूनम का चाँद 
कल रात जब वहाँ खेल रहा था
यहाँ इस तरफ इसी दुनिया में 
भूख से हारतीं उम्मीदों और 
सपनों को रौंदते यथार्थ में 
जालसाजियों से पलंग सजाकर
तरक्की की सीता के साथ 
सुहागरात के सपने देखता था
तंत्र और व्यवस्था का रावण 
कोई पूछता था हमसे कि 
तुम्हारी आँख में आंसू और
होठों पर मुस्कराहट एक साथ 
तभी सामने सड़क पर नारे 
और भीड़ की उत्तेजना पर
जोर से आ गई हंसी और 
एक सवाल उठा जेहन में 
ऐसा ही तो होता रहा होगा
पहले भी ग़ालिब के समय 
जब भीतर से निकलता था 
होता है शबोरोज़ तमाशा .........

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