| पहाड़ के सर चढ़कर बैठा है बन के बर्फ |
| बैठा रह सकता है सदियों वहीं जम के |
| लेकिन अगर और ऊपर जाना हो तो |
| पिघलना होना जिद छोड़ |
| बहना होगा नीचे |
| उबड़ खाबड़ पत्थरों पर |
| उनसे लड़ते हुये उनको बदलते हुये |
| राह बनानी होगी आडी तिरछी ही सही |
| ढोनी होगी गन्दगी |
| जूझना होगा मौसमों से |
| विलीन कर देना होगा स्वयं को सागर में |
| और फ़िर जब सूर्य रश्मियाँ पुकारें |
| निमंत्रण उनका सहर्ष स्वीकार कर |
| मिट कर हवा हो जाना होगा |
| तब वे ले जायेंगी वहाँ ऊपर |
| शिखरों से भी ऊपर |
| जहाँ है स्वच्छंद विचरण |
Tuesday, 30 August 2011
ऊपर
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