कुछ इंसान अभी अभी निकले हैं |
पन्द्रह दिन तक पानी में रह के |
जड़ा गए होंगे बेचारे |
हड्डियाँ ज़रा सेंक लें |
तनिक आग जलाई जाए |
आपसे बस इतनी है दरकार |
थोड़ा कोयला देना सरकार |
उधर नीचे कुछ मदरासी बंधु |
रूस और जापान के हादसों से डरे |
अपनी सेहत और जान की चिंता में |
खा रहें गोली |
डाक्टर वाली नहीं |
पुलिस वाली |
अरे बिजली ही तो देनी है ना उनको |
तो कुछ और करिये उपचार |
थोड़ा कोयला देना सरकार |
एक कनपुरिया सज्जन |
दिसा मैदान को निकले होंगे |
अँधेरे में दिखाई नहीं दिया होगा |
ऐसी जगह फारिग हो गए |
कि बुरा मान गए साहब लोग |
हालांकि जगह तो ठीक ही चुनी थी |
सो बंद हैं ससुराल में |
लिखने का शौक है सुना उनको |
अब कागज़ कलम कहाँ वहाँ |
रंगने पोतने को है दीवार |
थोड़ा कोयला देना सरकार |
Tuesday, 11 September 2012
थोड़ा कोयला देना सरकार
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment