तुम स्वतन्त्र होगे
क्या तब जब
आदमी कहेगा ये तुमसे?
तो फ़िर तुम क्यों देखती हो
आदमी की ओर ही
स्वतन्त्रता के खयाल पर?
क्यों चाहती हो
उसकी स्वीकृति?
क्यों बनना और करना चाहती हो
उसके जैसा ही?
क्यों नहीं सोच पाती
अपने जैसा बनने का
अपने जैसा जीने का?
अपने सहारे चलने पर
क्यों कदम कदम पर
होती है घबराहट?
तुम्हे साथ चाहिये किसी का ठीक
पर सहारा क्यों?
स्वयं को तुम्हे
नहीं सिद्ध करना है
किसी और को
नहीं जरूरत है तुम्हे
बागी बनने की भी
अपने स्त्रीत्व के दम पर
अपनी पहचान बुलन्द करो
स्वच्छंद नहीं
स्वतन्त्र बनो
होंगी मजबूरियाँ
मगर खूबियाँ भी हैं तुममे
सम्मान समर्पण दया करुणा ममता स्नेह
कमजोरियाँ नहीं हैं तुम्हारी
हथियार हैं
लिखो अपना भाग्य स्वयं
फ़ैसले स्वयं करो अपने
परतन्त्र रहना है तो भी.
और फ़िर कैसी परतन्त्रता!
Thursday, 17 December 2009
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