Wednesday, 24 March 2010

मेरे पापा

मेरे पिता पर कविता लिखना कठिन है
न रस न लालित्य न माधुर्य
प्रेम संवाद ही नहीं हुआ कभी हमारे बीच
न वाणी से
न अन्यथा
अलबत्ता कुछेक दफ़े मेरे गालों से ज़रूर
उनकी हथेलियों का विस्फ़ोटक संवाद हुआ है
जाने क्या चाहते थे वे ज़िन्दगी से
असन्तुष्ट व्यग्र तीव्र उत्सुक
झपट्टा सा मारने को तैयार
वे यकीनन चाहते थे कि हम बने
बड़े ऊँचे धनवान प्रसिद्ध
कुल मिलाकर एक ज़ुनून थे वे
वो बताने को हैं नहीं
और हम जानते नहीं
कि हम कहाँ पहुँच सके उनके हिसाब से
खैर जहाँ भी पहुँचे हम
इसमे उस ज़ूनून का दखल अव्वल है


(राम नवमी, मेरे पिता की पुण्यतिथि पर, उन्हे असंख्य श्रद्धा सुमन अर्पित)

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