अपनी छुद्र जानकारियों
और अत्यल्प ताकत के मद मे चूर
हवा में उड़ते हम मानव
काटते रहते हैं पेड़ उसके
कुतरते रहते हैं पहाड़
दोहन करते हैं उसके खजानो का
दूषित करते हैं उसके जल संसाधन
रौंदते हैं बुरी तरह
सहती रहती है चुपचाप अक्सर
वसुन्धरा जो आखिर ठहरी
और फ़िर कभी कभी
एक ज़रा सी झिड़की जैसे
फ़ुफ़कार उठती है वो
आसमान में उड़ने वालों के
कतर डालती हैं पंख
उसकी ज्वालायें
हम फ़िर उड़ेंगे कल
हमारी जिद ठहरी
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