उत्कंठाओं से पैदा हुई खीझ
बदलती जाती है ऊब में
धीरे धीरे
और फ़िर न जाने कब
जन्मती है एक गहरी उदासी
सरोकार घर से निकलकर
फ़ैलने लगते हैं दूर तलक
और हो जाते हैं गुम
तृष्णाओं की अन्धी गलियों में
कुछ फ़ीके फ़ीके से उजाले
समझौतों की देहरी पर
सर पटक पटक कर
दम तोड़ देते हैं बेआवाज़
जीवन के सच की
छोटी सी एक कंकड़ी
जगा देती है
समय के महासागर में
एक सैद्धान्तिक लहर का वर्तुल
बढ़ते भागते हुये
अनन्त की ओर
खोती जाती है अपनी धार
छू भर भी नहीं पाती
अगली पीढ़ी के मनुष्य को
बीत जाता है एक दिवस
एक शताब्दी
एक युग
एक कल्प
एक ही साथ
हर समय
समय के बीतते जाने की
यही नियति है
या कि ठहरा हुआ है समय
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