Tuesday, 13 July 2010

संस्कार

लोग नहीं बदलते
बदल जाती हैं इच्छायें
हाथ से खींचकर चलाई जाने वाली
एक छोटी गाड़ी
बदल जाती है
एक बड़ी गाड़ी मे
परिमाणात्मक परिवर्तन भले हो
गुणधर्म नहीं बदलते
कागज की चिन्दियों पर
लड़ते लड़ते
नाखूनो से नोचते
छुरे और तलवार जैसे विस्तारों मे
कब बदल जाते हैं
पता नहीं चलता
और अब विषय होती हैं
दूसरी तरह की कागज की चिन्दियां
कपड़े के गुड्डे
या चमड़े के
बहरहाल मुद्दा वही
माटी के पुतले
कुल मिलाकर महज़ मात्राओं का फ़र्क ही नहीं हैं क्या
हमारा परिपक्व होना
बहुत अलग बात है शायद
मनुष्य का संस्कारित होना

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