Wednesday 28 April, 2010

बदलता नहीं कुछ

उत्कंठाओं से पैदा हुई खीझ
बदलती जाती है ऊब में
धीरे धीरे
और फ़िर न जाने कब
जन्मती है एक गहरी उदासी
सरोकार घर से निकलकर
फ़ैलने लगते हैं दूर तलक
और हो जाते हैं गुम
तृष्णाओं की अन्धी गलियों में
कुछ फ़ीके फ़ीके से उजाले
समझौतों की देहरी पर
सर पटक पटक कर
दम तोड़ देते हैं बेआवाज़
जीवन के सच की
छोटी सी एक कंकड़ी
जगा देती है
समय के महासागर में
एक सैद्धान्तिक लहर का वर्तुल
बढ़ते भागते हुये
अनन्त की ओर
खोती जाती है अपनी धार
छू भर भी नहीं पाती
अगली पीढ़ी के मनुष्य को
बीत जाता है एक दिवस
एक शताब्दी
एक युग
एक कल्प
एक ही साथ
हर समय
समय के बीतते जाने की
यही नियति है
या कि ठहरा हुआ है समय

Tuesday 27 April, 2010

पदोन्नति

योग्यता और निष्ठा के आधार पर
वे पा गये पदोन्नति
मगर सवाल ये कि
कौन सी योग्यता
किसके प्रति निष्ठा

Monday 19 April, 2010

आइसलैंड ज्वालामुखी

अपनी छुद्र जानकारियों
और अत्यल्प ताकत के मद मे चूर
हवा में उड़ते हम मानव
काटते रहते हैं पेड़ उसके
कुतरते रहते हैं पहाड़
दोहन करते हैं उसके खजानो का
दूषित करते हैं उसके जल संसाधन
रौंदते हैं बुरी तरह
सहती रहती है चुपचाप अक्सर
वसुन्धरा जो आखिर ठहरी
और फ़िर कभी कभी
एक ज़रा सी झिड़की जैसे
फ़ुफ़कार उठती है वो
आसमान में उड़ने वालों के
कतर डालती हैं पंख
उसकी ज्वालायें
हम फ़िर उड़ेंगे कल
हमारी जिद ठहरी

Thursday 15 April, 2010

कंचन

वो भागता था मुँह करके
धन की ओर
चीखता हुआ कि
स्वर्ग है धन
दूसरा भागता था पीठ करके
धन की ओर
चीखता हुआ कि
नर्क है धन
धन था कि चीखता था वहीं पड़ा हुआ
अरे भाई
महज़ धन हूँ मैं
सुनता कौन था लेकिन

Wednesday 14 April, 2010

सभ्यता का लेखा जोखा; सन २०१०

आधुनिकता के खंडहरों मे
बदहवास फ़िरते इतिहास की
मर्मान्तक चीखें
आंकड़ों के कूड़ेदान मे
सड़ते सत्यों के ढेर से
तथ्यों की चिन्दियां बीनते समूह
ज़िन्दगी के कब्रिस्तान मे
नाचते सरोकारों के प्रेत
हवस की तपती रेत पर
प्रसव को मजबूर योग्यतायें
प्रेरणाओं को निगलती
मुँह बाये
महत्वाकांक्षाओं की सुरसा
शिष्टता की ओढ़नियों मे छुपी
बजबजाती पाशविकता
दिशाहीन राहों पर
लंगड़ाता भ्रमित कुंठित वर्तमान
रिश्तों के सच का कुल जमा मापदण्ड
नून तेल लकड़ी के ठीकरे
मर्यादाओं के पाखण्ड तले
नंगो की छातियों पर सवार
अट्टहास करते बौने न्याय तंत्र
शासन प्रणाली की ओट मे
भूखी मासूमियत के कंधों पर खड़े
अपनी उँचाइयों का दम्भ भरते
मनुष्यता की लाशें नोचते जनतान्त्रिक गिद्ध
क्षण भर में सहस्त्र बार
धरणी का विनाश करने को व्यग्र
वसुधा की कुटुंब थैली मे फ़लते फ़ूलते
प्रजातन्त्र और साम्यवाद के चट्टे बट्टे
हवस अनाचार मूर्खता और दर्प
की बीनो पर डोलते
अनैतिक तन्त्र का अलौकिक लोक
यह सब है कुल जमा परिणाम
सामाजिक मनुष्यता के विकास क्रम मे
हुई प्रगति का
या कहें दुर्गति का
यह हमारी सभ्यता है
आश्चर्य
फ़िर क्या है असभ्यता

Tuesday 13 April, 2010

पी एच डी

छान मारे पुस्तकालय
पढ़ डालीं किताबें
निबटा डालीं
विद्यालयों और विश्व विद्यालयों की कक्षायें
उत्तीर्ण कर लीं परीक्षायें
अत्याधुनिक शोध पत्र
विद्बानो के व्याख्यान
छूटे नहीं एक भी
हो गई आखिर
तैरने मे पी एच डी
और फ़िर
पार करने को
जैसे ही लगाई भव सागर मे छलांग
कि डूब गये

Monday 12 April, 2010

दोष

अभी पैदा हुये बच्चे हिन्दू नहीं होते
और न ही मुसलमान
अभी पैदा हुये बच्चे आस्तिक नहीं होते
और न ही नास्तिक
अभी पैदा हुये बच्चे होते हैं निर्दोष
जरा देर मे ही ये नहीं रह जायेंगे निर्दोष
जरा देर मे ही आ जायेंगे इनमे दोष
अभी हो जायेंगे ये हिन्दू
या मुसलमान
अभी हो जायेंगे ये आस्तिक
या नास्तिक

Friday 9 April, 2010

गुजरती का नाम ज़िन्दगी

ज़िन्दगी की तलाश में
गुजर गई एक ज़िन्दगी
एक ज़िन्दगी गुजर गई ख्वाब मे
सुबह और शाम के भागदौड़ मे
गुजर रही है एक और ज़िन्दगी
कल कुछ हो जाये शायद
इस इन्तजार में हर रोज़
गुजर जाती है एक ज़िन्दगी
एक ज़िन्दगी गुजर रही है
अपनो की ज़िन्दगी की सोच मे
जाने कैसी होगी वह ज़िन्दगी
जो मै जीना चाहता हूँ
गुजारना नहीं
सोचता हूँ कि
वह ज़िन्दगी अब अगर
अकस्मात मिल भी जाये
तो उसे जीने के लिये
कहाँ से लाउँगा
एक और ज़िन्दगी !


(१ जून २००४)

Tuesday 6 April, 2010

अतिप्रश्न

प्रेम तपस्या है
प्रेम जीवन है
प्रेम ईश्वर है
तमाम लोग तमाम बातें
पूछो प्रेम क्या है
हर कोई तैयार बताने को
कवि गण सबसे आगे
इस सवाल का जवाब
चाहे कुछ भी हो
जक तक जवाब है
जाना नहीं समझो
हमसे पूछे कोई
हम तो न बता पायेंगे

Monday 5 April, 2010

धारणायें

रंगीन चश्मे से देख कर
वो बनाता रहा
एक खूबसूरत तैल चित्र
एक शान्त सुन्दर बड़ी गहरी नीली झील
पीछे थोड़ी दूर तक फ़ैले
हरे मैदान
और फ़िर उसके पीछे
ऊँचे खड़े सलेटी भूरे और हरे रंगो वाले पहाड़
सामने इस तरफ़ पास
एक छोटा सा घर
और इसके दालान में
दो बिल्लियों के साथ खेलते
छोटे बच्चे
जो बन पड़ा
वो यकीनन अपने रंग मे न था
और फ़िर देखा गया उसे
और और रंगीन चश्मो से
ये झील
पीछे के मैदान और पहाड़
सामने खेलते बच्चे और बिल्लियाँ
कालांतर मे
रूप लेती है एक कविता का
एक कवि के शब्द जाल में कैद होकर
यकीनन ये अब एक मिथक भर था

Friday 2 April, 2010

रेत के महल

सागर तट पर तन्मयता से
रेत के महल बनाते बच्चे
बस यूँही खेल है उनको
साँझ होते होते
घर लौटने का समय
खूब मस्ती में
रौंदते मिटाते
वही रेत के महल
बस यूँही खेल है उनको
प्रयोजन रहित
निष्पत्ति विहीन
बस यूँही है
फ़ूलों का खिलना
झरनो का गिरना
नदियों का बहना
हवाओं का चलना
पशुओं की भाग दौड़
सूरज चाँद सितारे
जीवन है निष्प्रयोजन
प्रफ़ुल्लता है हर ओर
दुखी है
सिर्फ़ और सिर्फ़ मानव
जाने क्यों

Thursday 1 April, 2010

काँटे

तुम जब कहते हो मुझे
कुरूप और कठोर
काँटे सा
चुभता है
और झरती जाती हैं
मेरी पँखुडियाँ.