Friday 26 February, 2010

चारदीवारी

जिस चारदीवारी के पीछे खड़े होकर
तुम बादलों के चटकीले रंग निहारती हो
वास्तव मे है नहीं वह
बाड़ें होती हैं मवेशियों के लिये
सपनों को तो बहुत छोटा है
सारा आकाश भी
डैनों को खोलने के प्रयत्न काम नहीं आते अक्सर
चाहत करती है संचालित सब गतियाँ सारी उड़ाने
सपने नहीं टूटते
मनोबल टूटते हैं
और फ़िर कुछ नहीं बचता
तुममे तो अभी बाकी हो पूरी तुम
तुम्हारे पंख दिखाई देते हैं मुझे
और उदासी भी
नैराश्य है जिसे तुम संतुष्टि कहती हो
तुमने खुद ही बनाये हैं घेरे अपने चारों ओर
सुरक्षा नहीं
ठीक से देखो कैद है
सहनुभुति पा लेने भर का लोभ क्यों
सब पाने की पात्रता तो है तुममे
सब में होती है
बस एक ज़रा तीव्र उत्कंठा
और ज़रा सा हौसला
फ़िर तुम पाओगी कि
चारदीवारी नज़र ही नहीं आती
उन चटकीले रंगों वाले बादलों से
वास्तव मे है नहीं वह

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