Friday, 13 July 2012

उसका घर

देह से बाहर भी रहती है वह

कमीज के बटनों में सजती है

दरवाजे की भीतर लगी कुण्डी में रात खिलती है

पानी के ठन्डे गिलास की सिहरन में कांपती है

फेरीवाले की आवाज की लय में डोलती है

अदरक की चाय की भाप में उड़ती हुई

बंध जाती है स्कूल जाते बच्चे के जूते के फीते में

दफ्टर भागते आदमी की व्यग्रता है वो

पीछे से दौड़कर टिफिन पकड़ाती आपाधापी भी वही है

ऐसी ऐसी जगहों पर बिखरी रहती है कि पता भी न चले

लगता है कि कभी भीतर है वो अपने

तब भी कहीं और ही होती है

रात खाने की सब्जियां चुनती

बच्चे को पिकनिक जाने देने के बारे में

पति से करने वाली बात की झिझक में होती है

बिटिया के लिए नई फ्राक की बात उठाने के बाद वाली झिड़की

और उसकी सहम में होती है कभी

पति की उपेक्षा में होती है

सिर्फ लगता है कि भीतर है वो

ज्यादातर तो देह के बाहर ही रहती है वह

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