Tuesday, 21 August 2012

पीली ज़िंदगियाँ

उन रास्तों से होकर नहीं भी कहीं जाती हैं

कुछ ज़िंदगियाँ

बत्ती के रंग उस चौराहे पर

उनके लिए मायने नहीं रखते औरों जैसे

शोरगुल आपाधापी दौड़ भाग के बीच

सब कुछ शांत और ठहरा हुआ है उनमें

डर लगता है ये कहीं तूफ़ान के पहले की न हो

ये सारे मैले कुचैले एक साथ गड्ड मड्ड

गोड्जीला बनके इधर उधर फेंक फांक दे सब कुछ

बसें ट्रकें कारें साइकिलें उलट पलट कचरा पड़ीं हों ढेर

नहीं नहीं

ऐसा नहीं होता

इनमे वो बात नहीं

ये बस कहने भर को हैं ज़िंदगियाँ

हरी हो गई ड्राइवर

चलो

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