जल रहा है आसाम
उड़ उड़ के चिंगारियां पहुँच रहीं हैं दक्षिण तक
कहीं सूखा तो कहीं बाढ़
चौपट किये है सब खेती
हर पड़ोसी अपना
बोये ही रहता है गांजा किसी न किसी बहाने
मर रहें हैं मराठे किसान
भड़क रहें हैं मजदूर जाटों के देश में
जग जाहिर है नक्सलियों का उपद्रव
काश्मीर का तो बना ही है नासूर चिर स्थाई
झंडा ऊंचा किये कोई न कोई
चक्का जाम ही किये रहता है राजधानी में
और उधर ठलुए सब खोदे डाल रहें हैं जो भी कुछ बचा है
खा पी लुटा डाल रहें हैं सबका माल
थोड़ा खाओ थोड़ा फेंको की तर्ज पर
ठलुओं अपने सब लगुओं भगुओं के साथ भर रहें हैं घर
नहीं समा रहा है तो भर रहें हैं विदेशी बैंको में
बालू लोहा कोयला टूजी सब झोंका जा रहा है
हवस के हवन कुंडों में
ये नरक ये अव्यवस्था ये तांडव ये सुलगती आग ये आक्रोश
ऐसा लगता है कि
एक बड़े विशालकाय बारूद के ढेर पे बैठ कर
आलू भून भून के खा रहें हैं ससुर
चार छे मुरहे लौंडे
No comments:
Post a Comment