सर्दी बढ़ गई है
घर से लोग ज़रा कम निकलते हैं
और काफ़ी देर से भी
भगवान भास्कर को भी
लगता है
सुबह सुबह नहा धोकर तैयार होने मे
काफ़ी वक्त लग जाता है निकलते निकलते
कभी कभी तो वो पूरा दिन ही मार लेते हैं छुट्टी
कैज़ुअल लीव
गत सप्ताह तो लगता है
चले गये थे मेडिकल लीव पर
वापस आये तो ज़रा कमजोर थे
अच्छा लेकिन
कुछ लोग वाकई बहुत सख्त हैं
जल्दी से हुये तैयार और लग गये काम पे
ऐसी सर्दी मे भी
बिला नागा
न कोई कैज़ुअल न मेडिकल
कम्बलों और जैकेटों का भी
कम ही सहारा है जिनको
धूप के ही हैं भरोसे जादा
सो भी दगा दे देती है गाहे बगाहे
तमाम हैं ऐसे
जैसे मेरे घर की बाई
दफ़्तर के चपरासी
ईंटे ढोती औरतें
रिक्शा खींचते आदमी
कूड़ा बीनते बच्चे
इन्सान को चाहिये थोड़ी सहूलियत दे दे इनको
जैसे ज़रा देर से आने की मोहलत
कोई पुराना कम्बल
पानी गरम करने की सुविधा
बच्चों का पुराना स्वेटर
बचा हुआ खाना
लेकिन मै सोचूँ
कि जब भगवान ही दुबक जाते हैं
थोड़ी सी धूप देने में
इनको इस मौसम मे
तो इन्सान की आखिर बिसात ही क्या है
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