Friday, 22 January 2010

संगम

बूँद बूँद पिघलती है बर्फ़
सँकरे मुहाने से निकलती है
चट्टानों को काटती है
झाड़ियों में बनाती है राह
आड़े तिरछे पहाड़ के
दुर्गम रास्ते पे जूझती है
न कोई दिशा सूचक होता है
न कोई नक्शा
मार्ग बताने वाला भी नहीं कोई
भटकती फ़िरती है
और कहाँ कहाँ मारती है सर
आबादियों के पास से गुजरती है
ढोती है लोगों की गन्दगी
हर तरह की
बरबादियों से लड़्ती है
कुदरत से खाती है मार
सूख कर भी नहीं मानती हार
पल भर नही थमती विश्राम को
अदम्य साहस दिखाती है
प्रिय मिलन की आस से भरी
गिरते पड़ते चलती जाती है
अन्तत: एक दिन वो नदी
सागर के सामने
पहूँच ही जाती है
इतराती है दुलराती है
खुश होती है और
चौड़ी हो जाती है
ज़रा सोचो
कि अब अगर सागर मना कर दे
प्रणय को
तो क्या करे वह कहाँ जाये
ऐ मेरे देवता
मेरी प्रार्थना सुनी जाये

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