Thursday, 21 January 2010

मुक्ति

एक दिन झाड़ दूँगा धूल
कर्मो की विचारों की सपनो की
फ़ेंक दूँगा लगाव
किताबों से आमो से खास लोगों से
दरकिनार कर बैठूँगा चिन्तायें
परिवार की समाज की जगत की
छुट्टी पा लूँगा कष्टों से
बीमारी के मौसमो के बेमौसम के
छोड़ दूँगा सब
तरह तरह की शंकायें
हर तरह की आशायें
दोनो जहान के झगड़े
रोज़ रोज़ के लफ़ड़े
खत्म कर दूँगा
आदि अनादि के विवाद
व्यर्थ के संवाद
प्रेम कहानियाँ
दुश्मनी की गालियाँ
सब झंझटों से
मुक्त हो जाऊँगा
बस अपने ही मे
मस्त हो जाऊँगा
न जवाब दूँगा
कोई कुछ भी कहे
लोग कहेंगे
मिश्रा जी नहीं रहे

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